अहमदाबाद के बाबू भाई परमार बचपन से ही शिक्षक बनना चाहते थे। 9 साल की उम्र में करंट लगने से उनके दोनों हाथ कट गए। बाबू भाई ने मुंह से पेंसिल दबाकर लिखना सीखा। दसवीं पास किया, टीचर ट्रेनिंग लिया और आज सैकड़ों बच्चों को फ्री में शिक्षा दे रहे हैं।
गुजरात. कहते हैं अगर आपके अंदर हौसला हो तो बड़ी से बड़ी मुश्किल भी आपकी हिम्मत को पस्त नहीं कर सकती। बाबू भाई परमार की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। महज 9 साल की उम्र में उन्होंने अपने दोनों हाथों को खो दिया। इसके बावजूद उन्होंने पढ़ाई किया, टीचर ट्रेनिंग किया और सैकड़ों बच्चों को निशुल्क पढ़ाते हैं।
करंट लगने से कट गए बाबू भाई के हाथ
अहमदाबाद के बाबू भाई परमार जब 9 साल के थे तो खेत में नंगे तारों को छू लिया था, जिस कारण अपने दोनों हाथों को उन्होंने खो दिया। उनके पिता खेतों में मजदूरी करते थे। बाबू भाई को हमेशा यह लगता था कि अगर वह पढ़ाई नहीं करेंगे तो उन्हें भी मजदूरी करना पड़ेगा। घर में आर्थिक तंगी थी। बाबू भाई गरीबी में जिंदगी नहीं गुजारना चाहते थे। बचपन से उनके अंदर पढ़ने की ललक थी,अपने कटे हाथों को देख कर मन ही मन यह बात खाए जा रही थी की अब वह लिख नहीं सकते। इसके बावजूद वह दिन भर कॉपी किताब लेकर बैठे रहते थे। लिखने के लिए अपने हाथों को देखते रहते थे। एक दिन बाबू भाई ने पेंसिल को अपने मुंह में दबाया और लिखना शुरू किया, उल्टा सीधा टेढ़ा-मेढ़ा शब्द किताबों पर बनता गया,बाबू भाई ने दोबारा कोशिश किया तो कुछ शब्द ठीक बन गए। धीरे-धीरे प्रेक्टिस करके बाबू भाई मुंह से पेंसिल दबाकर लिखने में पारंगत होने लगे।
बाबू भाई ने किया टीचर ट्रेनिंग कोर्स
बाबू भाई के पिता ने जब पढ़ाई के प्रति उनकी ललक देखी तो शहर के दिव्यांग स्कूल में उनका एडमिशन करा दिया। बाबू भाई ने मेहनत करके दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की और फिर 2 साल का टीचर ट्रेनिंग कोर्स किया। चूंकि बाबू भाई टीचर बनना चाहते थे तो टीचर ट्रेनिंग कंप्लीट करके उन्होंने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। इसी दौरान साल 2003 में बाबू भाई की शादी हो गई। घर का खर्च बढ़ गया। ट्यूशन से घर की आमदनी नहीं चल पा रही थी। उनका साथ देने के लिए उनकी पत्नी ने काम करना शुरू किया। लेकिन बाबू भाई का सपना था कि वह एक कोचिंग क्लास खोलें।पैसे की तंगी के कारण यह सपना पूरा नहीं हो पा रहा था। बाबू भाई हर रोज शिव मंदिर दर्शन करने के लिए जाते थे। इसी दौरान उनकी मुलाकात सोशल वर्कर अमरीश ओझा से हुई। अमरीश ओझा को जब बाबू भाई के बारे में पता चला तो उन्होंने बाबू भाई को अहमदाबाद के सिंधु भवन रोड पर छयाडो नाम के स्कूल में दो हज़ार रुपये पर नौकरी लगवा दिया। यह स्कूल बाबू भाई के घर से करीब सात किमी दूर था और वो बस में सफर करके बच्चों को पढ़ाने जाते थे। 2010 में कंस्ट्रक्शन के कारण यह स्कूल टूट गया । बाबू भाई एक बार फिर बेरोजगार हो गए।
गरीब बच्चों के लिए कोचिंग क्लास बनाना चाहते हैं बाबू भाई
इसी दौरान बाबू भाई स्वीटी भल्ला समाज सेवी के संपर्क में आए। स्वीटी भल्ला गरीब बच्चों को पढ़ाने का काम करती थी और उन्हें एक शिक्षक की तलाश थी। लायंस क्लब के ज़रिये उन्हें बाबू भाई के बारे में पता चला। स्वीटी भल्ला ने उनसे बात किया। बाबू भाई काम के लिए फौरन तैयार हो गए। स्वीटी भल्ला के पास उस वक़्त दस गरीब बच्चे थे। स्वीटी ने इन बच्चों को पढ़ाने का छ हज़ार रुपये महीना बांध दिया। बाबू भाई बच्चो को मेहनत से पढ़ाने लगे, मुंह में पेंसिल दबाकर लिखता देख बच्चे भी बाबू भाई को हैरत से देखते थे।बाबू भाई का सपना अभी भी अधूरा था। वो गरीब बच्चों के लिए एक कोचिंग क्लास बनाना चाहते थे। जिसके लिए वह फंड भी इकट्ठा कर रहे हैं।
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