जलियांवाला बाग नरसंहार के 100 सालः 21 साल बाद ऊधम सिंह ने डायर को मारकर पूरी की अपनी कसम

By Team MyNationFirst Published Apr 13, 2019, 10:14 AM IST
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अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधम सिंह ने अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएं कीं। सन 1934 में ऊधम सिंह लंदन पहुंचे और वहां 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शल रोड पर रहने लगे। 13 मार्च 1940 को लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में ऊधम सिंह ने अपनी कसम पूरी की।

ऊधम सिंह...। वो क्रांतिकारी, जिसने 13 अप्रैल, 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के दोषी को लंदन में गोली मारकर निर्दोष भारतीयों की मौत का बदला लिया। शहीद ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ। ऊधम सिंह के सिर से बचपन में ही माता-पिता का साया उठ गया। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में रहना पड़ा। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इन सब घटनाओं ने उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत बहुत बढ़ा दी। उन्होंने शिक्षा जारी रखने के साथ ही आजादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। 

आजादी के आंदोलन के इतिहास में सन् 1919 का 13 अप्रैल के दिन ने सबसे बड़ा जख्म दिया। अंग्रेजों ने अमृतसर के जलियावाला बाग में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेजों से इसका बदला लेने की ठान ली। उस समय माइकल ओ डायर पंजाब के गर्वनर थे। उनके आदेश पर ही जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में गोलियां चलवाईं। ऊधम सिंह ने कसम खाई कि वह डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधम सिंह ने अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएं कीं। सन 1934 में ऊधमसिंह लंदन पहुंचे और वहां 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने अपना मिशन पूरा करने के लिए एक रिवॉल्वर भी खरीद ली। जनरल डायर को ठिकाने लगाने के लिए वह सही समय का इंतजार करने लगे। आखिरकार उनको 1940 में मौका मिल ही गया।

जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक थी, जहां ओ'डायर भी पहुंचा। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुंच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह काट लिया, जिससे उसे आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने डायर पर गोलियां चला दीं। दो गोलियां डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरंत मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया। उन पर मुकदमा चला।

अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किंतु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? इस पर ऊधमसिंह ने कहा, वहां कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- 'मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए।'

04 जून 1940 को ऊधम सिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई, 1940 को उन्हें 'पेंटनविले जेल' में फांसी दे दी गई। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अपनी शहादत देकर अमर हो गया। 31 जुलाई, 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधम सिंह की अस्थियां सम्मान सहित भारत लाई गईं। उनके गांव में उनकी समाधि बनी हुई है।

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