क्यों 2019 के चुनाव में मायावती अखिलेश का गठबंधन फेल हो सकता है? जानिए छह कारण

यूपी में बने महागठबंधन को विपक्ष का बड़ा हथियार बताया जा रहा है। लेकिन हो सकता है कि अगले चुनाव में यह चल ही न पाए।
केन्द्र में सत्तासीन बीजेपी सरकार को 2019 में जीत हासिल करने से रोकने के लिए सबसे बड़ा कदम यूपी में उठाया गया है। जिसके पीछे यह विचार है कि सिर्फ महागठबंधन बना कर ही नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को रोका जा सकता है। जैसा कि नवंबर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था। 
शनिवार को यूपी की राजनीति में तगड़ा रसूख रखने वाले बीजेपी विरोधी दो बड़े दस सपा और बसपा ने आपस में गठबंधन करने का ऐलान किया।    

6 reasons why Mayawati-Akhilesh alliance in UP may fail in 2019 polls

जैसा कि पहले ही उम्मीद की जा रही थी विपक्ष ने अपना ‘ब्रह्मास्त्र’ निकाल लिया है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी-शाह की जोड़ी इसकी क्या काट निकालती है। 
लेकिन क्या यूपी का बुआ-बबुआ के बीच हुआ यह महागठबंधन सफल रहेगा? माय नेशन ने इस बात की जांच की कि कैसे इसकी असफलता की आशंका ज्यादा है। 

जातीय समीकरण बीजेपी के पक्ष में हैं 
 यूपी में यादव आठ प्रतिशत, मुस्लिम 19.26 प्रतिशत और दलित 20 फीसदी हैं। यह 47 फीसदी का वोटबैंक उपरी तौर पर तो महागठबंधन को मजबूत दिखाता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 11 फीसदी जाटव बीजेपी को वोट करते रहे हैं।
उधर बीजेपी को दस फीसदी ब्राह्मण वोट, 18 फीसदी गैर यादव ओबीसी, आठ फीसदी ठाकुर, आठ फीसदी कुशवाहा(मौर्या,शाक्य,काछी,कोयरी,सैनी), तीन फीसदी कुर्मी, दो फीसदी वैश्य, 1.1 फीसदी भूमिहार और त्यागी, 0.8 फीसदी आदिवासी और 11 फीसदी गैर जाटव दलित वोटों पर भरोसा है ।  

जो कि कुल मिलाकर 62 फीसदी होते हैं। यह बीजेपी के लिए मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकते हैं। इसके अलावा जाटव युवा, शिया और तीन तलाक बिल की वजह से प्रभावित हुए मुस्लिम महिलाएं भी बीजेपी के पक्ष में आ सकती हैं। 


क्या यादव उम्मीदवारों के लिए वोट डालेंगे दलित ? 
समाजवादी पार्टी के शासनकाल में यादव मुस्लिम राजनीति की वजह से दलितों को बहुत कुछ झेलना पड़ा था। इसलिए इस बात में संदेह है कि दलित मतदाता समाजवादी पार्टी के यादव उम्मीदवारों को वोट देंगे। क्योंकि अतीत में यूपी के दलितों और यादवों के संबंध अच्छे नहीं रहे हैं। 
यूपी से समाजवादी पार्टी की सत्ता जाने का बड़ा कारण कानून व्यवस्था की स्थिति और उसका यादवों को विशेष महत्व देना था। यूपी के दलित इस बात को अभी भूले नहीं हैं। 

क्या यादव वोट करेंगे दलित उम्मीदवारों को?
अगर दलितों ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को समर्थन दे भी दिया तो यादव मायावती के दलित उम्मीदवारों को वोट देना कभी पसंद नहीं करेंगे। क्योंकि उत्तर प्रदेश और बिहार में यादव स्वयं को सवर्ण मानते हुए दलितों को नीची निगाह से देखते हैं। 
 
 नाराज उम्मीदवार बिगाड़ सकते हैं सपा-बसपा का गणित
सपा बसपा के गठबंधन की वजह से सपा और बसपा के ऐसे बहुत से उम्मीदवार हैं, जिनकी सीटें छिन जाएंगी। यह सभी उम्मीदवार या तो बीजेपी की तरफ दौड़ेंगे या फिर बागी उम्मीदवार के तौर पर किस्मत आजमाएंगे। हो सकता है कि वह चुपचाप बैठ भी जाएं तब भी जमीनी स्तर पर वह पार्टी के खिलाफ ही काम करेंगे। मायावती और अखिलेश को ऐसे बहुत से बागियों का सामना करना पड़ेगा। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की कोशिश होगी कि ऐसे बागियों का गुस्सा शांत न हो। 

सवर्ण वोटों का ध्रुवीकरण
यादव दलित और मुस्लिम वोटों की एकजुटता सवर्ण वोटों के ध्रुवीकरण का कारण बन सकती है। यह सवर्ण और गैर यादव ओबीसी वोटों को बीजेपी के पाले में खींच सकता है। केन्द्र सरकार ने गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की है और एससी एसटी संशोधन विधेयक लाया है। यह दोनों ही कदम उसके वोट बैंक में इजाफा करेंगे। 

राम मंदिर की वजह जातीय राजनीति का जोर कमजोर पड़ेगा
और आखिर में बीजेपी के लिए यूपी और शायद पूरे देश में राम मंदिर का मुद्दा बड़ा गेमचेंजर साबित हो सकता है। राम मंदिर निर्माण की ओर बढ़ रहे कदम जातीय राजनीति को कमजोर करेंगे और बीजेपी के पक्ष में हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण सुनिश्चित कर देंगे।
राम मंदिर एक ऐसा मुद्दा है जिसने मायावती जैसी नेता को भी चिंतित कर रखा है कि कहीं हिंदू वोटों की लहर में उनका दलित वोट भी न बह जाए।    
 

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