ऐसे समय जब ऑल इंडिया मुस्सिल पर्सनल लॉ बोर्ड के देश भर में शरिया अदालतें गठित करने की मांग करने को लेकर बहस छिड़ी हुई है, राजधानी दिल्ली में देश की सर्वोच्च अदालत से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर धड़ल्ले से शरिया अदालत चल रही है।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश के सभी जिलों में दारुल-कज़ा यानि इस्लामिक शरिया अदालत खोलने का ऐलान कर नया विवाद खड़ा कर दिया है। बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत को शरिया कानूनों के अनुसार चलना चाहिए? अगर आपका जवाब 'ना' है, तो कुछ आंकड़ें आपको चौंका सकते हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) पहले से ही भारत में लगभग 50 शरिया अदालतें चला रहा है। एक और मुस्लिम संगठन इमारत-ए-शरिया भी देश में ऐसे 255 कोर्ट चला रहा है।
'माय नेशन' की पड़ताल के मुताबिक, महाराष्ट्र में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की 26 शरिया अदालतें हैं। खास बात यह है कि यहां संविधान के तहत चलने वाली महज 33 जिला अदालतें हैं। एआईएमपीएलबी की उत्तर प्रदेश में 13, दिल्ली में 2, मध्य प्रदेश में 2, कर्नाटक में 2 और हरियाणा में 1 शरिया अदालत है।
असम में इमारत-ए-शरिया 80 शरिया अदालतें संचालित कर रहा है, जबकि यहां महज 21 जिला और सत्र न्यायालय हैं। बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भी यह संगठन 175 शरिया अदालतें चला रहा है। अब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड देश भर में ऐसी हजारों अदालतें चाहता है।
'माय नेशन' ने इन अदालतों की हकीकत का पता लगाने के लिए दिल्ली के जामिया नगर में चलने वाली एक ऐसी ही अदालत का रुख किया और यहां मामलों की सुनवाई कर रहे एक तथाकथित जज से मुलाकात की।
इस तरह की अदालत चलाने के सवाल पर उन्होंने कहा, 'इसमें कुछ भी गलत नहीं है। जो लोग भी इन अदालतों में न्याय देते हैं, उन्हें पता है कि अपना काम कैसे करना है। ये दारूल कज़ा, बिहार, ओडिशा, झारखंड या फिर किसी दूसरी जगह, चाहे इन्हें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड चला रहा है या इमारत-ए-शरिया, इनमें कुछ भी गलत नहीं है।
जब हमने यहां सुने जाने वाले मुकदमों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, 'जनवरी से अब तक इसी सेंटर में 40 मामलों की सुनवाई हुई है। इनमें से 25 को हल कर दिया गया है। फिलहाल 13-14 मामले सुनवाई के लिये बचे हैं। सुनवाई के लिए हम महज 300 रुपये की फीस लेते हैं।'
यह कौन तय करता है कि मामला कौन सुनेगा, इस सवाल के जवाब में जज की कुर्सी पर बैठे मौलाना ने कहा, 'केस सुनने की मुख्य जिम्मेदारी मेरी है।'
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जोरशोर से इस तरह की अदालतें स्थापित करने मांग कर रहा है। बोर्ड के कार्यकारी सदस्य कमाल फारूकी कहते हैं, 'दारूल-कज़ा एक धार्मिक जिम्मेदारी है। ऐसे लोग, जो शरिया कानून के जानकार हैं, वह इसमें मामलों का फैसला करते हैं। शरिया कानून कुरान की तालीम और पैगंबर की कही बातों पर आधारित है। इसमें न्यायिक तरीके से किसी मामले का निपटारा किया जाता है।'
बड़ा सवाल यह है कि संविधान से चलने वाले देश में शरिया अदालत जैसी समानांतर न्यायिक व्यवस्था चलाने की इजाजत दी जा सकती है।