संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, ओजोन की परत एयरोसॉल स्प्रे और कूलंट से हुए नुकसान से उबर रही है। 2030 तक उत्तरी गोलार्ध के ऊपर ओजोन की ऊपरी परत पूरी तरह दुरुस्त हो सकती है।
ये पूरी दुनिया के लिए अच्छी खबर है। सत्तर के दशक से महीन होती जा रही ओजोन की परत अब दुरुस्त हो रही है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में इसकी पुष्टि की गई है। इसमें कहा गया है कि धरती की सुरक्षा करने वाली ओजोन की परत अब एयरोसॉल स्प्रे और कूलंट से हुए नुकसान से उबर रही है। ओजोन की परत को सत्तर के दशक के बाद से नुकसान पहुंचना शुरू हुआ। वैज्ञानिकों ने इस खतरे के बारे में बताया और ओजोन को कमजोर करने वाले रसायनों का धीरे धीरे पूरी दुनिया में इस्तेमाल खत्म किया गया। वैसे वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 80 के दशक जैसी पूर्व स्थिति के बहाल होने में अभी बहुत है।
इक्वाडोर के क्विटो में सोमवार को हुए एक सम्मेलन में जारी किए गए वैज्ञानिक आकलन के मुताबिक, इसका परिणाम यह होगा कि 2030 तक उत्तरी गोलार्ध के ऊपर ओजोन की बाहरी परत पूरी तरह दुरुस्त हो जाएगी। अंटार्टिक ओजोन छेद को 2060 तक गायब हो जाना चाहिए। वहीं दक्षिणी गोलार्ध में यह प्रक्रिया कुछ धीमी है और उसकी ओजोन परत सदी के मध्य तक ठीक हो पाएगी।
नासा द्वारा जारी तस्वीर जिसमें अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन की परत को सितंबर 2000 (बाएं) और सितंबर 2018 में दिखाया गया है।
नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के प्रमुख भू वैज्ञानिक और रिपोर्ट के सह प्रमुख पॉल न्यूमैन ने कहा, 'यह वाकई में बहुत अच्छी खबर है। अगर ओजोन को कमजोर बनाने वाले तत्व बढ़ते जाते तो हमें भयावह प्रभाव देखने को मिलते। हमने उसे रोक दिया।'
ओजोन पृथ्वी के वायुमंडल की वह परत है जो हमारे ग्रह को पराबैंगनी प्रकाश (यूवी किरणों) से बचाती है। पराबैंगनी किरणें त्वचा के कैंसर, फसलों को नुकसान और अन्य समस्याओं के लिए जिम्मेदार होती है।
उधर, नासा के अनुसंधान से जुड़े नेशनल ओसिएनिक एटमास्फेयर एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) ने भी कहा है कि पिछले 20 वर्षों के तुलनात्मक अध्ययन ने पता चलता है कि अंटार्कटिका के ऊपर स्थित ओजोन की परत में सुधार हुआ है।
ओजोन की परत पृथ्वी से करीब दस किलोमीटर की ऊंचाई पर वायुमंडल में होती है। ओजोन अत्यधिक मात्रा में होने की वजह से सूर्य से आने वाली रोशनी से खतरनाक पराबैंगनी किरणें सोख लेती है। परत में छेद होने से यही पराबैंगनी किरणें पृथ्वी तक पहुंचती हैं। यह जीव-जंतुओं में मनुष्यों के लिए खतरनाक होता है। उत्तर ध्रुव पर इसकी वजह से बर्फ के ग्लेशियर भी तेजी से पिघलने लगे। स्किन के कैंसर का सबसे बड़ा कारण भी यही पराबैंगनी किरणें हैं।