भ्रांतियां मिटाने पर केन्द्रित रहा संघ प्रमुख मोहन भागवत का भाषण

By Anshuman Anand  |  First Published Sep 17, 2018, 8:55 PM IST


पिछले कई दशकों से संघ विरोधियों ने दुष्प्रचार करके जनमानस में संघ को लेकर कई तरह की भ्रांतिपूर्ण धारणाएं बना दी हैं। इन गलत धारणाओं को लेकर अक्सर विरोधी संघ पर हमला बोलते हैं और संघ समर्थकों की उर्जा, जो कि रचनात्मक कार्यों में लगनी चाहिए, वह बेवजह के आरोपों का जवाब देते हुए नष्ट हो जाती है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सिलसिलेवार ढंग से इन भ्रांतियों का निराकरण किया। 

दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीन दिन के कार्यक्रम की शुरुआत हो गई है। इस कार्यक्रम की थीम ही इस बात पर टिकी हुई है, कि संघ के बारे में जो भ्रांतिपूर्ण धारणाएं लोगों को मस्तिष्क में जमी हुई है, उसे दूर करके कैसे सच को सामने लाया जाए। आज संघ प्रमुख मोहन भागवत का भाषण इसी बात पर केन्द्रित रहा, कि कैसे इन धारणाओं का निराकरण हो। 

पिछले कई दशकों से संघ विरोधियों ने दुष्प्रचार करके जनमानस में संघ को लेकर कई तरह की भ्रांतिपूर्ण धारणाएं बना दी हैं। इन गलत धारणाओं को लेकर अक्सर विरोधी संघ पर हमला बोलते हैं और संघ समर्थकों की उर्जा, जो कि रचनात्मक कार्यों में लगनी चाहिए, वह बेवजह के आरोपों का जवाब देते हुए नष्ट हो जाती है। 

 

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इसमें से पहली गलत धारणा, जिसे विरोधी विचारधाराओं द्वारा बहुत ज्यादा बल दिया जाता है, वह यह है कि स्वतंत्रता संघर्ष में संघ की कोई भूमिका नहीं थी।  

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस भ्रांति का बहुत विस्तार से उत्तर दिया। उन्होंने बताया, कि कैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलराम हेडगेवार का स्वतंत्रता संघर्ष संघर्ष में सीधा योगदान था। मोहन भागवत ने बताया कि डॉ. हेडगेवार के हृदय में बहुत छोटी उम्र से ही स्वतंत्रता की ज्योति जल रही थी। उन्होंने कक्षा तीन में महारानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर दी गई मिठाई फेंक दी थी। जब शिक्षक ने उनसे पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, तो बालक हेडगेवार का जवाब था, कि जिन लोगों ने हमें गुलाम  बना रखा है उनका जन्मदिन हम क्यों मनाएं। 

स्वतंत्रता संग्राम में डॉ. हेडगेवार की भूमिका के बारे में बताते हुए मोहन भागवत ने दूसरी घटना बताई, कि कैसे उन्होंने अपनी किशोरावस्था में वंदे मातरम आंदोलन का श्रीगणेश करवाया। जिसकी वजह से अंग्रेज सरकार ने सभी स्कूल बंद करवा दिए। बाद में सभी से माफी मंगवाई गई, लेकिन किशोर हेडगेवार ने माफी मांगने से मना कर दिया और रेस्टिकेट होना पसंद किया। 

तीसरा अहम घटनाक्रम डॉ. हेडगेवार के कोलकाता प्रवास से संबंधित था, जहां वह डॉक्टरी की पढ़ाई करने के लिए गए हुए थे। वहां उन्होंने अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांतिकारियों से सशस्त्र संघर्ष में संयोजक की भूमिका निभाई। वह क्रांतिकारियों की कोर कमिटी में शामिल थे और उन्हें शस्त्र उपलब्ध कराने से लेकर, देशभर में कहीं भी आने जाने की व्यवस्था कराना उनकी जिम्मेदारियों में शामिल था। बाद में जब हथियारों से लदा जहाज पकड़ लिए जाने की वजह से सशस्त्र आंदोलन फेल हो गया तो वह भी वापस लौट आए। 

मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ. हेडगेवार को बर्मा जाने का मौका मिला। लेकिन उन्होंने देशसेवा के लिए तीन हजार रुपए सालाना(जो कि उस जमाने में बड़ी रकम हुआ करती थी) की नौकरी छोड़कर नागपुर वापस लौट आए। 
नागपुर लौटने के बाद डॉ.हेडगेवार जगह जगह भाषण देकर जनजागरण के काम में जुट गए। उनपर देशद्रोह का मुकदमा दायर किया गया। उन्होंने अदालत में अपनी पैरवी खुद की, क्योंकि उस वक्त अदालत में हर बात की रिपोर्टिंग होती थी। डॉ. हेडगेवार ने अदालत में जो भाषण दिया, उसके बारे में खुद जज की टिप्पणी थी, कि यह उनके दूसरे भाषणों से ज्यादा अंग्रेजी सरकारों के लिए घातक साबित हुआ था। जज ने उन्हें एक साल के सश्रम कारावास की सजा दी। जिसके बाद जब वह छूटे तो उनके स्वागत समारोह में शामिल होने के लिए जवाहरलाल नेहरु के पिता मोतीलाल नेहरु आए और कार्यक्रम की अध्यक्षता की। 

खुद महात्मा गांधी को जब पुणे की यरवदा जेल भेजा गया, तो उसके विरोध के लिए जो सभा तैयार हुई उसका सभापति डॉ. हेडगेवार को चुना गया। जहां डॉ. हेडगेवार ने गांधी जी के आदर्शों का पालन करते हुए विरोध करने की बात कही। 
संघ प्रमुख ने मानवेन्द्र नाथ, सुभाषचंद्र बोस, वीर सावरकर सभी से डॉ. हेडगेवार की मुलाकात और विचार विमर्श की घटनाओं का जिक्र किया। जिससे यह बात साबित होती है, कि उस समय वैचारिक कटुता निजी स्तर तक नहीं पहुंचती थी। अलग अलग विचारों के लोगों के बीच विमर्श की गुंजाइश हमेशा बनी रहती थी। जो कि आज के समय में नहीं देखी जाती है। 

उन्होंने संघ के लोगों से दूरी बनाए रखने की प्रवृति का उल्लेख करते हुए एक घटना का जिक्र किया, कि कैसे किशन सिंह राजपूत नाम के एक व्यक्ति जिसने 80 फुट की ऊंचाई पर फंसे हुए झंडे को सही करके देश का मान बढ़ाया, उनका सम्मान नहीं किया गया, क्योंकि वह संघ के स्वयंसेवक थे।   

संघ पर दूसरा आरोप लगता है अधिनायकवाद का। उसके विरोधी अक्सर कहते हैं कि संघ में नीचे के कार्यकर्ता केवल आदेश का पालन करते हैं। यह एक राजशाही व्यवस्था की तरह है। 

इस आरोप का जवाब देते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्पष्ट किया, कि संघ लोगों के कार्यों की चर्चा करता है ना कि लोगों पर। हमपर यह आरोप लगता है, कि हम लोगों को फेसलेस बना रहे हैं। लेकिन हम यह आरोप स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। उन्होंने अपना स्वयं का उदाहरण देते हुए कहा, कि मैं संघ प्रमुख के पद पर पहुंच गया हूं, रोज खबरों के केन्द्र में बना रहता हूं, लेकिन यह मेरी प्रसन्नता का कारण नहीं है। यह मेरे लिए उलझनें ही पैदा करता है। मै चाहता हूं कि समाज के संघ के योगदान पर चर्चा हो ना कि उसे करने वाले व्यक्तियों पर। 

संघ के विरोधी यह प्रचार करने में अक्सर मशगूल रहते हैं, कि संघ पुरातनपंथी संगठन है और वह रुढ़िवादी विचारों को पोषण करता है।  

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने इसका पूरी तरह खंडन किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण ही भेदमुक्त, शोषणमुक्त और समतायुक्त समाज की स्थापना के लिए हुआ है। इसके लिए संघ व्यक्ति निर्माण का कार्य करता है। क्योंकि भारत में आदर्श प्रतिमान तो बहुत हैं। हर रोज नए नए देवी देवताओं का अविर्भाव होता है, उन्होंने साईं बाबा का उदाहरण दिया। लेकिन समाज पर उन लोगों के चरित्र का ज्यादा असर दिखाई देता है, जिन्हें हम अपने बीच देखते  हैं। इसलिए संघ हर गली मुहल्ले में अच्छे आचरण वाले स्वयंसेवक खड़े करना चाहता है। जिनका आचरण अनुकरणीय हो। हर गली मुहल्ले में ऐसे सात्विक आचरण वाले लोग खड़े हों। यही संघ की योजना है। हमारा उद्देश्य संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित करना है। क्योंकि समाज का परिवर्तन होने से सभी व्यवस्थाएं बदलती हैं। समाज का आचरण व्यक्ति निर्माण से बदलता है। इसलिए आरएसएस व्यक्ति निर्माण के कार्य में जुटा रहता है। 

संघ प्रमुख ने आगे कहा, कि विदेशियों ने हमारी विभिनन्नताओं का लाभ उठाया। लेकिन यदि हमें जोड़ने वाला सूत्र मौजूद हो, तो विविधताएं भी ताकत बन जाती हैं। विविधताओं से डरने की जरुरत नहीं। अपनी अपनी विविधता पर दृढ़ रहकर भी साथ मिलकर काम किया जा सकता है। इसके लिए हमें त्यागपूर्वक जीने की आदत डालनी होगी। निस्वार्थ बुद्धि से देश की सेवा होनी चाहिए। इसमें निजता का भाव नहीं होना चाहिए।

अपने अभिभाषण कि शुरुआत करते हुए ही मोहन भागवत ने कहा था, कि आज संघ एक शक्ति बन चुका है और जब शक्ति संग्रह हो जाती है तो शक्ति केन्द्र पर चर्चा होनी स्वाभाविक है। इसलिए आज संघ चर्चा का विषय बना हुआ है। 

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