सिर्फ सुरक्षा वापसी नहीं कश्मीरी अलगाववादियों के खिलाफ और भी सख्त कदम उठाना जरुरी

By Avdhesh Kumar  |  First Published Feb 20, 2019, 7:14 PM IST

सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा  वापस लिए जाने के निर्णय का जिस तरह देश भर में स्वागत हुआ उससे समझा जा सकता है कि इनको लेकर लोगों की भावनाएं कैसी हैं। 

जम्मू कश्मीर प्रशासन का बयान है कि जिनकी सुरक्षा हटाई गई है उसके अलावा भी अगर किसी अलगाववादी को किसी तरह की पुलिस सुरक्षा है तो पता लगने के बाद उन्हें भी वापस किया जाएगा।

साथ ही अगर उन्हें सरकार के द्वारा कोई दूसरी सुविधाएं मिल रही हैं तो वह भी तत्काल हटा ली जाएंगी। साफ है कि इस इस आदेश के बाद अलगाववादी मौलवी मीरवाइज उमर फारूक, अब्दुल गनी भट, बिलाल लोन, हाशिम कुरैशी और शब्बीर शाह की सुरक्षा और सरकारी वाहनों की सुविधायें खत्म हो गई हैं। 

हालांकि आदेश में पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी तहरीए-ए-हुर्रियत के नेता सैयद अली शाह गिलानी और यासीन मलिक का नाम नहीं होने को लेकर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। यासीन मलिक को  सरकारी सुरक्षा प्राप्त नहीं है तथा गिलानी अभी अपने घर में नजरबंद हैं। वैसे भी प्रशासन के बयान को देखें तो किसी और अलगावादी को सरकारी सुरक्षा या सुविधाएं हासिल है, तो राज्य पुलिस मुख्यालय इसकी समीक्षा करेगा और इसे तुरंत वापस ले लिया जाएगा। 

इनकी सुरक्षा हटाने का संकेत उसी समय मिल गया था जब 14 फरबरी को 40 सीआरपीएफ जवानों के शहीद होने के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह जम्मू कश्मीर गए थे। उन्होंने श्रीनगर में कहा था कि पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई से पैसा लेने वाले लोगों को मिली सुरक्षा की समीक्षा होनी चाहिए। उनके शब्द थे- ‘जम्मू-कश्मीर में कुछ लोगों के आईएसआई और आतंकी संगठनों से रिश्ते हैं। उन्हें मिली सुरक्षा की समीक्षा होनी चाहिए।’ 

सच कहा जाए तो पूरे देश से यह मांग लंबे समय से थी कि जो नेता भारत को तोड़ने के लिए अभियान चलाते हैं, अपने को भारत का नागरिक तक नहीं कहते, कुछ विवादास्पद क्षेत्र का नागरिक कहते हैं तो कुछ स्वयं को पाकिस्तानी...उनको भारत की ओर से मिलने वाली हर तरह की सुरक्षा और सुविधा समाप्त करनी चाहिए। 

नरेन्द्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद से ही उम्मीद थी कि इस दिशा में कदम उठाया जाएगा। किंतु ऐसा हुआ ही नहीं। इन जवानों की शहादत के बाद जिस तरह का गुस्सा देश में है उसको देखते हुए यह कदम लाजिमी हो गया था। यह समय ऐसा है जब इसका सार्वजनिक विरोध करना उनके लिए भी आसान नहीं होगा जो हुर्रियत नेताओं के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इनमें जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला भी शामिल हैं। 

सरकार द्वारा आयोजित सर्वदलीय बैठक में फारुख अब्दुल्ला भी थे। निश्चय ही उस दौरान सरकार ने इस कदम की भी जानकारी दी होगी। हालांकि कांग्रेस के नेता एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज इस कदम के खिलाफ आ ही गए। उन्होंने कहा है कि इनकी सुरक्षा हटाने की नकारात्मक प्रतिक्रिया होगी। सोज ने तो उन्हें प्रमाण पत्र भी दे दिया कि हुर्रियत के नेताओं ने कभी हिंसा का पक्ष नहीं लिया। पूरा देश जानता है कि हुर्रियत नेता खुलकर आतंकवादियों के पक्ष में बयान नहीं देते, पर किसी आतंकवादी हिंसा की निंदा करते हुए उन्हें नहीं सुना गया। उल्टे वे सुरक्षा बलों को खलनायक साबित करते हैं। वे आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई का हमेशा विरोध करते हैं। मारे गए आतंकवादियों के जनाजे में वे शामिल होते हैं और भारत विरोधी नारे लगवाते हैं। इन्होंने कभी पत्थरबाजों की आलोचना नहीं की लेकन सुरक्षा बल जब इनके विरुद्ध पैलेट गन या पावा शेल या आंसूगैस का इस्तेमाल करते हैं तब ये जरुर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। 

मौलवी उमर फारुख तो मस्जिदों से हर शुक्रवार को भारत के खिलाफ आग उगलते हैं। अगर सैफुद्दीन सोज को इसमें हिंसा का समर्थन नहीं दिखता तो साफ है कि उनको अपनी नजर का चश्मा बदल लेना चाहिए। कांग्रेस को उनसे पूछना चाहिए कि आखिर हुर्रियत के प्रति उनके प्रेम का कारण क्या है? वैसे भी एनआईए द्वारा आतंकवाद को वित्त पोषण करने के आरोप में हुर्रियत नेताओं के गिरफ्तार होने के बाद इस तरह का बयान आपत्तिजनक है। 

हालांकि सुरक्षा हटाने के फैसले के बाद मीरवाइज उमर फारूक के नेतृत्व वाले हुर्रियत कांफ्रेस ने कहा है कि सरकार ने खुद ही उन सबको सुरक्षा मुहैया कराने का फैसला किया था, जिसकी कभी मांग नहीं की गई। उमर फारूक और प्रो अब्दुल गनी बट तो आरोप लगा रहे हैं कि इस सुरक्षा को भारतीय एजेंसियां कश्मीर की आजादी पसंद तंजीमों और उनके नेताओं को बदनाम करने के लिए ही इस्तेमाल करती रहीं हैं। इसके जरिए हमारी गतिविधियों की निगरानी की जाती थी। तो अच्छा हो गया है, अब हम आजादी से चल फिर सकेंगे। 

बयान में तो यहां तक कहा गया है कि मीरवाइज उमर फारूक ने कई बार कहा कि वह चाहते हैं कि सुरक्षा वापस ले ली जाए। अब्दुल गनी बट ने कहा कि उन्हें राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं है। मेरी सुरक्षा कश्मीरी हैं। बहुत अच्छा। आपकी चाहत सरकार ने पूरी कर दी है। अब रहिए शांति से। 

लेकिन कुरैशी ने इसके विपरीत बयान दिया है। उसने सुरक्षा हटाए जाने को गलत कहा है। कुरैशी का कहना है कि सुरक्षा हटाने के बाद आईएसआई उनको निशाना बनाएगी क्योंकि मैं कश्मीर की आजादी की बात करता हूं उसे पाकिस्तान में मिलाने का नहीं। 

कुरैशी का बयान यह साबित करता है कि फारुख या बट जो बोल रहे हैं वह सच नहीं है। इस कदम से हुर्रियत नेता परेशान है, उनकी चिंता बढ़ी है। यह स्वाभाविक भी है। मीरवायज का ही उदाहरण लीजिए। उनकी सुरक्षा को वर्ष 2015 में जेड प्लस कर दिया गया था। इसके तहत उन्हें सीआरपीएफ व राज्य पुलिस के सुरक्षाकर्मी प्रदान किए गए। उन्हें बुलेट प्रूफ वाहन भी दिया गया। लेकिन वर्ष 2017 में जामिया मस्जिद में ईद से चंद दिन पहले एक डीएसपी को जब भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला तो उनकी सुरक्षा में कटौती कर दी गई। 

मीरवाईज के साथ एक डीएसपी के नेतृत्व में सुरक्षा दस्ता तैनात रहता था। डीएसपी को हहटाकर सुरक्षा की कमान एक इंस्पेक्टर रैंक के अधिकारी को दी गई। इसी तरह अन्यों को भी अलग-अलग श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त थी।  

यह प्रश्न लंबे समय से उठ रहा था कि आखिर जनता का धन इन भारत विरोधियों पर क्यों खर्च किया जाना चाहिए? इनकी सुरक्षा पर होने वाले खर्च के अलग-अलग आंकड़े आए हैं और इसका बड़ा कारण यह है कि राज्य सरकारें हर वर्ष इसका ऐसा आंकड़ा बनाती थी ताकि ऐसा लगे कि काफी बड़ी राशि इन पर खर्च हो रही है। 

पहले एक आंकड़ा यह आया कि बीते एक दशक में सरकारी खजाने से अलगाववादियों की सुरक्षा पर करीब 15 करोड़ खर्च हुए हैं। इसमें सुरक्षाकर्मियों के वेतन से लेकर उनको मिलने वाले वाहन तथा एस्कॉर्ट आदि को मिलाकर है। 

किंतु पिछले वर्ष फरवरी में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पेश रिपोर्ट के अनुसार अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा पर 10.88 करोड़ रुपए सलाना खर्च किए गए। यह राज्य में कई तरह की वीवीआईपी सुरक्षा पर खर्च होने वाले बजट का करीब 10 प्रतिशत है। 

जैसा उपर बताया गया मीरवाइज उमर फारुख की सुरक्षा सबसे उच्चस्तरीय रही है। उमर की सुरक्षा पर एक दशक में 6 करोड़ से ज्यादा खर्च की जानकारी सरकार ने दीं। इसमें से 1.27 करोड़ उनके साथ चलने वाले पुलिस एस्कार्ट पर हुए हैं जबिक उनके घर पर तैनात सुरक्षाकर्मियों पर 5.06 करोड़ रुपये खर्च हुए। प्रो अब्दुल गनी बट की सुरक्षा पर एक दशक में 2.34 करोड़, बिलाल गनी लोन पर इस 1.65 करोड़ और हाशिम कुरेशी की सुरक्षा पर भी करीब डेढ़ करोड़ खर्च किए गए। कोई भी समझ सकता है ये आंकड़े सच नहीं हो सकते। 

वैसे अन्य अलगाववादियों या उनसे जुड़े कई लोगों को सुरक्षा प्राप्त है। इनमें सज्जाद लोन तो अब राजनीति की मुख्यधारा में आ चुके हैं और पूर्व सरकार में मंत्री भी रहे हैं। इसलिए उनको इस श्रेणी का नहीं मान जा सकता। किंतु उनकी बहन शबनम लोन, आगा हसन, मौलाना अब्बास अंसारी आदि की सुरक्षा की भी समीक्षा होनी चाहिए। 

राज्य में 25 लोगों को जेड प्लस तथा करीब 1200 लोगों के पास अलग-अलग श्रेणी की सुरक्षा है। इन सबकी गहन समीक्षा की जाएगी तो कई अलगाववादी की श्रेणी में आ जाएंगे। ऐसा न हो कि सुरक्षा वापसी का कदम यही तक सीमित रह जाए। इसके अलावा सरकार इनके महंगे इलाज से लेकर बाहर जाने पर होटलों में ठहरने का तक व्यय वहन करती रहीं हैं। जब ये दिल्ली आते हैं तो नामी महंगे होटलों में ठहरते हैं। यहां तक कि कश्मीर के कई होटलों में इनके लिए स्थायी रुप से कमरा बुक रहता है। पता नहीं इतनी सुविधा इनको क्यों मिली हुईं थीं? 

वास्तव में हुर्रियत नेता जिस तरह भारत में भारत विरोधी गतिविधियां चलाते हुए सुख-वैभव और सारी सुविधाओं के साथ निश्ंिचत रहते हैं वह हर भारतवासी की छाती में शूल की तरह चुभता है। सात लोग तो इनके बड़े चेहरे हैं। पाकिस्तान से हवाला के जरिए आतंक को बढ़ावा देने के लिए धन लेने का प्रमाण मिलने के बाद एनआईए ने मामला दर्ज कर दस को गिरफ्तार भी किया।

 यह बात अलग है कि इनमें शब्बीर शाह को छोड़कर कोई बहुत बड़ा नाम नहीं है। इनकी स्थिति तो ऐसी बना दी जानी चाहिए थी कि ये भारत विरोध का शब्द मुंह से निकालने के पहले सौ बार सोचते। वास्तव में सुरक्षा कवच हटाना सही है , पर यह मात्र एक कदम है। उनके खिलाफ बहुस्तरीय जांच हो जिनमें उनकी गतिविधियों से लेकर संपत्तियां भी शामिल हों। क्या पाकिस्तान से आने वाली राशि का उपयोग केवल वे लोग ही करते थे जिन्हें एनआईए ने गिरफ्तार किया? उनमें से एक ने तो बाजाब्ता गिलानी का नाम लिया। 

आखिर ये अलगावादी इतने शान ओ शौकत में रहते कैसे हैं? इनकी आय के साधन क्या है? ये महंगी गाड़ियों में घूमते हैं, पंचतारा होटलों में ठहरते हैं, उच्चस्तरीय अस्पतालों में इलाज करवाते हैं। इनके पास अकूत संपत्ति है जिनमें स्कूल, होटल, मकान-प्लॉट सब कुछ है। सरकार के पास इनकी बेनामी संपत्तियों की पूरी जानकारी न सही कुछ तो है ही। अलगाववाद जमीनों में ज्यादा निवेश करते है। ये अपने रिश्तेदारों के नाम से ये प्रॉपर्टी खरीदते हैं। कई इन पर होटल या घर का पक्का निर्माण नहीं करवाते। इनमें सेब और अखरोट जैसे फलों की खेती करवाते हैं। 

यासीन मलिक 1990 के आसपास रेहड़ी चलाकर गुजारा चलाता था। आज वह श्रीनगर के सबसे महंगे बाजार लालचौक इलाके की दो तिहाई से भी ज्यादा संपत्ति का मालिक है। इसकी कीमत 150 करोड़ से ज्यादा है। यहां रेजीडेंसी होटल भी इसी का है। इसकी कीमत 20 से 40 करोड़ रुपए तक है। 

शब्बीर शाह का पहलगाम में होटल है, जिसकी कीमत तीन से पांच करोड़ के आसपास है। एनआईए ने डोजियर में हर अलगाववादी नेता की उन नामी-बेनामी संपत्तियों का विवरण दिया है जो इसकी पकड़ में आए। इसके अनुसार शब्बीर शाह के पास करीब 19 प्रॉपर्टीज हैं। इनमें होटल, प्लॉट, दुकानें आदि शामिल हैं।

 दूसरा नंबर सैयद अली शाह गिलानी का है। इसकी अधिकांश संपत्ति इसके दो बेटों के नाम है। इसमें प्लॉट, स्कूल, मकान आदि हैं। बड़े 20 अलगाववादी नेताओं के पास करीब 200 प्रॉपर्टी बेनामी भी हैं। इनकी जीवन शैली देखिए। 

सैयद अली शाह गिलानी के घर पर आधा दर्जन से ज्यादा नौकर हैं। मीरवाइज की जिन्दगी एकदम शानो शौकत वाली है। उसके पास कर्मचारियों की संख्या काफी ज्यादा है जो टेक्नोलॉजी फ्रेंडली है। सोशल मीडिया पर इनके कर्मचारी काफी सक्रिय रहते हैं। आलीशान घर हैं। घर के चारों ओर सीसीटीवी लगे हैं। घर की बाहरी बाउंड्री की ऊंचाई करीब 15 फीट है। इसके घर में जो फर्नीचर है वो अखरोट की लकड़ी से बने है। पूरे घर में वुडन फर्श है। हर कमरे की छत पर कश्मीरी नक्काशी है। 

साफ है कि अलगाववादियों की भारत विरोधी गतिविधयों पर आघात करना है तो सबकी संपत्तियों की एक बार जांच कराकर बेनामी संपत्ति कानून के तहत इनको जब्त किया जाए, आय से अधिक संपत्ति का मुकदमा दर्ज हो और धनशोधन का मामला तो अपने आप बन ही जाता है। 


अवधेश कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं। 

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