एयरोस्पेस सेक्टर में दिए गए 10 बिलियन डॉलर के ऑफसेट अनुबंधों में से सरकारी कंपनी को महज पांच प्रतिशत का ही बिजनेस मिला।
भले ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी फ्रांस के साथ हुए राफेल विमान सौदे में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को पार्टनर बनाए जाने की बात कह रहे हों लेकिन डाटा दर्शाता है कि विदेशी कंपनियों ने अपने औद्योगिक साझेदार चुनने में एचएएल पर निजी कंपनियों को तरजीह दी। एयरोस्पेस सेक्टर में दिए गए 10 बिलियन डॉलर के ऑफसेट अनुबंधों में से सरकारी कंपनी को महज पांच प्रतिशत का ही बिजनेस मिला।
कुछ दिन पहले एचएएल के कर्मचारियों के साथ बेंगलुरू में हुई बैठक के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि फ्रांस की एयरोस्पेस कंपनी दसॉल्ट एविएशन ने ऑफसेट अनुबंध करते समय अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को सरकारी क्षेत्र की कंपनी की अनदेखी करते हुए वरीयता दी।
सरकार के वरिष्ठ सूत्रों ने 'माय नेशन' को बताया, 'भारत की ओर से पूर्व में जितने मूल्य के ऑफसेट करार हासिल किए गए वे 12 बिलियन डॉलर से कम हैं। इसमें से सबसे ज्यादा एविएशन सेक्टर में अकेले वायुसेना की ओर से दिए गए। यह राशि 10 बिलियन डॉलर (84%) के करीब है। इसमें से एचएएल को महज 427 मिलियन डॉलर के अनुबंध मिले। यह कुल राशि का 5% से भी कम है।'
उपरोक्त डाटा साफ दर्शाता है कि विदेशी विक्रेताओं से ऑफसेट अनुबंध हासिल करने के मामले में सरकारी क्षेत्र की कंपनी एचएएल निजी कंपनियों की तुलना में काफी पीछे है। सैन्य साजोसामान बनाने वाली निजी क्षेत्र की कंपनियों में टाटा, लार्सल एंड टुब्रो, सैमटेल के साथ-साथ कई छोटी और मध्यम इंटरप्राइजेज शामिल हैं।
सूत्रों के अनुसार, ऑफसेट बाध्यता के तहत अपने लिए साझेदार तलाशने का विकल्प राफेल की मूल निर्माता कंपनी को दिया गया था। यह व्यवस्था तभी से थी जब 2013 में यूपीए सरकार के दौरान एके एंटनी रक्षा मंत्री थे। कंपनी को प्रक्रिया पूरी करने के बाद सिर्फ सरकार को सूचित भर करना होता था।
राफेल सौदे को लेकर कांग्रेस का आरोप है कि इस सौदे में 60,000 करोड़ रुपये का गड़बड़झाला हुआ है। यह सौदा फ्रांस से 36 राफेल विमानों की खरीद से जुड़ा है। हालांकि भाजपा और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार दोनों ने ही इन आरोपों को खारिज कर दिया है।