1984 फैसलाः पीड़ित बोले, उड़ने वाली है सज्जन कुमार, टाइटलर की नींद

By Team MyNation  |  First Published Nov 21, 2018, 3:58 PM IST

11 परिजनों को गंवाने वाली गंगा कौर बोलीं, अब हम मगरमच्छ के फंसने का इंतजार कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि यह इसी सरकार के शासन में मुमकिन है।

दिल्ली की एक अदालत द्वारा 1984 के सिख विरोधी दंगे मामले में यशपाल सिंह को सुनाई गई फांसी की सजा तिलक नगर की विधवा कॉलोनी के निवासियों के लिए 'उम्मीद की किरण' बनकर आई है। इन लोगों को अब सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं  बड़े नामों को सजा मिलने का इंतजार है। 

दिल्ली के महिपालपुर इलाके में सिख विरोधी दंगों के दौरान दो लोगों की हत्या के दोषी यशपाल को एक स्थानीय अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी। इस मामले में यह पहली मौत की सजा है। मामले में दोषी करार दिए गए नरेश सहरावत को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। 

दंगे में पिता समेत अपने परिवार के 11 लोगों को गंवाने वाली गंगा कौर ने कहा, 'हम इस फैसले से निश्चित तौर पर खुश हैं। हां यह और अच्छा होता, अगर दूसरे व्यक्ति को भी फांसी की सजा मिलती। लेकिन फिर भी हम पूरे दिल से अदालत के फैसले का स्वागत करते हैं।'

इसी सरकार के शासन में 'फंसेंगे मगरमच्छ'

गंगा कौर ने कहा, 'वैसे भी यह सब छोटी मछलियां है। अब हम मगरमच्छ के फंसने का इंतजार कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि यह इसी सरकार के शासन में मुमकिन है।' 

उधर दंगों के दौरान मारे गए एक युवक हरदेव सिंह के भाई संतोख सिंह ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा, ‘पिछले 34 साल में ऐसा भी समय आया जब मैं खुद को खत्म करना चाहता था, लेकिन अदालत के फैसले के बाद उस पर मेरा विश्वास बहाल हुआ है।’ 

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अजय पांडे ने मंगलवार को 1984 के दंगों के एक मामले में एक दोषी यशपाल सिंह को मौत की सजा और एक अन्य दोषी नरेश सहरावत को अपराध के लिए उम्रकैद की सजा सुनाई है।

यह फैसला एक ‘तोहफा’

संतोख सिंह की ओर से दायर याचिका के बाद गृह मंत्रालय द्वारा दिए आदेश पर वर्ष 2015 में मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया गया था। संतोख सिंह ने इस फैसले को एक ‘तोहफा’ बताया। उन्होंने कहा, ‘फैसला कोर्ट की ओर से हमारे परिवार को एक तोहफा है, जिसने  इतने वर्षों में बहुत कुछ झेला है। मैं जांच अधिकारी, एसआईटी के निरीक्षक जगदीश कुमार का मामले को तीन वर्षों में तार्किक अंत तक ले जाने के लिए शुक्रिया अदा करना चाहता हूं।’ 

यह मामला न्यायमूर्ति जे डी जैन और डी के अग्रवाल की समिति की सिफारिश पर 1993 में वसंत कुंज पुलिस थाने में दर्ज किया गया था। इस सिफारिश का आधार संतोख सिंह का 9 सितंबर 1985 को न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग के समक्ष दाखिल हलफनामा था। दिल्ली पुलिस के दंगा रोधी प्रकोष्ठ ने जांच की। लेकिन उसे किसी भी आरोपी के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सबूत नहीं मिल पाए। 

दिल्ली पुलिस ने साक्ष्य के अभाव में इस मामले को 1994 में बंद कर दिया था। एसआईटी दंगों से जुड़े करीब 60 मामलों की जांच कर रही है। अदालत ने दोनों अभियुक्तों पर 35-35 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया और यह राशि पीड़ितों हरदेव सिंह और अवतार सिंह के परिवारों के सदस्यों को मुआवजे के तौर पर दिए जाने का निर्देश दिया।

एसआईटी के गठन के बाद पहली बार मौत की सजा सुनायी गयी है। इससे पहले किशोरी नामक एक व्यक्ति को सिख दंगों के सात मामलों में सुनवाई अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने केवल तीन मामलों में मौत की सजा की पुष्टि की जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उम्रकैद में बदल दिया।

सुरक्षा कारणों से कार्यवाही तिहाड़ जेल के अंदर हुई। सुनवाई के आखिरी दिन 15 नवंबर को पटियाला हाउस जिला अदालत परिसर में यशपाल पर हमला किया गया था। अदालत ने मौत की सजा की पुष्टि के लिए मामले की मूल फाइल दिल्ली उच्च न्यायालय में जमा कराने का निर्देश दिया।

संतोख सिंह को हालांकि शिकायत है कि इतने साल में किसी भी राजनीतिक दल ने उनकी मदद नहीं की। यहां तक की घटना के बाद करीब 12 साल तो उनके परिवार ने घोर आर्थिक तंगी में गुजारे। उन दिनों परिवार की मदद करने के लिए उन्होंने दिल्ली सिख गुरूद्वारा प्रबंधन समिति का आभार व्यक्त किया।

उन्होंने कहा कि 1984 में अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में उन्होंने अपने भाई के साथ दीपावली मनाई थी। एक नवंबर 1984 में उनके भाई को निर्ममतापूर्वक मार डाला गया।

संतोख ने बताया ‘मेरे भाई पर लोहे की छड़ों, चाकू से हमला किया गया और जब उसने हमलावरों से बचने के लिए पहली मंजिल पर छिपना चाहा तो लोगों ने उसे वहां से पकड़ कर नीचे फेंक दिया। हमलावरों ने पहले भाई की दुकान लूट कर जला दी फिर भाई पर हमला किया गया।’ 

उन्होंने बताया ‘छावनी इलाके में मेरे ढाई साल के बेटे को जला दिया गया। एक डॉक्टर ने समय पर उसे नहीं बचाया होता तो हम उसे लगभग खो चुके थे। आज भी वह सब याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।’

एक नवंबर 1984 को हरदेव सिंह, कुलदीप सिंह और संगत सिंह तीनों महिपालपुर में अपनी किराने की दुकान पर थे जिसे करीब 800 से 1000 लोगों की हिंसक भीड़ ने निशाना बनाया। हरदेव, कुलदीप, संगत ने दुकान बंद की और पहली मंजिल पर अपने किरायेदार सुरजीत सिंह के घर छिपने के लिए भागे। कुछ ही देर में भाग कर अपनी जान बचाते हुए अवतार सिंह भी वहां आ गया। इन लोगों ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया।

उनकी दुकान जलाकर भीड़ सुरजीत के घर आई और दरवाजा तोड़ कर हमला कर दिया। हरदेव और संगत को छुरा मारा गया। फिर सभी को बालकनी से नीचे फेंक दिया गया। आरोपियों ने कमरे में केरोसिन डाल कर आग लगा दी। घायलों को सफदरजंग अस्पताल ले जाया गया जहां अवतार और हरदेव की मौत हो गई। शेष गंभीर रूप से घायल हुए थे जिनका लंबे समय तक इलाज चला।
 

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