अब तक मारे 200 से ज्यादा आतंकी। पांच साल में सबसे ज्यादा है संख्या। एक महीने से ज्यादा समय तक बंद भी रहा था सैन्य अभियान।
अर्जुन सिंह और अजीत दुबे की रिपोर्ट
जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ सेना के ऑपरेशन ऑलआउट के चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। सेना ने 2018 में दहशतगर्दों के सफाए की डबल सेंचुरी पूरी कर ली है। साल खत्म होने में अभी डेढ़ महीने का समय बाकी है और सुरक्षा बल जिस ताबड़तोड़ तरीके से ऑपरेशन को अंजाम दे रहे हैं, उससे साल के अंत तक यह आंकड़ा 250 के पास पहुंचने की संभावना है।
वर्ष 2017 में सुरक्षा बलों ने कुल 213 आतंकियों का सफाया किया था। वहीं 2016 में यह संख्या 150 थी। 2015 में 105 और 2014 में 110 थी। सुरक्षा बल बेहतरीन तालमेल के साथ बिना रुके कश्मीर में आतंकवाद का खात्मा करने में जुटे हैं। 2017 में शुरू हुआ ताबड़तोड़ एनकाउंटर का सिलसिला इस साल मुंहतोड़ जवाब देने वाले तंत्र के रूप में उभरकर सामने आया है। सेना दोतरफा रणनीति अपना रही है। पहली विदेशी आतंकियों से निपटने की है, वहीं दूसरी रणनीति स्थानीय आतंकियों के लिए बनाई गई है।
इस साल सरकार और सुरक्षा बलों ने मानवीय पहलू भी दिखाया। सुरक्षा बलों की तरफ से रमजान के पवित्र महीने में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद रोधी अभियानों को रोक दिया गया। अमरनाथ यात्रा के लिए भी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए। स्थानीय आतंकियों को किसी भी समय अपने परिवार के पास लौटने के लिए खुलकर ऑफर दिए गए। एक महीने से ज्यादा समय तक अभियान रोकने के बावजूद यह आंकड़ा 200 के पार पहुंचना बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है।
सेना को मिली बड़ी सफलताओं में मार्च 2018 में अबू मतीन और अबू हमास का खात्मा शामिल है। इसके बाद सुरक्षा बलों ने पहली अप्रैल 2018 को शोपियां में समीर अहमद भट उर्फ समीर टाइगर को भी मार गिराया। इसके बाद मई, जून और जुलाई के महीने में समीर पड्डार, अबु कासिम और अबु माविया का खात्मा भी कर दिया गया। अक्टूबर के महीने में सेना ने 27 आतंकियों को मार गिराने में सफलता पाई। इसमें मन्नान वानी, मेहराजुदीन बांगरू और सब्जार अहमद सोफी शामिल हैं।
एक नजर उस रणनीति पर जिसकी मदद से सुरक्षा बलों ने इस साल इतनी बड़ी संख्या में आतंकियों का खात्मा किया। दरअसल, कश्मीरियों को अलगाव की राह पर ले जाने के पीछे पाकिस्तान है। उसके डीप स्टेट (गुप्त कारिदों) को कश्मीरियों में से कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो उनका एजेंडा चलाने में काम आते हैं। दुख की बात यह है कि सिविल सोसायटी और मुख्यधारा की पार्टियां दोनों ही भारत सरकार पर पाकिस्तान के साथ बातचीत करने का दबाव बनाते हैं, जबकि ये लोग खुद हालात सुधारने के लिए कश्मीर के लोगों खासकर युवाओं को लेकर कुछ नहीं करते। सैन्य मामलों के जानकार भी मानते हैं कि पाकिस्तान के दबाव में कश्मीर में हिंसा को बढ़ावा देकर भारत को वार्ता के लिए बाध्य करना किसी भी तरह से उचित विकल्प नहीं है। ऐसे में यह फैसला कश्मीर की जनता पर है कि वह किस तरफ रहना चाहती है। वह अपना भला चाहती है या पाकिस्तानी आतंकियों की ढाल बनकर खड़ा होना चाहती है।
नोट - कश्मीर घाटी के केरन सेक्टर में मारे गए दो आतंकियों की संख्या शामिल नहीं।