इस्लामी आतंकवाद के विरूद्ध श्वेत ईसाइयत आतंकवाद का खतरनाक विचार

By Avdhesh Kumar  |  First Published Mar 22, 2019, 1:53 PM IST

न्यूजीलैण्ड जैसी घटनाओं का विस्तार हो गया तो दुनिया का बड़ा भाग हिंसा-प्रतिहिंसा का शिकार हो जाएगा। हाल के वर्षों में जेहादी आतंकवादियों द्वारा ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, स्वीडन में किए गए हमलों ने उसके अंदर यह विचार पैदा किया कि मुसलमान श्वेतों पर विजय पाने के लक्ष्य से हिंसा कर रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि कटु सच को सार्वजनिक रुप से स्वीकार कर कार्रवाई न करने के कारण एक नए किस्म का क्रूसेड(धर्मयुद्ध) आरंभ हो जाए।

न्यूजीलैंड में आतंकवादी हमले पर सच बोलने से दुनिया फिर कतरा रही है। पूरे पश्चिम एवं अरब में अखबारों से लेकर वेबसाइट के पन्ने भरे जा रहे हैं, संसदों में शोक प्रस्ताव पारित हो रहे हैं, पर साफ दिखाई दे रहा है कि सच को छिपाया जा रहा है। 

निस्संदेह न्यूजीलैण्ड में मस्जिद पर हमले से दुनिया फिर एक बार सकते में है। ऐसा देश, जहां हिंसा की घटना वर्षों से अपवाद रही हो,  वहां अचानक किसी मजहबी स्थल पर खून की होली खेली जाए  सरकार , पुलिस और आम नागरिक की क्या मानसिक दशा होगी इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। 

भारतीयों के लिए यह निजी तौर पर भी दुख की घटना बना क्योंकि हमारे सात नागरिकों के मारे जाने की पुष्टि हो गई। दक्षिण प्रशांत का यह छोटा देश अपने उदारवादी और खुले विचार-व्यवहार के कारण जाना जाता है। 

ग्लोबल पीस इंडेक्स यानी वैश्विक शांति सूचकांक में न्यूजीलैंड 2017 एवं 2018 में दुनिया का दूसरा सबसे शांत देश माना गया। पहले भी उसका स्थान दुनिया के सबसे शांत 4 देशों में रहा है। 2007 से 2016 के बीच यहां हत्याओं के मामले दहाई अंक में भी नहीं थे। हां, 2017 में यहां हत्या के 35 मामले सामने आए और यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना। ऐसे देश में कुछ ही मिनटों के अंदर 49 लोगों को दिनदहाड़े भून दिया गया वह भी एक विशेष मजहब को निशाना बनाकर तो यह निश्चित रुप से अत्यंत गंभीर घटना होगी। 

पहला हमला क्राइस्टचर्च के अल नूर मस्जिद में हुआ जबकि दूसरा हमला इसके उपनगरीय इलाके लिनवुड में। इस हमले को सामान्य हत्याओं या हिंसा की श्रेणी में मानना बिल्कुल गलत होगा। हमलावरों ने मस्जिद में जुमे की नमाज का समय चुना ताकि वे नमाज के लिए एकत्रित हुए मुसलमानों को अधिक से अधिक संख्या में मार सकें। हालांकि पश्चिमी देशों के ज्यादातर समाचार पत्रों ने हमलावर के लिए आतंकवादी शब्द का प्रयोग नहीं किया, पर यह हर दृष्टि से आतंकवादी घटना है। 

न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने अपने संबोधन में साफ कहा कि इसे आतंकवादी हमला के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। संसद में बयान देते हुए भी उन्होंने यही कहा।

दुनिया भर में हो रहे आतंकवादी हमलों की प्रवृत्ति के बीच इस हमले के पीछे का विचार इतना खतरनाक है कि अगर इसका विस्तार हो गया तो दुनिया का बड़ा भाग हिंसा-प्रतिहिंसा का शिकार हो जाएगा। इसकी सतही व्याख्या करने वाले न्यूजीलैंड में  नवंबर 1990 में ड्यूनडीन शहर की अरामोआना टाउनशिप में हुई गोलीबारी से तुलना कर रहे हैं जिनमें 13 लोगों की मौत हो गई थी। इस हमले को डेविड ग्रे नाम के एक सिरफिरे ने अंजाम दिया था, जिसे मुठभेड़ में मार दिया गया। दोनों हमलों में किसी तरह का साम्य है ही नहीं। 

न्यूजीलैंड में 1990 के हमले के दो साल बाद बंदूक रखने के नियमों को कड़ा कर दिया गया। लेकिन वहां बंदूक रखने की संस्कृति बढ़ी है। स्मॉल आर्म सर्वे के अुनसार न्यूजीलैंड में 12 लाख लोगों के पास बंदूकें हैं। यानी यहां हर चौथे इंसान के पास अपनी बंदूक है। यहां अभी 16 साल से ऊपर का कोई भी व्यक्ति अपनी बंदूक रखने का लाइसेंस ले सकता है। 

विडम्बना देखिए कि यहां लोगों के पास बंदूकें हैं लेकिन ज्यादातर पुलिसकर्मी हथियार नहीं रखते। कमांडोज को छोड़ दें तो न्यूजीलैंड में ज्यादातर पुलिस अफसरों के पास हथियार नहीं होते। 2017 में न्यूजीलैंड में एक सर्वेक्षण में 66 प्रतिशत पुलिसकर्मियों ने कहा था कि बढ़ते गन कल्चर के मद्देनजर उन्हें भी हथियार रखने चाहिए, जबकि 2008 में इसी तरह के सर्वे में सिर्फ 48 प्रतिशत पुलिसकर्मी हथियार साथ लेकर चलने के पक्ष में थे। 

तो यह कह सकते हैं कि हथियार की उपलब्धता एवं पुलिस के पास हथियार न होना भी हमले के लिए एक प्रेरणा हो सकती है। किंतु मूल बात हिंसा का विचार है। अभी कई कारणों से न्यूजीलैंड हमले का स्थल बना तो आगे कोई दूसरा स्थान हो सकता है। 


इसे व्हाइट सुप्रीमेसी यानी श्वेत लोग सबसे उच्च है और उनका ही वर्चस्व होना चाहिए जैसी सोच की परिणति मानना भी पूरी तरह सही नहीं है। यह सही है कि पश्चिमी और यूरोपीय देशों में व्हाइट सुप्रीमेसी की मानसिकता है। हमलावर ने भी व्हाइट सुप्रीमैटिस्ट होने का संदेश भी दिया है। उसने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को व्हाइट सुप्रीमेसी का प्रतीक बताया है। पर यहां उसने श्वेत सर्वोच्चता का प्रयोग किस संदर्भ में किया है यह मूल बात है। न्यूजीलैंड पुलिस ने एक महिला सहित जिन चार लोगों को गिरफ्तार किया है उनसे पूरी पूछताछ के बाद ज्यादा जानकारी सामने आ सकेगी। 

इस समय हमारे पास पूरी जानकारी मुख्य हमलवार 28 वर्षीय ब्रेंटन टैरंट के सोशल मीडिया पोस्ट एवं उसके द्वारा बनाए गए मैनिफेस्टो पर आधारित है। जरा सोचिए, इस हमलावर ने हमला के पूर्व फेसबुक पर घोषणा कर दिया था कि वह पूरी हिंसा की लाइव स्ट्रीमिंग करेगा और उसने ऐसा ही किया। 

दिल दहला देने वाली अपनी हिंसा को उसने 17 मिनट तक फेसबुक पर लाइव किया। वह कार को चालू करते वक्त कहता है, चलो, इस पार्टी को अब शुरू करते हैं। इसके बाद वह सेन्ट्रल क्राइस्टचर्च के अल नूर मस्जिद की तरफ बढ़ना शुरू कर देता है। कार में उसने कई हथियार रखे हुए था, जिसे फेसबुक लाइव में दिखा रहा था। एक जगह वह कार से उतरता है और जमीन में ताबड़तोड़ गोलियां दागता है। बैकग्राउंड में सर्बियन म्यूजिक बज रहा था और वह सैटलाइट नैविगेशन के जरिए गाड़ी मोड़ रहा था जो उसे यह बताता था कि कब किस ओर मुड़ना है। इस तरह योजना बनाकर शांत और संतुलित तरीके से हत्या करने वाले के विचार का गहराई से विश्लेषण कर ईमानदारी और साहस के साथ सच को रखना जरुरी है। 


टैरंट ने फेसबुक पर पोस्ट में लिखा था कि वह आक्रमणकारियों पर हमला करेगा। हमला क्यों किया इस शीर्षक के तहत उसने लिखा है कि यह विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा हजारों लोगों की मौत का बदला लेने के लिए है। वह लिखता है कि मैं आक्रमणकारियों के खिलाफ हमला करूंगा।.... अगर मैं हमले में नहीं बचता हूं तो आप सभी को अलविदा! 

इसके साथ उसके मैनिफेस्टो को भी देखिए। इसमें उसने लिखा है कि उसे प्रवासियों से सख्त नफरत है। 
वस्तुतः यूरोप में मुसलमान आतंकवादियों द्वारा किए गए हमलों से उसका गुस्सा बढ़ा हुआ था। इनके लिए ही वह आक्रमणकारी शब्द प्रयोग करता है और वह हिंसा से इसका बदला लेकर संदेश देना चाहता था। 

मैनिफेस्टो का शीर्षक है- द ग्रेट रिप्लेसमेंट यानी महान बदलाव। इसे एक मेसेज बोर्ड वेबसाइट पर पोस्ट किया गया था। इस महान बदलाव से उसका तात्पर्य क्या है? अपने मैनिफेस्टो में टैरंट ने 2017 में स्वीडन के स्टॉकहोम में एक उज्बेक मुसलमान द्वारा भीड़ पर ट्रक चढ़ाने की घटना का जिक्र किया है, जिसमें 5 लोगों की मौत हो गई थी। तब वह पश्चिम यूरोप में घूम रहा था। इस हमले में 11 साल की एक स्वीडिश बच्ची की मौत ने उसे अंदर से झकझोर दिया था। यहां से जब वह फ्रांस पहुंचा तो शहरों और कस्बों में प्रवासियों की भीड़ देखकर हिंसा पर उतारू हो गया। प्रवासियों से उसका सीधा मतलब मुस्लिम शरणार्थियों और प्रवासियों से है। 

वास्तव में हाल के वर्षों में जेहादी आतंकवादियों द्वारा ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, स्वीडन...में किए गए हमलों ने उसके अंदर यह विचार पैदा किया कि मुसलमान श्वेतों पर विजय पाने के लक्ष्य से हिंसा कर रहे हैं। वे हमला कर हम पर अपना वर्चस्व स्थापित करेंगे और अपने मजहब को लादेंगे। इसके लिए जानबूझकर उनको शरणार्थी बनाकर भेजा जा रहा है ताकि उनकी आबादी वहां पहले से उपलब्ध हों जिनमें से हमलावर मिलें और बाद में वर्चस्व की लड़ाई में साथ। उसकी नजर में इसका जवाब श्वेतों की प्रतिहिंसा ही हो सकती है। उसने मैनिफेस्टो में साफ लिखा है कि हमला करने वालों को बताना है कि हमारी जगह उनकी कभी नहीं होगी। जब तक एक भी श्वेत व्यक्ति है, तब तक वे कभी नहीं जीत पाएंगे।


इन विचारों को पढ़ने के बाद साफ हो जाता है कि अगर उसके अंदर श्वेत सर्वोच्चता का विचार पनपा तो जहादी आतंकवादी हमलों के कारण। यह विचार किसी एक टौरंट के अंदर पैदा नहीं हुआ होगा। इसने आतंकवाद का जवाब आतंकवाद से अवश्य दिया है, पर ऑस्ट्रेलिया से लेकर यूरोप, अमेरिका...सब जगह जेहादी आतंकवाद को लेकर मुसलमानों के बारे में ऐसी भावना व्यापक रुप से फैली है। शरणार्थियों एवं प्रवासियों पर छोटे-बड़े हमले की घटनाएं चारों ओर हुई है। 

पहली बार ब्रिटेन ने सांप्रदायिक दंगा देखा। मुसलमानों को शरण देने का इन देशों में तीव्र विरोध हो रहा है। नई पीढ़ी के अंदर इस्लाम एवं ईसाइयत के संबंधों का इतिहास पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस पर अलग-अलग विचारों से छोटी-बड़ी पुस्तकें और वेबसाइट आ रहे हैं। जाहिर है इसमें क्रूसेड्स यानी इस्लाम एवं ईसाइयत के बीच चले धर्मयुद्धों का इतिहास भी है। 

इसमें बताया जाता है कि इस समय जिन देशों में इस्लाम है उसमें से ज्यादातर कभी ईसाइत थी। यानी इस्लाम ने हिंसा और मारकाट से इस्लाम का फैलाव किया है। एक ओर लोगों के अंदर ऐसा विचार घनीभूत हो रहा है और दूसरी ओर सरकारें उदार व सहिष्णुता को  प्रश्रय देने की नीति अपनाती है। इससे बड़े वर्ग में खीझ पैदा होता है। 

भारत की तरह वहां भी सच को देखते हुए शासन, राजनीति और बौद्धिक तबका इसे स्पष्ट बोलने से बचता है। किंतु न बोलने से सच खत्म नहीं हो सकता। न्यूजीलैंड में किसी को शरण मिलना अत्यंत आसान है। वहां मुसलमानों को न सिर्फ शरण दिया गया, उन्हें अपने मजहबी कर्मकांड की भी पूरी छूट दी गई तथा इसे देश की सहिष्णु प्रकृति के रुप सरकार प्रचारित करती है।

 प्रधानमंत्री ने कहा भी कि क्राइस्टचर्च इन पीड़ितों का घर था। इनमें से बहुत लोगों ने शायद यहां जन्म न लिया हो। कई लोगों के लिए न्यूज़ीलैंड उनकी पसंद का देश था। यह एक उच्च विचार है जो होना ही चाहिए, पर इसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया न हो इसका पूर्वोपाय भी करना होगा। करीब 49.5 लाख की आबादी में मुसलमानों की संख्या डेढ़ लाख के आसपास होगी। लेकिन इनका आम धारा से बिल्कुल अलग मजहब आधारित जीवन शैली को एक वर्ग पचा नहीं पाता है।

 पुलिस की जांच में उसका संबंध एक संदिग्ध ऑनलाइन अकाउंट से निकला। ट्विटर पर यह अकाउंट महीनेभर पहले ही बनाया गया। इस अकाउंट पर पोस्ट किए गए संदेश में मुस्लिमों और अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमले का जश्न मनाने की बात कही गई।  

 
 टैरंट ऑस्ट्रेलिया का नागरिक है, लेकिन उसने वहां हमला करने की जगह न्यूजीलैंड को चुना। क्यों? हमलावर ने लिखा कि न्यूजीलैंड जैसे देश में हमले से स्पष्ट संदेश जाएगा कि धरती पर कोई जगह उनके लिए सुरक्षित नहीं है। न्यूजीलैंड जैसे सुदूर देश में भी बड़ी संख्या में प्रवासी आ गए हैं। यानी न्यूजीलैंड के सुदूर इलाके और शांति को देखते हुए इसे हमले के लिए चुना था।

 इसका संदेश साफ था कि जिस देश को सबसे शांत माना जाता है वहां हमला करने से उनके अंदर भय पैदा होगा कि कहीं भी उनको निशाना बनाया जा सकता है। उसके मैनिफेस्टो से पता चलता है कि वह पिछले 2 सालों से हमले की साजिश रच रहा था। 

उसने लिखा है कि 3 महीने पहले ही उसने हमले वाली जगह का चुनाव किया था। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने  उसे एक दक्षिणपंथी, हिंसक आतंकवादी करार दिया है। आप इसके लिए जो भी नाम दे दीजिए लेकिन इसे काफी गंभीरता से लेना होगा। यह विचार चाहे जितना गलत हो लेकिन शून्य में पैदा नहीं हुआ है। अगर आईएसआईएस, अल कायदा, अल सबाब, तालिबान जैसे संगठन अपने घृणित मजहबी विचारों पर आधारित आतंकवादी घटनाओं को अंजाम नहीं देते तथा पश्चिम को पराजित करने का विष विचार नहीं फैलाते तो प्रतिक्रिया का कोई कारण ही नहीं रहता। 


यह हमला उसी तरह है जैसे आईएसआईएस ने अपनी पराजय को देखते हुए लोन वूल्फ का सिद्धांत दिया। यानी जो जहां है और उसके पास जो कुछ भी उपलब्ध है उसी से हमला करे। भले तुम्हारे हाथ में पत्थर आए तो उससे ही मारो लेकिन मारो। उससे असंगठित आतंकवाद पैदा हुआ है। 

टैरंट के आतंकवाद का कोई संगठित स्वरुप नहीं है जहां विचारधारा से लेकर हथियारों का प्रशिक्षण, हमलों की योजनाएं तथा वित्तपोषण उपलब्ध है। टैरंट के किसी संगठन का सदस्य होने का प्रमाण भी नहीं मिला है। हां, उसने कई अति राष्ट्रवादी संगठनों को दान देने तथा ऐंटी-इमिग्रेशन ग्रुप से संपर्क करने की बात लिखी है। उसने नार्वे के आतंकवादी एंडर्स ब्रीवीक के साथ संक्षिप्त संपर्क और प्रेरणा भी स्वीकार किया है।

ब्रीवीक ने 2011 में नार्वे के उटोया द्वीप पर 69 लोगों कर बाद में ओस्लो में कार बम के जरिए 8 अन्य लोगों को मारा था। ब्रीविक जेल में हैं और उनसे कम लोग ही मिल पाते हैं। ऐसे में लगता नहीं हमलावर उनसे मिल पाया होगा। टैरंट पहले कम्युनिस्ट था और बाद में अराजकतावादी बन गया। उसने अपने लिए इको-फासिस्ट शब्द का प्रयोग किया है। आप अपने अनुसार इसका अर्थ लगाने को स्वतंत्र हैं। 

उसके ट्विटर हैंडल से एक फोटो ट्वीट की गई, जिसमें दिखी बंदूक का इस्तेमाल हमले में किया गया। इस पर एक संदेश था, जिसमें इतिहास में दर्ज ऐसे लोगों के नाम लिखे थे, जिन्होंने नस्ल और मजहब के नाम पर लोगों को मारा था। हमलावरों के लिए संदेश था कि यही तुम्हारा वचन है। राइफल के एक तरफ नंबर 14 लिखा था, जिसे प्रधान के मंत्र के संदर्भ में माना जा रहा है। इसे हिटलर के 14 वर्ड्स से जोड़कर भी देखा जा रहा है। पिछले महीने बने इस ट्विटर अकाउंट से 63 ट्वीट किए गए, जिसके 218 फॉलोअर्स थे। उसने 2011 के बाद पाकिस्तान और उत्तर कोरिया दौरा किया था। पाकिस्तान में उसने आतंकवादियों को निकट से देखा। 


उसके विचारों तथा तौर-तरीकों से आप इको फासिस्ट का मतलब समझ सकते हैं। यह निश्चय ही खतरनाक विचार है जिसको आगे बढ़ने से पहले हर हाल में रोका जाना चाहिए। कितु जब तक जेहादी विचारधारा पर आधारित आतंकवाद खत्म नहीं होगा, पश्चिमी यूरोप एवं अन्य जगह रहनेवाला मुस्लिम समुदाय अपने मजहबी कर्मकांड का पालन करते हुए भी अन्य धर्मावलंबियों के साथ घुलने-मिलने का स्वाभविक व्यवहार नहीं करता इसे रोकना संभव नहीं है। और नहीं रुका तो यह दो मजहबों के बीच जगह-जगह हिंसक हमले और प्रतिहमले का कारण बन सकता है। 

ब्रैन्टन ने लिखा है कि वह हमला कर जीवित बचना चाहता है जिससे मीडिया में अपने विचारों को बेहतर तरीके से प्रचारित कर सके। न्यूजीलैंड का चयन करने का एक कारण यह भी हो सकता है कि वहां मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है। न्यूजीलैंड का प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डन ने 19 मार्च को संसद में अपने भाषण की शुरूआत अस्सलाम अलैकुम वा रहमतुल्लाहो वा बरकतहू... यानी अल्लाह की दुआ, अमन और रहम आप सब पर बना रहे—से की। उन्होंने कहा कि हमें मुसलमानों की पीड़ा को समझनी चाहिए। बेशक, समझनी चाहिए, लेकिन दूसरे पक्ष को नहीं देखने से कोई अन्य आतंकवादी बनेगा।


पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने ट्वीट कर कहा कि मैं इन बढ़ती आतंकी घटनाओं के लिए 9/11 हमले के बाद दुनियाभर में जारी इस्लामोफोबिया को जिम्मेदार मानता हूं, जिसमें किसी एक मुस्लिम के आतंकवादी हमले की वजह से पूरी मुस्लिम आबादी को जिम्मेदार माना जाता है। यह बात सही है कि सभी मुसलमानों को आतंकवाद के लिए जिम्मेवार नहीं माना जा सकता। किंतु आतंकवाद का वैचारिक स्तर पर जिस तरह का विरोध और खंडन मुसलमानों के बीच से होना चाहिए वह नहीं दिख रहा है। 

इस्लाम में जेहाद की अवधारणा, हिंसा और आतंकवाद पर मुस्लिम नेताओं को जिस तरह का कार्यक्रम कर शांति का वातावरण बनाने की कोशिश करनी चाहिए वैसा कहीं नहीं हो रहा। आतंकवाद जब अपने सिर आ जाता है तब तो संघर्ष होता है लेकिन उसके पहले सक्रिय पहल नहीं देखी जा रही। इसलिए इस्लामोफोबिया अगर पैदा हुआ है तो उसे दूर करने की कोशिश कौन करेगा? 

पाकिस्तान तो इसका सबसे बड़ा कारण है। इमरान इसके लिए क्या कर रहे हैं? यह प्रश्न उठेगा। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन के अनुसार घटना हमें बताती है कि बुरे लोग हमेशा हमारे बीच मौजूद होते हैं और वो कभी भी ऐसे हमले कर सकते हैं। यह सही है, पर ये लोग बुरे क्यों बनते हैं इस प्रश्न का गंभीरता से उत्तर तलाशने का समय आ गया है। कहीं ऐसा न हो कि कटु सच को सार्वजनिक रुप से स्वीकार कर कार्रवाई न करने के कारण एक नए किस्म का क्रूसेड(धर्मयुद्ध) आरंभ हो जाए। 

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं) 

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