आजादी के बाद देश की अधिकतर जनता सरदार वल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी। लेकिन बाजी हाथ लगी जवाहर लाल नेहरु के। आखिर कैसे कैसे बदला घटनाक्रम? क्या हुआ था उस समय? आईए पलटकर झांकते हैं इतिहास के पन्नों में एक बार फिर से-
सन् 1946 के आखिर तक भारत को आजादी मिलना लगभग तय हो गया था। हर तरफ चर्चा हो रही थी कि भारत का नेतृत्व किसके हाथ में होगा। स्वस्थ लोकतंत्र की परिपाटी के मुताबिक मतदान भी हुआ। लेकिन लाखों लोगों की राय के ऊपर एक व्यक्ति की मनमर्जी थोपकर आजादी से पहले ही जनमत का माखौल बनाने की परंपरा डाल दी गई थी। जिसका पहला निशाना बने सरदार पटेल।
दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद से भारत में सत्ता हस्तांतरण की तैयारियों ने जोर पकड़ लिया था। 1946 के चुनावों में कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं इसलिए कांग्रेस के ही नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरु की गई।
सबकी नजरें कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर थीं क्योंकि हर कोई जानता था कि जो भी अध्यक्ष बनेगा वही भविष्य में भारत का प्रधानमंत्री बनेगा।
उस समय यानी 1946 तक मौलाना अबुल कलाम आजाद ही लगातार 6 साल से कांग्रेस अध्यक्ष बने हुए थे। क्योंकि 1942 में हुए भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से सभी बड़े नेता जेल में थे जिसकी वजह से कांग्रेस के सांगठनिक चुनाव नहीं हुए थे।
मौलाना आजाद अगला चुनाव भी लड़ना चाहते थे, लेकिन महात्मा गांधी ने उन्हें मना कर दिया था। जिसके बाद आजाद ने नेहरु का समर्थन करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया था।
नए कांग्रेस अध्यक्ष या फिर कहिए भारत के भावी प्रधानमंत्री पद के चुनाव के लिए नामांकन की आखिरी तारीख 29 अप्रैल 1946 थी।
यह नामांकन कांग्रेस की 15 राज्य इकाइयों को करना था। इन इकाइयों ने जो नाम भेजा उसने गांधी जी ही नहीं कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को चौंका दिया।
गांधी जी की सिफारिश के बावजूद 15 में से 12 इकाइयों ने नेहरु की बजाए सरदार पटेल के नाम का अनुमोदन किया। बाकी के भी तीन राज्यों ने भी कोई एक नाम भेजने की बजाए बहुमत का सम्मान किए जाने का संदेश भेजा।
कांग्रेस की राज्य इकाइयां, जो कि उस समय देश के अलग अलग हिस्से की जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं, उनका संदेश स्पष्ट था- उन्होंने जवाहरलाल नेहरु नहीं सरदार पटेल के हाथों में देश का भविष्य सुरक्षित देखा था।
गांधी और नेहरु दोनों कार्यसमितियों के इस फैसले से भौचक्के रह गए। गांधी जी ने जनता की राय को अपनी निजी हार के तौर पर लिया। उन्होंने जे.बी.कृपलानी पर दबाव डाला कि वह कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को नेहरु के नाम का प्रस्ताव पास करने के लिए राजी करें।
लेकिन इसमें कांग्रेस का संविधान आड़े आ गया। जिसमें यह साफ लिखा हुआ था कि अध्यक्ष पद के लिए नामांकन का अधिकार सिर्फ राज्य इकाइयों के पास था।
ऐसी परिस्थितियों में गांधी जी ने अपना तुरुप का इक्का चला। उन्होंने सरदार पटेल को बुलाया और नेहरु के समर्थन में अपना नामांकन वापस लेने का दबाव डाला।
कहा जाता है कि गांधी जी को इस बात के लिए नेहरु ने मजबूर किया था। उन्होंने गांधी जी पर दबाव डालने के लिए कांग्रेस को तोड़ देने की भी धमकी दी थी।
गांधी जी को यह भी आशंका थी कि कांग्रेस के इस आपसी झगड़े का फायदा उठाकर कहीं अंग्रेज भारत को आजादी देने से इनकार न कर दें।
गांधी जी ने जब पटेल से मुलाकात की तो उन्होंने अपनी यह आशंकाएं उनके सामने रखीं थीं।
हालांकि वल्लभ भाई पटेल जानते थे कि गांधी जी इन आशंकाओं की आड़ में नेहरु को पीएम बनाने की अपनी ख्वाहिश पूरा करना चाहते हैं।
लेकिन सरदार पटेल के अंदर का देशभक्त यह नहीं चाहता था कि उनकी वजह देश को आजादी मिलने में देरी हो या कांग्रेस में किसी तरह की टूट हो।
इसलिए जनता की प्रबल इच्छा के बावजूद उन्होंने नेहरु के समर्थन में कांग्रेस अध्यक्ष पद से अपनी दावेदारी वापस ले ली।
जब बाबू राजेंद्र प्रसाद ने यह खबर सुनी तो एक आह के साथ उनके मुंह से निकला कि एक बार फिर गांधी ने अपने चहेते चमकदार चेहरे (नेहरू) के लिए अपने विश्वासपात्र सैनिक (सरदार पटेल) की कुर्बानी दे दी।
क्योंकि कांग्रेस में यह बात हर कोई जानता था कि गांधी जी की पहली पसंद सरदार पटेल नहीं नेहरु हैं। क्योंकि इससे पहले भी दो बार 1929 और 1937 में पटेल के ऊपर नेहरू को वरीयता दी थी।
गांधी कथित रुप से नेहरु की उच्च शिक्षा दीक्षा और विदेशी अंदाज से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। गांधी भले ही स्वदेशी, भारतीयता को अपने आंदोलन का आधार बताते थे। लेकिन उन्होंने खुद विदेश में शिक्षा ग्रहण की थी, इसलिए वह पूर्ण रुप से देशी पटेल से ज्यादा इंग्लैण्ड में पढ़ाई किए हुए नेहरु को ज्यादा माडर्न और प्रगतिशील मानते थे।
इसके अलावा 1946 तक गांधी जी की उम्र 77(सतहत्तर) साल हो चुकी थी। वह नेहरु पर बहुत ज्यादा निर्भर हो चुके थे।
गांधी जी को डर था कि अगर नेहरु ने कांग्रेस तोड़ दी तो उन्हें अंग्रेजों का समर्थन मिल जाएगा और वह खुद हाशिए पर चले जाएंगे।
भले ही नेहरु गांधी जी के चहेते थे लेकिन वह जानते थे कि नेहरु की बात न मानी गई तो वह उनके आदेशों की परवाह नहीं करेंगे।
साथ ही गांधी यह भी जानते थे कि उन्होंने पटेल के साथ कई बार पक्षपात किया है फिर भी भारतीय संस्कारों के बीच पले बढ़े वल्लभ भाई उनकी बात कभी नहीं टालेंगे।
गांधी जी का भावनात्मक दबाव काम आया और सचमुच पटेल ने अपनी दावेदारी वापस ले ली। लेकिन जनमत की यह अनदेखी देश को आगे जाकर बहुत महंगी पड़ी।
मौलाना आज़ाद ने 1959 में प्रकाशित अपनी जीवनी में लिखा था – “सरदार पटेल के नाम का समर्थन ना करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी। मेरे बाद अगर 1946 में सरदार पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया होता तो भारत की आज़ादी के समय “कैबिनेट मिशन प्लान” को उन्होंने नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करवाया होता। मैं अपने आपको कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाउँगा कि मैंने यह गलती न की होती भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता”।
ठीक इसी तरह चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी लिखा कि “इस में कोई शक नहीं कि बेहतर होता यदि सरदार पटेल को प्रधानमंत्री और नेहरू को विदेशमंत्री बनाया गया होता। मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं भी गलत सोचता था कि इन दोनों में नेहरू ज्यादा प्रगतिशील और बुद्धिमान हैं”।
इन विद्वानों की राय अगले 15(पंद्रह) सालों में ही सही साबित हो गई। अगर पटेल के हाथ में भारत का नेतृत्व आता तो 1947 में देश का विभाजन, कश्मीर की लगातार गंभीर होती समस्या और 1962 में चीन के हमले के समय देश की हालत ऐसी न होती।