पूर्वांचल में ‘साथी’ को हराने में सफल होगा बीजेपी का फार्मूला?

By Harish Tiwari  |  First Published Apr 7, 2019, 5:31 PM IST

भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश समेत ज्यादातर राज्यों में अपने 2014 के फार्मूले को फिर से अपना रही है। पार्टी ने दो दिन पहले राजस्थान में भी इसी फार्मूले को लागू किया है। इस फार्मूले से पार्टी ने उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में एक इतिहास रचा और फिर विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल कर सरकार बनाई। अब बीजेपी इसी फार्मूले को फिर से लागू कर रही है।

भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश समेत ज्यादातर राज्यों में अपने 2014 के फार्मूले को फिर से अपना रही है। पार्टी ने दो दिन पहले राजस्थान में भी इसी फार्मूले को लागू किया है। इस फार्मूले से पार्टी ने उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में एक इतिहास रचा और फिर विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल कर सरकार बनाई। अब बीजेपी इसी फार्मूले को फिर से लागू कर रही है। यूपी में बीजेपी ने अपने कुनबे में निषाद पार्टी को जोड़ लिया है, जो अब एसपी-बीएसपी गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ेगा। इतना तो तय है कि निषाद पार्टी के बीजेपी के साथ आने से गठबंधन को कितना नुकसान होगा, लेकिन इससे बीजेपी को फायदा जरूर मिलेगा।

बीजेपी ने राज्य में छोटे दलों की अहमियत समझते हुए 2014 में अपना दल के साथ चुनाव गठबंधन किया था और पार्टी 71 सीटें जीतने में कामयाब रही जबकि अपना दल को 2 सीटें मिली थी। अपना दल को राज्य में उस वक्त एक फीसदी वोट मिला था और वो दो सीट जीतने में कामयाब रही। वहीं कांग्रेस को भी 7.5 फीसदी वोट मिला था और उसने भी दो सीटें जीती। यानी पूर्वांचल में अपना दल के छोटे से वोट बैंक से बीजेपी को ज्यादा फायदा मिला। अब यही फार्मला बीजेपी ने राज्य के विधानसभा चुनाव में अपनाया और वह सहयोगी दलों के साथ 325 सीटें जीतने में कामयाब रही। इसमें चार सीटें सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने तो नौ सीटें अपना दल ने जीती। लेकिन पार्टी राज्य में किए गए दो बार सफलतम प्रयोग के बाद अब इस चुनाव में इसी फार्मूले को अपनाने जा रही है।

अब यूपी में पार्टी ने एसपी-बीएसपी से नाराज निषाद पार्टी को अपने कुनबे में जोड़ लिया है। अगर आंकड़ों के मुताबिक देखा जाए तो निषाद और उनकी सहयोगियों की पूर्वांचल में खासी तादात है और वह यहां चुनाव की तस्वीर बदलने की ताकत रखते हैं। आंकड़ों के मुताबिक गोरखपुर में लगभग 3.5 लाख, महाराजगंज में 3 लाख, संत कबीरनगर में 2.5 लाख,  बस्ती में 2.0 लाख, कुशीनगर में 1.50 लाख एवं देवरिया में 1.50 लाख इस बिरादरी के मतदाता हैं। यही नहीं देवरिया, बलिया, बनारस में भी इस वर्ग की खासी संख्या है। जो किसी भी प्रत्याशी की भाग्य बदल सकते हैं।

निषाद वर्ग की ताकत का अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा और योगी आदित्यनाथ का गढ़ माने जाने वाले गोरखपुर में निषाद पार्टी ने एसपी की मदद से बीजेपी के प्रत्याशी को हराया था। 2017 के गोरखपुर उपचुनाव में प्रवीण निषाद ने एसपी की टिकट पर चुनाव लड़ा था और इसमें बीएसपी ने उसे समर्थन दिया था। अब निषाद पार्टी का बीजेपी से गठबंधन करना और प्रवींण निषाद का बीजेपी का दामन थामना एसपी-बीएसपी गठबंधन के लिए नुकसानदायक हो सकता है। निषाद पार्टी के डॉ.संजय निषाद कई सालों से समाज के उत्थान के सक्रिय रहे और उसके बाद उन्होंने स्थानीय स्तर पर पार्टी को चुनाव लड़ाकर अपने को स्थापित किया।

लिहाजा त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में जिला पंचायत सदस्य के पद पर इस पार्टी ने कई उम्मीदवारों को अपने टिकट पर चुनाव लड़वाना शुरू किया। लिहाजा यूपी के 2017 के विधान सभा चुनाव में निषाद पार्टी ने पीस पार्टी से गठबंधन कर कई सीटों पर चुनाव लड़ा। हालांकि एक सीट जीतने में कामयाब रही और उसके विधायक विजय मिश्रा पार्टी के सिंबल पर चुनाव जीते। इसके बाद निषाद पार्टी का निषाद वर्ग के मतदाताओं में एक अच्छी पैठ बन गई थी। गोरखपुर सीट जीतने के बाद निषाद पार्टी की ताकत में बढ़ोत्तरी हुई और पार्टी ने एसपी-बीएसपी गठबंधन से पूर्वोंचल में चार सीटें मांगी, लेकिन गठबंधन ने उन्हें एक भी सीट नहीं दी। अब निषाद पार्टी के मुखिया डॉ. संजय निषाद ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़ दिया और भाजपा के खेमे में चले आए।

दिलचस्प ये है कि निषाद पार्टी की बढ़ते मोलभाव के कारण गठबंधन भी निषाद पार्टी से छुटकारा चाहता था, लिहाजा एसपी ने गोरखपुर सीट से निषाद समाज के रामभुआल निषाद को टिकट देकर निषाद समाज के वोट को अपने पाले में करने की रणनीति चल दी है। हालांकि बीजेपी की तरफ से भी निषाद पार्टी को राज्य में कोई सीट नहीं दी गयी है, लेकिन अगर पार्टी फिर से सत्ता में आती है तो जाहिर है संजय निषाद को पार्टी राज्य सभा या फिर विधान परिषद में भेज सकती है। हालांकि बीजेपी और निषाद पार्टी के बीच जो भी चुनावी गठजोड़ हुआ है उसके बारे में दोनों दल खुलकर नहीं बोल रहे हैं, लेकिन इतना तय है कि निषाद पार्टी के एसपी-बीएसपी गठबंधन से निकलने के बाद इसका सीधा फायदा बीजेपी को जरूर मिलेगा।

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