अर्थशास्त्री अंबेडकर: 1899 में बाबा साहब ने ही तय किया था रुपए का मूल्य

By Anshuman Anand  |  First Published Apr 14, 2019, 1:02 PM IST

संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर का आज जन्मदिन है। उनके कानून विशेषज्ञ और समाजशास्त्रीय रुप की बहुत चर्चा होती है। लेकिन वह एक बड़े अर्थशास्त्री भी थे, इस बात को कम ही लोग जानते हैं। वह समाजिक और आर्थिक विकास के हिमायती थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आयुष्मान भारत, सबके लिए मकान, उज्जवला, सौभाग्य योजना जैसी योजनाएं बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के समाजशास्त्रीय अर्थशास्त्र को वास्तविक श्रद्धांजलि है 

नई दिल्ली:  डॉ अम्बेडकर पब्लिक फाइनेंस विषय के महान विशेषज्ञ थे। उनकी पीएचडी का शोध विषय था Evolution of Public Finance in British India तथा डॉक्टरेट का विषय Problem of the Rupee था। जो कि अत्यंत गहन विषय हैं। यह बाद में पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुए। उनकी एमए का विषय Ancient Indian Commerce तथा एमएससी का शोध विषय Decentralization of Imperial Finance in British India भी गंभीर और महत्वपूर्ण विषय थे।

कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन करते समय उनके पास कुल 29 विषय ऐसे थे, जिनका सीधा संबंध अर्थशास्त्र से था। वहां से उन्होंने ‘इवोल्यूशन ऑफ पब्लिक फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ विषय में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की थी। आगे चलकर लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स से उन्होंने ‘प्राब्लम ऑफ रुपया : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सोल्यूशन’ विषय पर डीएससी की डिग्री हेतु शोध प्रबंध लिखा।

1899 में सरकार ने एक समिति का गठन किया, जिसका उद्देश्य था रुपए की कीमत तय करना और उसके स्वर्ण–स्टैडर्ड के आधार पर मूल्यांकन की विधि तैयार करना। 
रजत–मुद्रा के उतार–चढ़ाव को देखते हुए अंबेडकर ने स्वर्ण–मुद्रा को अपनाने का सुझाव दिया; तथा एक रजत–मुद्रा का मूल्य एक शिलिंग तथा छह पेंस रखने की सलाह दी। उनकी अधिकांश अनुशंसाओं को सरकार ने ज्यों की त्यों अपना लिया था। 
इस विषय में डॉ आंबेडकर ने दो लेख कर अपनी राय ज़ाहिर की थी। उसमें उन्होंने यह सुझाव दिया था कि रुपए का मूल्य 1 शिलिंग 6 पेन्स रखना ही राष्ट्र के लिए हितकर होगा। बाद में डॉ आंबेडकर के इस सुझाव के अनुसार ही रुपए का मूल्य 1 शिलिंगग 6 पेन्स रखा गया था।
अंबेडकर के विचारों के आधार पर ही आगे चलकर भारतीय रिजर्व बैंक की मूलभूत सैद्धांतिकी का विकास हुआ।
डॉ. अंबेडकर ने भारत के भावी संविधान के अपने प्रारूप में इस रूप-रेखा को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत भी किया था जो कि "States and Minorities" नामक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। उनके अनुसार भावी संविधान में भारतीय संघ निम्नलिखित को संवैधानिक कानून का अंग घोषित करेगा।
1. सभी प्रमुख उद्योग सरकारी नियंत्रण में होंगे तथा सरकार द्वारा ही चलाये जायेंगे। 
2. वे उद्योग भी जो प्रमुख नहीं हैं किन्तु आधारभूत हैं सरकार अथवा सरकारी उद्यमों द्वारा चलाये जायेंगे। 
3. बीमा केवल सरकार के हाथ में होगा तथा प्रत्येक व्यस्क व्यक्ति को जीवन बीमा पालिसी लेना आवश्यक होगा। 
4. कृषि राजकीय उद्योग घोषित होगी।
बताने की जरुरत नहीं है कि इसमें से आखिरी को छोड़कर सभी नीतियों का शब्दश: पालन हो रहा है। 

भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने के उद्देश्य से वर्ष 1925 में गठित हिल्टन कमीशन के सामने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया था।

डॉo अम्बेडकर द्वारा विद्यार्थियों की एक सभा में Responsibilities of a Responsible Government विषय पर पढ़े गए लेख में व्यक्त विचारों के बारे में उस समय के संसार प्रसिद्ध राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रोफेसर हेराल्ड जे.लस्की ने कहा था : " लेख में प्रकट किये गए डॉ अम्बेडकर के विचार क्रांतिकारी स्वरूप के हैं।"

 डॉ आंबेडकर के आर्थिक दर्शन से प्रभावित होकर ही नोबल पुरस्कार विजेता डॉ अमर्त्य सेन ने कहा है: " Dr Ambedkar is the father of my economics " अर्थात "डॉ आंबेडकर मेरे अर्थशास्त्र के जनक हैं।"

डॉ अम्बेडकर के शोध- ग्रन्थ Decentralization of Imperial Finance in British India पर उनके आचार्य एडविन केनन ने अपनी प्रस्तावना में उनके तर्क से मतभेद व्यक्त करते हुए उन के ग्रन्थ में व्यक्त विचारों और युक्तिवाद में प्रकट कुशाग्र बुद्धि की सराहना की थी। 

भारत की मुद्रा प्रणाली में आवश्यक सुधार लागू करने के लिए Royal Commission on Indian Currency and Finance की स्थापना की गयी थी। इस कमीशन के अध्यक्ष Edward Hilton Young थे। इस कमीशन ने 40 लोगों के ब्यान लिए जिनमे डॉ अम्बेडकर को जब आमंत्रित किया गया तो कमीशन के हरेक सदस्य के हाथ में डॉ अम्बेडकर द्वारा लिखित Evolution of Public Finance in British India ग्रन्थ की प्रतिलिपियां थीं। यह इस अद्भुत भारतीय मनीषी के प्रति अंग्रेज़ बुद्धिजीवियों द्वारा प्रदर्शित बौद्धिक सम्मान था।

डॉ अम्बेडकर ने अपनी कृतियों में अंग्रेज़ सरकार की तत्कालीन कर-नीति जैसे अत्यधिक भूमि लगान, नमक-कर, इंग्लैंड तथा भारतीय उत्पादन पर असमान कर कस्टम ड्यूटी, जागीरदारी व्यवस्था द्वारा किसानों का घोर आर्थिक शोषण तथा अंग्रेजों और भारतीय सरकारी अधिकारीयों के वेतन में भारी अंतर अदि पर भी आलोचनाएं की थीं। इस व्यस्था के परिणामों का चित्रण बाबा साहेब ने इन शब्दों में किया था- " The Agencies of war were cultivated in the name of peace and they usurped so much of the total funds that nothing was practically left for the agencies of progress" अर्थात शांति के नाम पर युद्ध के अभिकरण तैयार किये गए और वे सम्पूर्ण धनराशि का इतना अधिक भाग हजम कर गए विकास के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। "

रुपये की समस्या पर उनका मत था कि भारतीय रुपए का आधार सोना होना चाहिए न कि चांदी। डॉ आंबेडकर "गोल्ड एक्सचेंज स्टैण्डर्ड" तथा " गोल्ड रिज़र्व फण्ड" के विरोधी थे। वे रुपए के मूल्य को उसकी आन्तरिक क्रय क्षमता से जोड़ने तथा उसके नियंत्रित प्रचलन के पक्षधर थे। उनका सुझाव था कि रुपए का मूल्य सोने के रूप में रखा जाये तथा कागज़ के नोट चलाये जाएँ।

डॉ. अंबेडकर द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र-निर्माण का आर्थिक स्वरूप राजकीय समाजवादी था। वे राज्य का सकारात्मक हस्तक्षेप सामाजिक-आर्थिक रूपान्तरण के लिए आवश्यक मानते थे। यह प्रारूप गाँधीवादी प्रारूप से सर्वथा भिन्न और नेहरुवादी प्रारूप से अधिक स्पष्ट, विकसित और निर्णायक था। 

भारत में परम्परागत सामाजिक बंटवारा अन्यापूर्ण है। इन्हें केवल कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में देखना समझदारी नहीं होगी। इसकी आशंका डॉ आंबेडकर को पहले ही थी। अतः उन्होंने उसी समय अपना राजकीय समाजवाद का नमूना देश के सामने रखा था। यह भारत जैसे पिछड़े देश के लिए आज भी प्रासंगिक है। नेहरु जी इस दिशा में चले थे लेकिन आधे अधूरे मन से।

और अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आयुष्मान भारत, सबके लिए मकान, उज्जवला, सौभाग्य योजना जैसी योजनाएं बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के समाजशास्त्रीय अर्थशास्त्र को वास्तविक श्रद्धांजलि है। 

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