लद्दाख को डिवीजन बनाने की घोषणा: देर से उठाया गया दुरुस्त कदम

लद्दाख के नया डिवीजन बनने से लेह और करगिल जिले के निवासियों की लंबे समय से लंबित मांग पूरी हो गयी है। राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने इस संबंध में 8 फरवरी को एक आधिकारिक विज्ञप्ति जारी कर यह घोषणा की। इसके साथ ही राज्य में एक नयी राजनैतिक बहस छिड़ गयी है जिसमें जम्मू को आगे कर कश्मीर की राजनीति में दाँव चले जा रहे हैं।

Laddhakh has declared third Division of Jammu and Kashmir

लद्दाख जम्मू कश्मीर राज्य का वह सीमान्त भाग है जो एक ओर पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले बल्तिस्तान से लगता है तो दूसरी ओर चीन के अवैध कब्जे वाले अक्साईचिन से स्पर्श करता है। लद्दाख का रणनीतिक महत्व इसी से आंका जा सकता है कि यदि लगभग पांच हजार वर्ग किलोमीटर कश्मीर का क्षेत्र और दस हजार वर्ग किमी जम्मू का क्षेत्र छोड़ दें तो पाकिस्तान और चीन के कब्जे में मौजूद एक लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक का भू-भाग केवल लद्दाख और गिलगित का है।

Laddhakh has declared third Division of Jammu and Kashmir

सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से यह पूरा क्षेत्र हजारों वर्षों से भारत का अभिन्न अंग रहा है। सम्राट अशोक से लेकर महाराजा रणजीत सिंह और उनके माध्यम से डोगरा राजवंश तक यह निरंतरता बनी रहती है। 26 अक्तूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने जब भारत में अधिमिलन किया तो यह पूरा राज्य भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में शामिल हो गया। 
इसी समय पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर लद्दाख का एक बड़ा हिस्सा कब्जा लिया। कालान्तर में उसने इसे एक अगल बाल्तिस्तान डिवीजन बना कर लद्दाख की पूर्व राजधानी स्कर्दू को ही उसका मुख्यालय बनाये रखा। इसी का एक हिस्सा, जिसे शक्सगाम घाटी के रूप में जाना जाता है, पाकिस्तान ने 1963 में यह हिस्सा चीन को सौंप दिया। 

हालांकि चीन के साथ हुए समझौते में भी इसे पाकिस्तान का भाग न मानकर पाकिस्तान के नियंत्रण वाला क्षेत्र माना गया और समझौता-पत्र में इसका उल्लेख किया गया कि निर्णय होने की स्थिति में यह भू-भाग जिसके भी अधिकार-क्षेत्र में आयेगा, चीन उससे इस संबंध में बात करेगा। इससे साल भर पहले, 1962 में आक्रमण कर चीन लद्दाख के अक्साईचिन वाले हिस्से पर कब्जा कर चुका था। 

संक्षेप में, आज लद्दाख के उत्तर-पश्चिमी हिस्से पर पाकिस्तान का नियंत्रण है जिसे नियंत्रण रेखा (एलओसी) भारत से अलग करती है, वहीं इसके पूर्वी भाग पर चीन का नियंत्रण है जिसे वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) विभाजित करती है। 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व में भारत की संसद ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार पाकिस्तान के साथ यदि कोई मुद्दा बाकी है तो वह पाकिस्तान द्वारा अधिक्रांत क्षेत्र को वापस लेने का है और ऐसा करने की क्षमता और इच्छाशक्ति भारत में है।

लद्दाख के इस रणनीतिक महत्व को स्वीकार करने के बाद भी गत सात दशकों में इस क्षेत्र के लिये जो कुछ किया जाना चाहिये था, वह नहीं हुआ। वस्तुतः, करगिल युद्ध से पहले तक तो यह क्षेत्र चर्चा से भी बाहर था। यहां प्रवेश के लिये परमिट व्यवस्था लागू थी और इसके लिये अधिकांश आवेदन निरस्त कर दिये जाते थे। 

दूसरी ओर चीन की सेनाएं कदम-दर-कदम वास्तविक नियंत्रण रेखा को धकेल कर आगे बढ़ रही थीं। सीमा पर स्थित गांवों में चीन के सैनिक और नागरिक आकर भारतीय नागरिकों को धमकाते थे। चीनी पशुपालकों द्वारा भारतीय क्षेत्र में स्थित चरागाहों पर कब्जा किया जाता रहा और पशुपालन पर जीवन बसर करने वाले भारतीय लद्दाखी समाज की पीड़ा मीडिया के अभाव में देश तक नहीं पहुंच सकी।

यह उल्लेखनीय है कि करगिल युद्ध के बाद जहां इस क्षेत्र के बारे में देश की रुचि बढ़ी वहीं गत तीन-चार वर्षों में यहां विकास की अनेक योजनाएं लागू की गयीं। हालांकि सड़क, बिजली और यातायात जैसे आधारभूत ढ़ांचे के अभाव में इन योजनाओं को आगे बढ़ाने में कठिनाई आनी स्वाभाविक है लेकिन इसे एक बेहतर शुरुआत जरूर माना जा सकता है। 

पिछले दिनों में सड़कों का निर्माण, जोजिला टनल की शुरुआत, विश्वविद्यालय की घोषणा और अब लद्दाख को नया डिवीजन मिलने से विकास की गति तेज होना निश्चित है। साथ ही पर्यटन और लघु उद्योग के विस्तार से रोजगार सृजन और आर्थिक विकास स्वाभाविक परिणति है।

लेकिन बात इतनी सरल है नहीं। श्रीनगर और दिल्ली के राजनेताओं ने अपने तरकश से तीर निकालने शुरू कर दिये है। छोटे-छोटे इलाकों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं को उभार कर उन्हें आपस में लड़ाने और बिल्लियों की लड़ाई में बंदर वाला हिस्सा अपने पास रखने के आदी राजनेता किसी भी हाल में संसाधनों पर अपना अधिकार कम नहीं होने देना चाहते। खासतौर से कश्मीर की राजनीति का पिछले पचास सालों का यही इतिहास रहा है। यही कारण है कि जम्मू और लद्दाख के इलाके कश्मीर के राजनैतिक नियंत्रण से आजाद होने के लिये समय-समय पर आंदोलन करते रहे हैं।

लद्दाख को नया डिवीजन बनाये जाने की घोषणा के साथ ही कश्मीर के स्थानीय राजनैतिक दलों ने जहां ठंडी प्रतिक्रिया दी वहीं करगिल को लेह के खिलाफ खड़ा करने की कोशिशें भी शुरू कर दीं। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी, दोनों ही जम्मू के भी टुकड़े कर पीर पंजाल और चिनाब वैली को नया डिवीजन बनाये जाने की बातें करने लगे। उमर अब्दुल्ला ने तो अपनी सरकार बनने पर इन्हें नया डिवीजन बनाने की घोषणा भी कर दी।

लद्दाख को पिछड़ेपन के कारण कश्मीर से अलग करने के तर्क को ही आगे बढ़ाते हुए सभी स्थानीय राजनैतिक दलों ने पुंछ-राजौरी और रामबन, डोडा और किश्तवाड़ को भी पिछड़ेपन के आधार पर अलग डिवीजन बनाने की मांग उठा दी है। लेकिन इस मांग से इतर, राज्य के समग्र विकास और सीमान्त क्षेत्र में रह कर भारत की प्रथम सुरक्षा पंक्ति के रूप में इन क्षेत्र के निवासियों को संबोधित किये जाने की जरूरत है जो केवल डिवीजन की घोषणा मात्र से पूरी होने वाली नहीं है। 

हमारे प्रशासनिक ढ़ांचे की भी यह समस्या है। उनकी धारणाएं आज भी चार-पाँच दशक पुरानी समझ और नारों से प्रभावित होती है। वे आज भी इस क्षेत्र के लिये कोई योजना तैयार करते समय इसे नियंत्रण रेखा के पार से आने वाली चुनौतियों से निपटने की कोशिश मानते हैं। इसे बदलना होगा। सीमान्त क्षेत्र में की जाने वाली विकास योजनाओं की पहल अपने उन नागरिकों के लिये है जो चीनी सैनिकों की धमकी और पाकिस्तानी घुसपैठ अथवा संघर्षविराम के उल्लंघन का आये-दिन सामना करते हैं।

खबरों से दूर, नजरों से दूर, लेह और करगिल भारत के वे सीमान्त क्षेत्र हैं जो नियंत्रण रेखा के दोनों ओर अपनों से कट कर रह रहे हैं। दुर्भाग्य से जम्मू कश्मीर राज्य का प्रशासनिक हिस्सा होने, उसमें भी प्रशासनिक तौर पर कश्मीर डिवीजन का अंग होने के कारण कश्मीरी राजनीति के सबसे बड़े पीड़ित लद्दाखवासी ही रहे हैं। वर्ष में छः माह दुनिया से कटे रहने और अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं के लिये भी कश्मीर पर आश्रित रहने के बावजूद अपनी कम जनसंख्या के कारण वे कभी भी वोटबैंक की राजनीति में निर्णायक नहीं हो सके। 

परिणामस्वरूप, सत्तर साल बाद उनके हिस्से में एक विश्वविद्यालय अथवा विकास की कुछ योजनाएं आने पर इसको स्वीकार करने के बजाय राज्य की राजनीति करगिल और लेह को लड़ा कर बंदरबाँट का खेल खेल रही है।   

केन्द्र सरकार का यह कदम देर से उठाया गया एक सही कदम है जिसे देश का समर्थन मिलना चाहिये। भारत की संस्कृति की आधार भूमि इस सिंधु घाटी में रहने वाले लोग भारत के हैं, अपने हैं। भारत के नागरिक के रूप में देश के प्रत्येक नागरिक को जो सुविधाएं पहुंचाने का प्रयास आज हो रहा है, लेह और करगिल के निवासी भी उसके बराबर के हकदार हैं और उनके लिये यदि सरकार कुछ करने की सोच रही है तो इसे पिछली भूलों का पश्चाताप ही माना जाना चाहिये।    

आशुतोष भटनागर 
(लेखक जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र, नयी दिल्ली के निदेशक हैं)

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