दिग्विजय और साध्वी प्रज्ञा की चुनावी टक्कर के मायने क्या हैं

By Avdhesh KumarFirst Published Apr 19, 2019, 3:04 PM IST
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साध्वी प्रज्ञा ठाकुर 2009 से धीरे-धीरे हिन्दुत्व के कारण सरकारी उत्पीड़न का शिकार होने वाली तथा तमाम विकट परिस्थितियां उत्पन्न किए जाने के बावजूद नहीं डिगने वाली व्यक्तित्व के रुप में उभरी हैं। जब उन्हें जमानत मिली तो उनको रीसीव करने वाले तथा भोपाल में इलाज के दौरान उनसे मिलने आने वालों की संख्या से पता चलता था कि उनकी लोकप्रियता कितनी बढ़ चुकी है। 
 

नई दिल्ली: भोपाल लोकसभा क्षेत्र पूरे देश के लिए आकर्षण का केन्द्र हो गया है। इसके बाद आम चुनाव में वाराणसी और बेगूसराय की तरह और कुछ मायनों में ज्यादा भी चर्चा होगी तो वह है भोपाल। वास्तव में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भाजपा द्वारा उम्मीदवार बनाया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। कांग्रेस की ओर से दिग्विजय सिंह को उम्मीदवार बनाए जाने के बाद से ही भाजपा वहां एक उपयुक्त उम्मीदवार की तलाश में थी। वहां से यदि भाजपा का कोई बड़ा  नेता भी लड़ता तो वह एक सामान्य चुनाव बनकर रह जाता। 

दिग्विजय कांग्रेस में होते हुए भी एक विचारधारा के प्रतीक हैं। वह विचार है, भाजपा सहित पूरे संघ परिवार और हिन्दू संगठनों को समाज, देश और राजनीति के लिए विघातक साबित करते हुए स्वयं को सेक्यूलरवाद का सबसे बड़ा पुरोधा साबित करना। जाहिर है, भाजपा के लिए भोपाल एक सामान्य चुनाव का मामला नहीं, अपनी विचारधारा पर सबसे ज्यादा हमला करने वाले के खिलाफ लड़ने का मामला है। पूरे संघ परिवार का एक-एक कार्यकर्ता दिग्विजय सिंह को पराजित होते हुए देखना चाहता है। इसमें भाजपा की दृष्टि से साध्वी प्रज्ञा सबसे उपयुक्त उम्मीदवार हैं। 

देश में हिन्दू आतंकवाद, भगवा आतंकवाद और हंगामा होने पर बाद में संघी आतंकवाद शब्द सबसे पहले दिग्विजय सिंह ने ही प्रयोग किया।  उन्होंने इसे एक अभियान का रुप दिया जिसके कारण मालेगांव द्वितीय विस्फोट, समझौता, हैदराबाद मक्का मस्जिद तथा अजमेर दरगाह विस्फोट मामले की जांच की धारा बदल गई। साध्वी प्रज्ञा उसी की शिकार हुईं। 

तो साध्वी प्रज्ञा दिग्विजय सिंह के बिल्कुल विपरीत विचारधारा का प्रतीक हैं। साध्वी प्रज्ञा सहित और अन्य लोगों पर आतंकवाद का आरोप लगाए जाने तथा उनके साथ पुलिस के व्यवहार के खिलाफ देश में जो आक्रोश पैदा हुआ था उसका असर 2014 के आम चुनाव पर व्यापक रुप से पड़ा। 1999 के बाद पहली बार पूरा संघ परिवार तथा अन्य हिन्दू संगठन चुनाव में सक्रिय हुआ था। वह हिन्दू आतंकवाद, भगवा आतंकवाद तथा संघी आतंकवाद के आरोपों तथा इस आधार पर यूपीए सरकार द्वारा की जा रही कार्रवाइयों तथा साध्वी प्रज्ञा सहित अन्य आरोपियों के उत्पीड़न का प्रत्युत्तर देना चाहता था। 

साध्वी प्रज्ञा के प्रति सबसे ज्यादा सहानुभूति तो हिन्दुत्व विचार के समर्थकों में रही ही है, यूपीए, कांग्रेस एवं सरकारी एजेंसियों के खिलाफ सबसे ज्यादा गुस्सा का कारण भी उनकी दशा ही बनी थी। पहले महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ता तथा बाद में एनआईए द्वारा प्रज्ञा ठाकुर के साथ जिस तरह के अत्याचार किए गए, उनके शरीर के एक-एक अंग को बर्बाद किया गया उसे देखकर किसी का दिल दहल जाता था। वह  सब केवल इसलिए किया गया ताकि वो स्वीकार कर लें कि हिन्दू संगठनों के अंदर आतंकवादी वारदात का ढांचा मौजूद है एवं उपरोक्त चारों हमले उन्होंने ही किए हैं। भले शासन में पी. चिदम्बरम, सुशील कुमार शिंदे गृहमंत्री के रुप में इसके लिए जिम्मेवार थे, लेकिन इसके सबसे बड़े झंडाबरदार दिग्विजय सिंह थे। 

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर 2009 से धीरे-धीरे हिन्दुत्व के कारण सरकारी उत्पीड़न का शिकार होने वाली तथा तमाम विकट परिस्थितियां उत्पन्न किए जाने के बावजूद नहीं डिगने वाली व्यक्तित्व के रुप में उभरी हैं। जब उन्हें जमानत मिली तो उनको रीसीव करने वाले तथा भोपाल में इलाज के दौरान उनसे मिलने आने वालों की संख्या से पता चलता था कि उनकी लोकप्रियता कितनी बढ़ चुकी है। 

इस तरह जो हिन्दुत्व समर्थक हैं उनके लिए प्रज्ञा एक बड़ी आइकॉन हैं तो दिग्विजय सिंह उसके विरोध में किसी सीमा तक जाने वाले व्यक्तित्व। इस तरह भाजपा ने प्रज्ञा को उम्मीदवार बनाकर बहुत बड़ा संदेश दिया है। यह चुनाव पहले से ही दो विचारधाराओं के बीच तीखे विभाजन का चुनाव हो चुका है। भाजपा और कांग्रेस के घोषणा पत्रों में यह विभाजन साफ दिखता है। साध्वी प्रज्ञा के उम्मीदवार बनने के बाद विचारधारा के इस विभाजन को भाजपा ने ज्यादा मुखर करने की रणनीति अपनाई है। विरोधी साध्वी प्रज्ञा को आतंकवादी कहने लगे हैं। इसकी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है। 

हम उन पर दायर मुकदमों के विस्तार में यहां नहीं जा सकते। लेकिन एक दो वर्ष पहले बेच दिए गए मोटरसाइकिल को रमजान के दौरान मालेगांव के अंजुमन चौक और भीखू चौक पर 29 सितंबर 2008 को सिलसिलेवार बम धमाके के लिए जिम्मेवार ठहराकर गिरफ्तार करना किसी निष्पक्ष व्यक्ति के गले नहीं उतरता। उसमें छह लोगों की मौत हुई और 101 लोग घायल हुए थे। उस मोटरसाइकिल को खरीदने वाले सुनील जोशी की हत्या हो गई। इसका आरोप भी साध्वी पर लगा। न्यायालय ने उनको बरी कर दिया। 

अजमेर विस्फोट में साध्वी की भूमिका बिल्कुल नहीं आई। 
समझौता विस्फोट में भी उसकी संलिप्तता साबित नहीं हो सकी। 
हैदराबाद की जामा मस्जिद विस्फोट का फैसला आ चुका है जिससे हिन्दू आतंकवाद का गढ़ा गया पूरा सिद्धांत ध्वस्त हो गया। 

यहां तक कि एनआईए ने अपनी जांच के बाद 13 मई 2016 को अपने पूरक आरोप पत्र में माना कि न तो इसमें मकोका लगाने का कोई आधार है और न साध्वी प्रज्ञा ठाकुर सहित 6 लोगों के खिलाफ मुकदमा चलने लायक सबूत ही है। यह बात अलग है कि न्यायालय ने इसे स्वीकार करने की जगह मामला जारी रखा है। इस मामले के ज्यादातर गवाहों ने यूपीए सरकार जाने के बाद दिए गए दोबारा गवाही में स्वीकार किया उन पर दबाव डालकर बयान दिलवाया गया। 

इतना स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं है कि साध्वी प्रज्ञा को हिन्दू संगठनों को आतंकवाद का दोषी ठहराकर प्रतिबंधित करने की योजना का शिकार बनाया गया। 

वस्तुतः साध्वी प्रज्ञा के उम्मीदवार बनने का संदेश केवल भोपाल एवं मध्यप्रदेश के साथ पूरे देश में जाएगा। साध्वी ने अपने पहले वक्तव्य में कहा है कि यह धर्मयुद्ध है। उन्होंने दिग्विजय सिंह को अधर्मी और धर्म विरोधी करार देते हुए कहा कि उनकी पराजय अधर्म की पराजय होगी। 

हम आप भले अधर्मी जैसे विशेषण से सहमत नहीं हो, लेकिन आप यदि संघ परिवार ही नहीं, हिन्दुत्व विचारधारा को मानने वाले संगठनों के लोगों से बात करें तो दिग्विजय सिंह के बारे में वे ऐसे ही शब्द का प्रयोग करते हैं। जाहिर है, पूरे देश से भारी संख्या में लोग भोपाल पहुंचेगे। धरातल पर नजर रखने वाले इसका असर महसूस कर सकते हैं। 

इस चुनाव में हिन्दुत्व आधारित जो भी संगठन, नेता या कार्यकर्ता किसी कारण निष्क्रिय होंगे वे भी सक्रिय हो जाएंगे। भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा को उम्मीदवार बनाकर एक व्यापक वर्ग को चुनाव में अपने पक्ष मंे सक्रिय होने की प्रेरणा दे दी है। हिन्दुत्व इस चुनाव की अंतर्धारा में मुद्दा है। साध्वी प्रज्ञा के उम्मीदवार बनने से उसे धार मिली है। इसका असर चुनाव पर होगा। इसके पक्ष और विपक्ष दोनों में मतदाता आलोड़ित होकर मत डालने आएंगे। साध्वी प्रज्ञा अपने आक्रामक भाषणों के लिए जानी जातीं हैं। जैसे-जैसे उनका भाषण सामने आएगा चुनाव का तामपान गरम होगा। 


यह देखना होगा कि दिग्विजय सिंह इसका जवाब कैसे देते हैं। वे एक अनुभवी नेता हैं। मध्यप्रदेश के 10 वर्ष मुख्यमंत्री रह चुके हैं। 2003 के बाद पहली बार वे चुनावी राजनीति में उतरे हैं। उनको पता है कि अगर इस समय उन्होंने प्रज्ञा ठाकुर को हिन्दू-भगवा या संघी आतंकवादी कहा तो फिर मतदाताओं का बड़ा वर्ग केवल भोपाल नहीं देश भर में नाराज होकर भाजपा के पाले में जा सकता है। इस तरह उनके सामने कठिन स्थिति पैदा हो गई है। उन्होंने अपने पूर्व तेवर के विपरीत आरंभिक बयान अत्यंत सधा हुआ दिया। उन्होंने कहा कि भोपाल में उनका स्वागत है। फिर उन्होंने भोपाज की रमणीक और सहनशील संस्कृति का हवाला देते हुए नर्मदा मैया से उनके लिए कामना भी की। 

लेकिन इतने मात्र से अंतर नहीं जाएगा। वैसे भी भोपाल से 1984 के बाद कांग्रेस कभी जीती नहीं है। 1989 से 2014 तक भाजपा ही यहां से विजीत होती रहीं है। पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में भोपाल लोकसभा सीट के तहत आने वाली आठ विधानसभा सीटों में से पांच पर भाजपा को जीत मिली है। कांग्रेस तीन सीट जीतने में सफल रही। आठ विधानसभा सीटों में भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले 63 हजार वोट अधिक मिले हैं। इसके आधार पर साध्वी प्रज्ञा के लिए रास्ता ज्यादा कठिन भी नहीं दिखता। 

हालांकि हम यहां परिणामों का पूर्व आकलन नहीं कर सकते। किंतु भोपाल से साध्वी प्रज्ञा बनाम दिग्विजय सिंह की लड़ाई के मायने काफी गंभीर हैं। साध्वी के उम्मीदवार बनाने भर से देश भर के हिन्दू संगठनों तथा उनके समर्थकों में नए सिरे से जैसा उत्सास पैदा हुआ है उसके आलोक में केवल कल्पना की जा सकती है कि अगर वो विजीत हो गईं तो माहौल कैसा होगा। यह आने वाली राजनीति को प्रभावित करने वाला चुनाव परिणाम होगा। 

हां, अगर विजय नहीं मिली तो अलग बात होगी। पर केवल उम्मीदवार बनाने मात्र से जो स्थितियां पैदा होतीं दिख रहीं हैं उनका असर इस चुनाव पर होना निश्चित है। मध्यप्रदेश में तो मतदाता आलोड़ित होने लगे हैं, देश के अनके क्षेत्रों में भी यही स्थिति पैदा होगी। 

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं।)
 

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