सियासत के बाहुबली: सीवान लोकसभा सीट पर कौन पड़ेगा किस पर भारी

By Rajan Prakash  |  First Published Apr 16, 2019, 3:01 PM IST

लोकसभा चुनाव 2019 की गहमागहमी जोरों पर है. ऐसे में माय नेशन आपके लिए लेकर आया है सियासत के बाहुबली सीरिज. जिसमें आज हम बात करेंगे बिहार की सीवान लोकसभा सीट की. यहां पर इस बार सीधी लड़ाई दो महिलाओं के बीच होने वाली है, संयोग से दोनों के पतियों को चुनाव लड़ने के अयोग्य पाया गया है. लेकिन यह भी सच है कि ये दोनों मोहरा भर हैं. असली चुनावी जंग तो इनके पतियों के बीच लड़ी जाती रही है. सीवान में फिर से दो बाहुबलियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई के लिए मैदान सज चुका है.

“पत्रकार जी लोहवे न लोहवा को काटता है, जहरे न जहर को मारता है.” वैसे भोजपुरी में कहावतें बातों में तड़का लगाती हैं इसलिए ठेठ भोजपुरियों के पास लच्छेदार कहावतों और मुहावरों का अपना कोष रहता ही है. न मैंने यह कहावत पहली बार सुनी थी और न ही इसे भोजपुरी का एक्सक्लूसिव कहा जा सकता है, फिर भी हाजीपुर से छपरा की ट्रेन यात्रा में एक अधेड़ उम्र व्यक्ति की कही बात, करीब डेढ़ दशक बाद यहां दोहरा रहा हूं क्योंकि वह टिप्पणी बिहार में बाहुबलियों के वर्चस्व और बाहुबलियों को बार-बार मिलने वाले मौके की वजहों का सारांश रख देती है. 

इन डेढ़ दशकों में बिहार की गंगा, कोसी, घाघरा, सोन और तमाम दूसरी नदियों में बहुत पानी बह चुका, प्रदेश में बहुत कुछ बदल चुका, बिहार बीमारू राज्य के टैग से आगे भी निकला पर एक चीज यथावत कायम है- बाहुबलियों का वर्चस्व. चाहे वे तथाकथित ‘विकास पुरुष’ हों या फिर विरोधियों द्वारा ‘जंगलराज के सूत्रधार’ होने का कलंक पाने वाले, बाहुबली सबको एक जैसे प्यारे हैं. 
 
अपनी कहानी उसी सीवान से शुरू करता हूं जहां की ट्रेन यात्रा से बात शुरू हुई है. बिहार में, और खासकर सीवान में, बाहुबलियों की हनक को समझने के लिए अतीत और वर्तमान दोनों के बीच तारतम्य बनाए रखना होगा तभी उसके भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है. 

वर्तमान से शुरू करते हैं. सीवान लोकसभा सीट पर इस बार सीधी लड़ाई दो महिलाओं के बीच होने वाली है, संयोग से दोनों के पतियों को चुनाव लड़ने के अयोग्य पाया गया है. ये दोनों महिलाएं बेशक सियासी मैदान में पहली बार नहीं उतरी हैं लेकिन यह भी सच है कि ये दोनों मोहरा भर हैं. असली चुनावी जंग तो इनके पतियों के बीच लड़ी जाती रही है. सीवान में फिर से दो बाहुबलियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई के लिए मैदान सज चुका है. 

लालू यादव के करीबी और सीवान से तीन बार के सांसद डॉन शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब के सामने होंगी हत्या, अपहरण और फिरौती जैसे 30 संगीन मामलों के आरोपी बाहुबली अजय सिंह की धर्मपत्नी और दरौंदा विधायक कविता सिंह. ये दोनों महिलाएं घरेलू महिलाएं ही थीं पर हालात ने इन्हें राजनीति के मैदान में उतार दिया. दोनों को अपने-अपने पतियों के वर्चस्व की विरासत संभालने के लिए कूदना पड़ा है.   
         
स्नातक की पढ़ाई के दौरान अपने कॉलेज में बुरका पहनकर जाने वाली एकमात्र युवती हिना की शादी कॉलेज से निकलते ही शहाबुद्दीन से हुई. स्वभाव से बहुत शर्मीली दो बेटियों और एक बेटे की इस मां को 2009 में लोकसभा चुनाव में तब उतरना पड़ा जब उनके सजायाफ्ता पति को चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया गया. शहाबुद्दीन जेल में थे और सीवान में उनका खौफ घटना शुरू हुआ था. 

हिना को उनके पहले चुनाव में शिकस्त दी एक निर्दलीय ओम प्रकाश यादव ने जिन्हें शहाबुद्दीन ने कभी सरेआम बांधकर पीटा था. 2014 के चुनाव में भी जनता ने ओम प्रकाश यादव को ही चुना. ऐसा लगा कि शायद अब सीवान में बाहुबलियों का राज बीते दौर की बात हो चुकी है. भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की धरती का संसद में प्रतिनिधित्व अब साफ-सुथरी छवि वाले ही करेंगे लेकिन 2019 ने फिर से बाजी बाहुबलियों के बीच ही सजा दी है. ऊंट चाहे जिस करवट बैठे, सीवान का प्रतिनिधित्व बाहुबल ही करेगा. 

एनडीए में सीटों का बंटवारा हुआ तो सीवान जदयू के खाते में चला गया. और जदयू के खाते में सीट जाने के बाद यह लगभग तय हो गया था कि यहां से नीतीश कुमार अपने चहेते उसी अजय सिंह को सीवान फतह की जिम्मेदारी देंगे जिन्हें नीतीश ने पिछले दरवाजे से अपनी दबंगई की धमक बनाए रखने का हिट फॉर्मूला दिया था. इस हिट फॉर्मूले की एक बड़ी मजेदार कहानी है. 

बाहुबली अजय सिंह की मां जगमातो देवी सीवान लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले दरौंदा से जेडीयू विधायक थीं. 2011 में जगमातो देवी का निधन होने से सीट खाली हो गई. अजय सिंह ने सीट पर दावेदारी की लेकिन नीतीश ‘सुशासन बाबू’ की अपनी छवि बना रहे थे. लिहाजा उन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले अजय सिंह को टिकट तो नहीं दिया पर एक जुगाड़ू फॉर्मूला पकड़ा दिया- उपचुनाव से पहले शादी कर लो. 


अजय सिंह क्षेत्र में लौटकर आए और अपने शुभचिंतकों को बताया- बिहार के राजा ने कहा है कि शादी कर लो तो दरौंदा का टिकट देंगे. बिहार के राजा ने शादी का फॉर्मूला ही दिया था पर अपने लिए पत्नी तो अजय सिंह को खुद ढूंढनी थी. बाहुबली ने पत्नी की तलाश में बहुत हाथ पांव मारे पर बात नहीं बनी. समय निकला जा रहा था क्योंकि उपचुनाव की तारीख नजदीक आ रही थी और बाहुबली बीमारी का बहाना बनाकर जमानत पर बाहर था. पर इलाके का कोई राजपूत परिवार एक ऐसे आदमी को अपनी बेटी देने को तैयार न था जिसके ऊपर अपराध के इतने मामले दर्ज हों और जिसकी शहाबुद्दीन से सीधी अदावत हो. 

आवश्यकता है एक वधू की जिसकी उम्र 25 साल के कम न हो, जिसका नाम वोटर लिस्ट में हो, जिसके पास वोटर कार्ड हो, जो पढ़ी लिखी हो और लड़की तुरंत शादी करने को तैयार हो. यदि कन्या राजनीतिक पृष्ठभूमि से हो तो वरीयता दी जाएगी. अखबारों में अजय सिंह ने शादी का इश्तेहार कुछ ऐसा ही छपवाया था. कई कारणों से शादी का यह इश्तेहार भारत के इतिहास में अपनी तरह का अनूठा इश्तेहार था जिसमें कन्या के लिए सुंदर, सुशील, गृहकार्यदक्ष, दहेज आदि की बातें नहीं बल्कि 25 साल की उम्र और वोटर कार्ड का जिक्र था. 

16 लड़कियों ने विज्ञापन देखकर पत्राचार किया. सभी का छपरा के एक होटल में इंटरव्यू हुआ और सोलह में से दो के नाम शॉर्ट लिस्ट हुए. अंततः कविता सिंह का चयन हुआ जिनकी मां ग्राम प्रधान थीं. कविता उस समय जेपी विश्वविद्यालय में एम.ए. की छात्रा थीं, जबकि अजय सिंह सिर्फ आठवीं पास. चट मंगनी पट ब्याह से भी ज्यादा तेजी इस शादी में दिखाई गई. 


एहतियात बरता गया कि किसी को कानों-कान खबर न हो क्योंकि जाने कौन कब शादी में अडंगा डाल दे. अजय उस समय मेडिकल ग्राउंड पर जमानत पर जेल से बाहर आए थे. बड़े सादे तरीके से सीवान के महेंद्र नाथ मंदिर में दोनों की शादी हुई और यह विवाह हुआ पितृपक्ष में. पितृपक्ष जिसमें बिहार में लोग नए कपड़े तक नहीं लाते, अजय सिंह जीवनसंगिनी लेकर आए थे. 

शादी के तुरंत बाद अजय सिंह पत्नी के साथ पटना रवाना हो गए और सीधे मुख्यमंत्री आवास पहुंचे. अजय सिंह ने ‘बिहार के राजा’ के निर्देशों का अक्षरशः पालन किया और राजा ने मुंह दिखाई के तौर पर कविता सिंह को दरौंदा का टिकट थमाया. कविता सिंह ने टिकट मिलने के बाद मीडिया से कहा- “वह अपनी सास जगमातो देवी का सपना पूरा करेंगी.” अब सपना क्या था न तो कविता ने बताया, न ही जनता ने पूछा. कविता सिंह वह उपचुनाव जीत गईं. जिस तरह एक कॉलेज जाने वाली युवती अचानक विधायक बन गई.

 अजय सिंह की मां जगमातो देवी का राजनीतिक करियर भी कुछ ऐसे ही नाटकीय अंदाज में शुरू हुआ था. जगमातो देवी एक घरेलू महिला थीं. पति मल्लेश्वर सिंह राजनीति में रूचि रखते और बेटा अजय बाहुबली बनने के ख्वाब देखता था. जीवन चल रहा था कि एक दिन राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में मलेश्वर सिंह की हत्या हो गई. तब तक बेटा अजय भी बाहुबली बन चुका था. उसे राजनीतिक शह की सख्त दरकार थी. 

2005 में विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई. जगमातो देवी रघुनाथपुर सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर उतरीं. मुकाबला हुआ हिस्ट्रीशीटर अयूब खान के पिता कमरुद्दीन खान से. बिहार के अति संवेदनशील निर्वाचन क्षेत्रों में शामिल इस सीट से बाहुबली अजय सिंह की मां जगमातो देवी चुनाव जीत गईं. बहुबली अजय सिंह को जिस राजनीतिक संरक्षण की जरूरत थी, उसकी ओर उसने कदम बढ़ा दिया था. अजय सिंह की बाहुबली बनने की कहानी भी बड़ी फिल्मी है.

अजय कभी शहाबुद्दीन का खासमखास गुर्गा हुआ करता था. 2002 में उसने चैनपुर के थाना प्रभारी बी.के. यादव की हत्या कर दी. सर पर शहाबुद्दीन का हाथ होने से, लालू-राबड़ी राज में एक यादव अफसर की हत्या करके भी अजय सिंह का बाल बांका न हुआ. उसके बाद अजय सिंह ने एक राजद कार्यकर्ता बबलू यादव की हत्या कर दी तो माहौल गरमा गया. 

कहते हैं शहाबुद्दीन ने अजय की बहुत क्लास लगाई थी यहां तक कि गुस्से में उस पर पिस्टल तक तान दिया था. यहीं से दोनों के बीच दुश्मनी के बीज पड़ गए. अजय को अब किसी बाहुबली के लिए काम नहीं करना था. उसे अब अपना अलग गैंग बनाना था, खुद बाहुबली कहलाना था. अजय की बढ़ती महत्वाकांक्षा से शहाबुद्दीन कैंप नाराज हो गया. शहाबुद्दीन के शार्प शूटर रियाजुद्दीन ने अजय सिंह को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी ली और उसकी हत्या की नीयत से अजय के इलाके में पहुंचा. लेकिन उल्टा अजय ने ही रियाजुद्दीन की हत्या कर दी. उसके बाद बाद शहाबुद्दीन के एक और करीबी की हत्या करके अजय सिंह ने बाहुबली का टैग ले लिया. 


अजय सिंह का एक सपना पूरा हुआ था. अब एक किसी बाहुबली का गुर्गा नहीं, स्वतंत्र बाहुबली था. सीवान से सटे गोरखपुर के सांसद महंत योगी आदित्यनाथ हिंदू युवा वाहिनी नामक संगठन के तहत जोशीले हिंदुओं को इकट्ठा कर रहे थे. योगी को अजय सिंह में वह सारी प्रतिभा दिखी जिसकी उन्हें तलाश थी. अजय सिंह हिंदू युवा वाहिनी का प्रदेश अध्यक्ष भी बना.   

वैसे रघुनाथपुर विधानसभा क्षेत्र में 1977 से ही जीता वही है जिसके पास ताकत रही है. यहां की सियासत विजय शंकर दूबे और विक्रम कुंवर के बीच सिमट गई थी लेकिन उस वर्चस्व को तोड़ा अजय सिंह ने, अपनी मां को चुनाव जीताकर. परिसीमन के बाद रघुनाथपुर का नाम बदलकर दरौंदा हो गया. 


अजय को अपनी पीठ पर किसी बड़े नेता का हाथ चाहिए था और जदयू को जिताऊ उम्मीदवार. जगमातो देवी जदयू में शामिल हुईं और 2010 में दरौंदा से जदयू की विधायक बनीं. लेकिन एक साल बाद उनका निधन हो गया. दरौंदा में 2011 में उपचुनाव हुए और उनकी बहू कविता सिंह अपनी ‘सास का सपना’ साकार करने विधानसभा पहुंची. 2017 में कविता सिंह दोबारा विधायक बनीं और अब लोकसभा पहुंचने की तैयारी कर रही हैं.

 
कविता अपनी सास का सपना पूरा करने पटना से दिल्ली पहुंचती हैं या फिर हिना शहाब, जिन्हें लगता है कि उनके ‘रॉबिनहुड’ पति को ‘फंसाया’ गया है, पर एक बात तो शीशे की तरह साफ है कि राजनीति के इस हमाम में सब एक जैसे हैं. चाहे जिनपर ‘जंगलराज’ लाने का तंज कसा जाता हो या फिर वह तंज कसने वाले तथाकथित ‘सुशासन’ के हिमायती. 

पिछले 35-40 सालों में बिहार की राजनीति बाहुबल के शिकंजे से निकल ही नहीं पा रही है या इसे निकलने ही नहीं दिया जा रहा. बिहार की 40 में से 10 सीटों पर बाहुबली सीधे-सीधे या पर्दे के पीछे से मुख्य भूमिका में रहेंगे, हार-जीत का फैसला करेंगे. 

आगे बात करेंगे एक ऐसे बाहुबली की जिन्हें छोटे सरकार कहा जाता है. दियारा क्षेत्र में छोटे सरकार तो छोटे सरकार, उनके घोड़े और गाड़ियों की भी दंबगई चलती है, जनता उन्हें आगे चलने का रास्ता देती है. उनके या उनके खासमखासों के टमटम से लेकर ट्रेकर्स, जीप, बस तक सभी चलते हैं. जो छोटे सरकार के साथ है वह भी छोटे सरकार है और उसे सड़क पर कोई ओवरटेक नहीं कर सकता. 

पढ़ते रहिए सियासत के बाहुबली सीरिज, सिर्फ माय नेशन पर. 


राजन प्रकाश
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)

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