नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा संसदीय दल का नेता चुने जाने तथा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन नेताओं द्वारा इसका समर्थन करने के बाद संसद के केन्द्रीय कक्ष से दिए गए अपने लंबे संबोधन में कहा कि जनता जनार्दन है और हमारे बड़े-बुजुर्गों की तपस्या के कारण उसकी सेवा का हमें अवसर मिला है। ईश्वर हम सबको शक्ति दे कि उसकी सेवा कर सकें। राजनीति और सत्ता की प्रणाली जो भी हो उसका मूल तत्व यही है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीति अत्यंत श्रेष्ठ कर्म है, इसमें आपको हर क्षण लोगों की सेवा का अवसर मिलता है। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो राजनीति को सत्ता, शक्ति और संपत्ति का साधन मानते हैं। 

मोदी के हम समर्थक हों या विरोधी गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक उन्होंने इसके विपरीत आचरण करके तथा अपने साथियों को इसके लिए प्रेरित करते हुए और लगातार उनकी गतिविधियों पर नजर रखते हुए, समय-समय सचेत करते हुए इस चरित्र को नियंत्रित रखा तथा सेवा भाव की धारा को सशक्त किया है। 

संसद के केन्द्रीय कक्ष का लंबा इतिहास है। हमारे अनेक महापुरुषों ने यहां से ऐतिहासिक भाषण दिए हैं। किंतु पिछले कई दशक के बाद देश को 25 मई को इतने गहरे आत्मबोध तथा सरकार, जनप्रतिनिधियों से लेकर आम जनता को प्रेरित करने वाला और देश का आत्मविश्वास पैदा करने वाला संतुलित व समन्वयकारी उद्बोधन सुनने को मिला है। 

23 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद से मोदी के कुल तीन भाषण हुए है। पहला, भाजपा कार्यालय में, दूसरा, प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों-कर्मचारियों के बीच तथा तीसरा संसद के केन्द्रीय कक्ष में। इन तीनों भाषणों को मिलाकर देखिए तो सभी एक दूसरे के पूरक एवं एक ही दिशा में भारत को दुनिया का महानतम देश बनाने तथा उसके लिए सम्पूर्ण देश को प्राणपण से काम करने की प्रेरणा देनेवाला है। 

मोदी सत्ताधारी भाजपा एवं राजग के नेता तथा देश के प्रधानमंत्री हैं। इसलिए उनके एक-एक शब्द मायने रखते हैं। उनकी बातें पार्टी के साथ उनके करोड़ों समर्थकों के लिए तो व्यवहार सूत्र की तरह हैं ही, विरोधियों के लिए अपनी सोच और व्यवहार में परिवर्तन के लिए विचार की अभिप्रेरणा देने वाला है। उदाहरण के लिए पार्टी मुख्यालय से देश और दुनिया को संबोधित करते हए उन्होंने कहा कि चुनाव के दौरान मुझे जो कुछ कहा गया वो सब मैं भूल गया, चुनाव में विजय बहुमत से मिलता है लेकिन सरकार सर्वमत से चलती है। कोई हमारा घोर विरोधी हो उसके साथ भी हमें मिलकर काम करना है। पूरी नम्रता के साथ लोकतंत्र की जो भावना है उसे अनुसार संविधान को संर्वोच्च मानकर काम करना है। 

ध्यान रखिए, संसद के केन्द्रीय कक्ष में भी अपना भाषण आरंभ करने के पहले उन्हें संविधान के समक्ष माथा टेका। यह बात दूसरे शब्दों में उन्होंने केन्द्रीय कक्ष में भी कही। 

नरेन्द्र मोदी को लेकर भारतीय राजनीति में जितना तीखा विभाजन रहा है उसमें सर्वमत की बातें अव्यावहारिक लगती हैं। किंतु इसे अगर मोदी अपनी सरकार के कार्यव्यवहार का मूलाधार बनाते हैं तो यह दूरगामी दृष्टि से भारत के हित में है। आपसी विभाजन के कारण देश के लिए अनेक अवसरों पर कठोर निर्णय करना कठिन हो जाता है तथा निर्णय करने पर राजनीतिक नजरिए से अनावश्यक निंदा और विरोध किया जाता है। 

मोदी ने जितना संतुलित, सधा हुआ और समन्वयकारी वक्तव्य दिया उससे उम्मीद बंधती है कि उनका यह कार्यकाल पहले से भी बेहतर होगा। सबका साथ सबका विकास के पूर्व नारे में उन्होंने सबका विश्वास जोड़ा था जिसकी केन्द्रीय कक्ष में उन्होंने व्याख्या करके बता दिया कि हमें उन समूहों का भी विश्वास जीतना है जिन्हें अभी तक हमारे खिलाफ डर पैदा करके अलग रखा गया था। 

छः वर्ष पहले लालकृष्ण आडवाणी ने यही बातें कही थी। किंतु आज सत्ता में होने के कारण और प्रधानमंत्री के द्वारा बोले जाने से इसका महत्व बढ़ गया है। यह भारत के अल्पसंख्यकों के संदर्भ में था। उन्होंने यह भी कहा कि देश ने इतना ज्यादा भरोसा दिया है तो उसके साथ जिम्मेवारियां भी बढ़तीं हैं। अपने लिए उन्होंने एक ही कसौटी बनाई कि मेरे समय का क्षण-क्षण तथा शरीर का कण-कण देश को समर्पित होगा, मैं अपने लिए कुछ नहीं करुंगा। मेरे से गलती हो सकती है लेकिन बदइरादे और बदनियति से कोई काम नहीं करुंगा। देश के लोगों को कहा कि आप जब भी मेरा मूल्यांकन करना इस कसौटी पर कसना।

यह चुनाव में भारी जन विश्वास प्राप्त करने के बाद देश को दिया हुआ वायदा है कि आपके विश्वास पर हम खरा उतरेंगे। एक नेता, जिसे देश ने मीडिया के एक बडे वर्ग और बुद्धिजीवियों के नफरत के बावजूद इतना ज्यादा बहुमत दिया है, वह इस पड़ाव पर आकर लोगों को ठगने के लिए ये वायदे नहीं कर सकता। नरेन्द्र मोदी के विरोधी भी मानते हैं कि उन्होंने जीवन में अपने या परिवार के लिए कुछ नहीं किया। यही बात केन्द्रीय कक्ष के अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि जब आप काम करते हैं तो कुछ गलतियां भी होतीं हैं लेकिन इसके पीछे नीयत गलत नहीं होगा। अपने दोनों भाषण में उन्होंने देश को समृद्ध करने का लक्ष्य बनाकर सबको काम करने की अपील की। 

यह संयोग है कि इस वर्ष महात्मा गांधी की 150 वीं वार्षिकी हम मना रहे हैं। इसके बाद 2022 में स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ मनाना है तथा इसी में गुरु नानक देव का 550 वीं वार्षिकी है। ये सारे अवसर प्रेरणा के हैं। प्रधानमंत्री इसी को देश को समृद्ध करने की प्रेरणा बनाना चाहते हैं। 

उन्होंने कहा भी कि आजादी के संघर्ष में एक ओर फांसी पर चढ़ने वाले थे तो 1942 से 1947 तक जनांदोलन बन गया। वही जनांदोलन 75 वें वर्ष के साथ होना चाहिए। हर व्यक्ति को लगे कि वो जो कुछ कर रहा है देश के लिए है। अगर यह सामूहिक भावना पैदा हो गई तो भारत के समृद्धि का आंदोलन चल पड़ेगा। सरकार को इसमें सहयोगी भूमिका निभानी है। प्रधानमंत्री कार्यालय के कर्मियों के बीच भी उन्होने इसी तरह की बात की। उन्होंने कहा कि पीएमओ को इफेक्टिव नहीं एफिशिएंट होना चाहिए। यानी ऐसा नहीं कि पीएमओ प्रभावी है उसे कार्यकुशल होना पड़ेगा। सांसदों को संबोधित करते हुए उन्होंने वीआईपी बनने से लेकर छपास और दिखास यानी अखबार में खबर बनने तथा टीवी पर दिखने की लालसा से बचने की कसौटी दी। साथ ही राजधानी में ऐसे लोगों से सावधान रहने की नसीहत भी जो राजधानी दिल्ली में आपके पास सेवादार बनके निकट हो जाएंगे और फिर इसके बाद आपके लिए बरबादी का कारण बनेंगे। 


इस तरह आप देखिए तो पहले भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं, फिर प्रधानमंत्री कार्यायल यानी सरकारी कर्मियों, उसके बाद सांसदों और मंत्रियों के लिए लक्ष्य एवं आचरण के छोटे-छोटे विन्दुओं को रख दिया जो कि किसी देश को बड़े लक्ष्य की ओर ले जाने में सभी अंगों के सामूहिक प्रयासों के लिए अपरिहार्य हैं। इसके साथ आम जनता को भी इस अभियान में जुड़ने के लिए अभिप्रेरित किया। और विपक्ष से साथ आने की अपील तो है ही। अगर इस तरह सभी केवल भारत के बेहतर भविष्य को अपने हर कार्य की कसौटी बना लें तो फिर भटकाव या राजनीतिक-निजी दुश्मनी व घृणा के लिए जगह नहीं बचती। 

प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान ही कहा था कि पिछला पांच वर्ष न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काम किया गया। अगला पांच वर्ष इसे जारी रखते हुए आकांक्षाओं को पूरा करने का वर्ष होगा। भारत जैसे विविधतापूर्व और विशाल भौगोलिक विस्तार तथा भारी आबादी वाले देश की आकांक्षाओं को समझना और उसके अनुरुप काम करना आसान नहीं है। हर क्षेत्र की चाहतें अलग-अलग हैं किंतु मूल बात तो जीवन स्तर उठाना, सत्ता तक आवाज पहुंचाना है। और सबसे बड़ा लक्ष्य है भारत को विश्व का सिरमौर राष्ट्र बनाना। उन सब चाहतों व आकांक्षाओ को समन्वित करते हुए पूरा करने के लिए काम करते हैं तो वह राष्ट्रीय आकांक्षा हो जाता है तथा उसी से भारत के समृद्ध होने की संभावना बलवती होती है। 

प्रधानमंत्री ने जिस तरह चुनाव अभियान को अपने लिए तीर्थयात्रा कहा वह भारतीय अवधारणाओं तथा भारतीय संदर्भों में सच्चे लोकतांत्रिक सत्ता के व्यवहार का आधार है। अगर वे कहते हैं कि जनता जनार्दन है  सुनता था लेकिन इस बार मैंने पूरे देश के चुनाव अभियान में उसका साक्षात दर्शन किया है और इसीलिए यह मेरे लिए तीर्थ यात्रा थी तो इसके अर्थ बड़े गहरे हैं। हर व्यक्ति के अंदर ईश्वर के तत्व का दर्शन। ईश्वर मानकर समाज के निचले तबके के लिए काम करना। 

प्रधानमंत्री ने कहा भी गरीब शब्द एक फैशन हो गया था। हमने उसे केन्द्र बनाकर काम किया और इस बार गरीबों ने हमारी सरकार बनाई है। कहने का मतलब है कि सरकार, संसद पार्टी सबके कार्य का केन्द्रविन्दू गरीब। गरीब की सेवा मतलब ईश्वर की सेवा। इस भाव से काम हो और गरीबों को भी लगे कि यह देश मेरा है और इसे समृद्ध बनाने के लक्ष्य से हमें काम करना है तो फिर भारत का कायाकल्प होने से कोई रोक नहीं सकता। 

हम कामना करेंगे कि प्रधानमंत्री अपने कहे अनुसार लक्ष्यों अपर अडिग रहें तथा सरकार,प्रशासन और राजनीति के लिए यही कसौटी बन जाए। सवाल है कि क्या वो वर्ग, जो मोदी को खलनायक मानने के अपने मानस में बदलाव लाने को तैयार नहीं है वो सबका साथ और सबका विश्वास के वायदे के बाद अपनी सोच पर पुनर्विचार करने कर सकता है? करना चाहिए, पर उम्मीद कम है। क्या विरोध दल सर्वमत से सरकार चलाने के प्रस्ताव को सकारात्मक भाव में लेगा? ये ऐेसे प्रश्न है जिन पर सर्वमत और सबका साथ और विश्वास का भविष्य टिका है।


अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)