नई दिल्ली : हिन्दू आतंकवाद को मुद्दा बनाने वालों के पास अपने बचाव के लिए कोई अस्त्र नहीं बचा है। इस दृष्टि से समझौता एक्सप्रेस विस्फोटों में विशेष न्यायालय के फैसले पर आ रही विरोधी प्रतिक्रियाएं बिल्कुल अपेक्षित हैं। जो लोग यह मानकर चल रहे थे या जिन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि मालेगांव द्वितीय व मोदासा धमाका, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस तथा हैदराबाद मक्का मस्जिद विस्फोटों में हिन्दू संगठन से जुड़े आतंकवादियों का हाथ था।  उन्हें इनसे संबंधित फैसलों से निराशा होनी एकदम स्वाभाविक है। 

यह हिन्दू आतंकवाद शब्द गढ़ने वालों की पराजय है। यह कहना आसान है कि न्यायालय सबूतों के आधार पर फैसला करती है और जांच एजेंसी जो सबूत देगी उसी पर फैसला होगा। किंतु न्यायालय की आंखों में धूल झोंकना इतना आसान नहीं है। न्यायालयों ने कई बार क्लोजर रिपोर्ट पेश करने के बावजूद मामले की जांच दोबारा करने के आदेश दिए हैं। 

वास्तव में न्यायालय के फैसलों और टिप्पणियों को स्वीकार कर हमें मान लेना चाहिए कि पिछले सालों में हिन्दू आतंकवाद, भगवा आतंकवाद का जो मुहावरा गढ़ा गया उसके पीछे केवल राजनीतिक दुर्भावना काम कर रही थी। स्वामी असीमानंद सहित कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा आदि उसी के शिकार थे। आप कुछ भी टिप्पणी कर दीजिए लेकिन उसके पहले न्यायालयों के फैसले को ध्यान से अवश्य पढ़िए। जिन तीन प्रमुख मामलों का फैसला आया है वे तीनों 2007 में ही घटे थे। 2010 से जेल एवं पूछताछ की प्रतारणा झेलने वाले असीमानंद तीनों मामलों में निर्दोष साबित हुए हैं तो उनके ठोस आधार हैं। 

इनमें सबसे अंतिम मामला समझौता रेल विस्फोट का है। पंचकुला के विशेष न्यायालय ने 12 वर्ष के बाद अपना फैसला सुनाया है। भारत और पाकिस्तान के बीच सप्ताह में दो दिन चलने वाली ट्रेन समझौता एक्सप्रेस में 17 और 18 फरवरी की रात में विस्फोट हुआ, जिसमें 67 लोग मारे गए थे तथा एक की मृत्यु अस्पताल में हुई थी। मरने वालों में 44 पाकिस्तानी थे। हालांकि 23 शवों की शिनाख्त नहीं हुई। 

18 मई 2007 को हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए विस्फोट में 9 लोग मारे गए थे। अजमेर स्थित सूफी संत ख्वाजा मोइनुददीन हसन चिश्ती की दरगाह परिसर में 11 अक्टूबर 2007 को आहता ए नूर पेड़ के पास हुए बम विस्फोट में तीन लोग मारे गए थे। 

समझौता विस्फोट मामले में असीमानंद के साथ कमल चौहान, राजिंदर चौधरी और लोकेश शर्मा भी आरोपी थे। विशेष न्यायालय ने कहा है कि एनआईए आरोपियों के खिलाफ अपने आरोपों को साबित करने में विफल रही है। उनके खिलाफ ऐसे कोई सबूत नहीं थे जिन्हें उनको अपराधी साबित करने के लिए पर्याप्त माना जाए। 

इस मामले में 299 गवाह थे और उनमें से 224 गवाहों से पूछताछ की गई। 53 गवाह को अभियोजन पक्ष ने पेश करने योग्य नहीं माना और नौ इस दौरान मर गए। 51 गवाहों ने आरोप लगाया कि एनआईए ने उन्हें धमकी देकर जबरन मनमाना बयान दिलवाया। किसी गवाह ने न्यायालय में न तो आरोपियों को पहचाना और ना ही चारो आरोपियों में से किसी पर संदेह तक व्यक्त किया। ध्यान रखिए, बचाव पक्ष की ओर से एक भी गवाह पेश नहीं किया गया। 


इनमें न्यायालय ने पाकिस्तानी गवाहों को पेश होने के लिए भी कई बार मौका दिया लेकिन कोई हाजिर नहीं हुआ।  सुनवाई पूरी होने के बाद जब फैसला सुनाना था तो पाकिस्तान के हफीजाबाद जिले के धींगरावली गांव निवासी एवं विस्फोट का शिकार बने मोहम्मद वकील की बेटी राहिला वकील ने 11 मार्च को न्यायालय में अपने देश के चश्मदीदों की गवाही दर्ज किए जाने की अपील की थी। 

वकील मोमिन मलिक ने यह याचिका सेक्शन 311 के तहत दायर की थी। इसके जरिए उन्होंने दलील दी कि पाकिस्तान के पीड़ित परिवारों को गवाही देने का अवसर नहीं मिला है और न ही उन तक समन तामील हुए हैं। ऐसे में एक बार उन्हें गवाही का मौका दिया जाए। 

न्यायालय में एनआईए के वकील ने अपनी दलील रखते हुए कहा कि एनआईए द्वारा जो 13 पाकिस्तानी गवाहों की सूची दी गई थी उसमें याचिकाकर्ता पाकिस्तानी महिला गवाह राहिला वकील का नाम नहीं था।  विशेष न्यायाधीश जगदीप सिंह ने महिला एवं एनआईए के वकील की दलीलें सुनने के बाद याचिका पर फैसला 20 मार्च के लिए सुरक्षित रख लिया था। 

न्यायालय ने कहा कि चश्मदीदों को 6 बार समन भेजा गया, लेकिन वे नहीं आए।  समझौता एक्सप्रेस ट्रेन में पीड़ित होने का दावा करने वाले पाकिस्तानी नागरिक अनिल सामी ने वकील मोमिन मालिक को वीडियो और पत्र लिखा जिसमें विस्फोट के आरोपियों को पहचानने का दावा किया। सामी के अनुसार विस्फोट में उसके पिता मोहम्मद शफ़ीक़ अहमद और भाई मोहम्मद हरीश की मौत हो गई थी। 

अनिल सामी वीडियो में कहते दिख रहे हैं कि वे खुद भी इस धमाके में बुरी तरह झुलस गए थे। वे ब्लास्ट मामले में गवाही के लिए भारत से कोई पैगाम आने का इंतजार कर रहे थे। वकील मोमिन मलिक के अनुसार विस्फोट वाले दिन अनिल सामी अपने पिता व भाई के साथ समझौता एक्सप्रेस ट्रेन से कानपुर से पाकिस्तान वापस जा रहे थे। इन याचिकाओं का स्वच्छ उद्देश्य नहीं दिखता है। इनका उद्देश्य केवल प्रचार पाना तथा अपने देश में लड़ाकू की छवि बनाना है इसलिए ऐसी याचिकायें स्वीकार करने लायक नहीं है। 


19 फरवरी 2007 को दर्ज प्राथमिकी के अनुसार रात 11.53 बजे दिल्ली से करीब 80 किलोमीटर दूर पानीपत के दिवाना रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन में विस्फोट हुआ। धमाके के चलते दो सामान्य बोगियों में आग लग गई थी। पुलिस को मौके से दो सूटकेस बम मिले, जो फट नहीं पाए थे। जांच में सामने आया कि ये कवर इंदौर के एक बाजार से विस्फोट के कुछ दिन पहले खरीदे गए थे। ऐसा कहा गया कि दो लोग ट्रेन में दिल्ली से सवार हुए थे और रास्ते में कहीं उतर गए। इसके बाद धमाका हुआ। 

चश्मदीदों के बयान दर्ज करने के बाद पुलिस ने दो संदिग्धों के स्केच जारी किए थे। हरियाणा सरकार ने बाद में मामले की जांच के लिए एक एसआईटी बनाई। धमाके के एक महीने बाद 15 मार्च 2007 को हरियाणा पुलिस ने इंदौर से दो संदिग्धों को गिरफ्तार किया। पुलिस ने दावा किया कि सूटकेस कवर के जरिए वह आरोपियों तक पहुंचने में कामयाब रही। 

केन्द्र की यूपीए सरकार की पहल पर 26 जुलाई 2010 को मामला एनआईए को सौंपा गया था। स्वामी असीमानंद को उसके बाद में आरोपी बनाया गया। एनआइए ने 26 जून 2011 को पांच लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया था। इसमें नाबा कुमार उर्फ स्वामी असीमानंद, सुनील जोशी, रामचंद्र कालसंग्रा, संदीप डांगे और लोकेश शर्मा का नाम था। 

आरोपियों पर आईपीसी की धारा 120 बी साजिश रचने के साथ 302 हत्या, 307 हत्या की कोशिश करना समेत, विस्फोटक पदार्थ लाने, रेलवे को हुए नुकसान को लेकर कई धाराएं लगाई गई। इस मामले के मूल आठ आरोपी बनाए गए जिनमें में से एक की हत्या हो चुकी है तथा तीन को भगोड़ा घोषित किया जा चुका है।

आरंभ में विस्फोट के पीछे लश्कर-ए-तैयबा का हाथ माना गया था। मक्का मस्जिद में भी लश्कर का ही नाम आया था एवं वहां की पुलिस ने आरोप में गिरफ्तारी भी की थी। किंतु एनआईए के हाथ में आते ही जांच की दिशा बदल गई। यह बताया गया कि समझौता की तरह ही हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह और मालेगांव में भी धमाके हुए और इन सभी मामलों के तार आपस में जुड़े हुए हैं। यह बात अलग है कि एनआईए इन्हें साबित नहीं कर सकी। 

इसमें अभिनव भारत संगठन का नाम लिया गया। पहले आरोप पत्र में कहा गया कि हिन्दू संगठनो से जुड़े लोग अक्षरधाम (गुजरात), रघुनाथ मंदिर (जम्मू), संकट मोचन (वाराणसी) मंदिरों में हुए आतंकवादी हमलों से दुखी थे और बम का बदला बम से लेना चाहते थे। असीमानंद को इस पूरी साजिश का मुख्य सूत्रधार बनाया गया। एनआईए के अनुसार उन्होंने ही वैचारिक रुप से सबको तैयार किया तथा संसाधन वगैरह की व्यवस्था भी की। 

हैदराबाद के न्यायालय में एक दिन ऐसा हुआ कि एनआईए के वकील की दलीलों से नाराज होकर न्यायाधीश ने कह दिया कि क्या आरएसएस से जुड़े होने का मतलब आतंकवादी और देशद्रोही होना है? 

मक्का मस्जिद विस्फोट मामले की सुनवाई के दौरान विशेष न्ययालय के न्यायाधीश के. रविंदर रेड्डी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर एनआईए द्वारा रखे गए तर्क को खारिज करते हुए कहा था कि इससे से जुड़े होने का यह मतलब नहीं है कि व्यक्ति सांप्रदायिक या असामाजिक है।

 मक्का मस्जिद विस्फोट मामले में पांच आरोपियों को बरी करने के कुछ घंटे बाद ही न्यायाधीश रेड्डी ने इस्तीफा दे दिया था। हालांकि उनका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया गया। रविंदर रेड्डी ने एनआईए के आरोप पर बहस के दौरान अभियोजन पक्ष से कहा कि क्या देवेंदर गुप्ता इसलिए सांप्रदायिक थे क्योंकि वह एक आरएसएस प्रचारक थे? 

न्यायाधीश ने 140 पृष्ठ के फैसले में लिखा कि आरएसएस कोई गैरकानूनी रूप से काम करनेवाला संगठन नहीं है। अगर कोई व्यक्ति इसके लिए काम करता है तो इसके कारण उसके सांप्रदायिक या असामाजिक होने की गुंजाइश नहीं होती है। न्यायाधीश की टिप्पणियों से ही साफ हो गया था कि न्यायालय में किस तरह की दलीलें दी जा रहीं हैं।

16 अप्रैल 2018 को स्वामी असीमानंद समेत पांच लोगों को हैदराबाद स्थित मक्का मस्जिद में धमाके करने की साज़िश रचने के आरोप से बरी कर दिया था। इससे पूर्व 8 मार्च 2017 को न्यायालय ने 2007 के अजमेर विस्फोट में भी असीमानंद को बरी कर दिया था। स्वामी असीमानंद के साथ हर्षद सोलंकी, मुकेश वासाणी, लोकेश शमार्, मेहुल कुमार, भरत भाई को भी बरी किया गया। 23 सितंबर 2008 को हुए मोदासा विस्फोट में भी एनआईए ने क्लोजर रिपोर्ट लगा दिया जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया। 

 असीमानंद को अपराधी बताने वाले भूल जाते हैं कि उस व्यक्ति का किसी तरह का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है। उसने अपना जीवन संघ से होते हुए उसकी ईकाई वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से सेवा मे लगा दिया। पुरुलिया तथा बांकुरा जिलों में लंबे समय तक काम कियां। संन्यासी बनने के बाद उसका नाम नबी कुमार से स्वामी असीमानंद हो गया। 

यहां यह भी ध्यान रखिए उसी जयपुर के विशेष न्यायालय ने अजमेर विस्फोट मामले में तीन को दोषी करार देकर सजा दे दिया है। तो पांच को बरी करने पर हम प्रश्न उठाएं और तीन को सजा देने को नजरअंदाज कर दें यह कैसा व्यवहार है। 

देवेन्द्र गुप्ता, भावेश पटेल सजा काट रहे हैं। सुनील जोशी की मृत्यु हो चुकी है। राज्य सरकार ने मई 2010 में मामले की जांच राजस्थान पुलिस की एटीएस शाखा को सौंपी थी। बाद में एक अप्रैल 2011 को भारत सरकार ने मामले की जांच एनआईए को सौप दी थी। इस मामले में एनआईए ने 13 आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया था। 

साल 2010 से आठ आरोपी स्वामी असीमानंद, हर्षद सोलंकी, मुकेश वासाणी, लोकेश शर्मा, भावेश पटेल, मेहुल कुमार ,भरत भाई, देवेन्द्र गुप्ता न्यायायिक हिरासत में थे।  एक आरोपी चन्द्र शेखर लेवे को जमानत मिल गई थी। इसमें भी एक आरोपी सुनील जोशी की हत्या हो चुकी है और तीन आरोपी संदीप डांगे, रामजी कलसांगरा और सुरेश नायर फरार घोषित है। 

मामले में अभियोजन पक्ष की ओर से 149 गवाहों के बयान दर्ज करवाए गए, लेकिन न्यायालय में 24 से ज्यादा मुख्य गवाह अपने बयान से मुकर गए। उन्होंने भी कहा कि एनआईए ने उनसे जबरदस्ती डरा धमकाकर बयान दिलवाए। उनके सामने ऐसी स्थिति पैदा की गई कि उनके सामने जो वो कहते थे उसे बोलने के अलावा कोई चारा नहीं था।  

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मालेगांव विस्फोट मामले मे भी ज्यादातर गवाहों ने एनआईए पर दबाव डालकर बयान लेने के आरोप लगाए हैं। चार वर्ष पहले उच्चतम न्यायालय ने ही कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा पर मकोका लगाए जाने को गलत करार दिया था। 

वस्तुतः मोदासा तथा मालेगांव से लेकर समझौता, मक्का मस्जिद, अजमेर सभी विस्फोटों में गवाहों ने जिस तरह एनआईए के व्यवहार का विवरण न्यायालय में प्रस्तुत किए उनसे सीधा निष्कर्ष निकलता है कि  जांच एजेंसी को इस बात से मतलब ही नहीं था कि विस्फोटों का असली अपराधी कौन है। वे किसी तरह यह स्थापित करना चाहते थे कि हिन्दू संगठनों से जुड़े लोगों ने संगठित होकर आतंकवाद को अंजाम दिया है जिसके लिए वित्त पोषण से लेकर हथियार एवं उसके प्रशिक्षण तक के ढांचे तैयार किए गए। ये बिल्कुल बेबुनियाद बातें थीं। 

अजमेर विस्फोट में अवश्य हिन्दू संगठन से जुड़े लोगों का हाथ था लेकिन यह उनका व्यक्गित अपराध था। इसे किसी तरह विचारधारा पर आधारित संगठित अपराध नहीं कहा जा सकता है। जब आप भयानक अपराध के मामले में भी कथा गढ़ेंगे तो इसका परिणाम यही होगा। 

समझौता एक्सप्रेस में भी न्यायालय ने अपराध प्रक्रिया संहिता 164 के तहत दिए गए असीमानंद के बयान को खारिज कर दिया। दो न्यायालयों ने भी यही किया। क्यों? समझौता एक्सप्रेस के आरोप पत्र में कहा गया था कि अपराधी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के डॉर्मिटरी में ठहरकर बमों को सूटकेस में लगाया तथा वहीं से वे रेल में चढ़ गए। किंतु इसका कोई प्रमाण नहीं दिया गया कि इंदौर से दिल्ली आने वाले डॉर्मिटरी में रुके और बम रेल में रखा। आखिर यह प्रश्न तो अनुत्तरित रह ही गया कि इन मौतों के अपराधी कौन हैं? उसकी जांच तो होनी ही चाहिए लेकिन एनआईए के उन अधिकारियों पर भी मुकदमा चलना चाहिए ताकि पता चले कि उन्होंने किस स्थिति में ऐसा किया। 


अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)

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