भारत रत्न डा. भीमराव अम्बेडकर (1891-1956 ई.) का भारतीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बहुमूल्य योगदान रहा है। वह भारतीय संस्कृति के अनन्य भक्त, मूल चिन्तक, विचारक तथा लेखक थे। अस्पृश्यता एवं जन्माधारित विशेषाधिकारों पर चल रही समाज व्यवस्था के वे कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिन्दू समाज रचना के विविध पहलुओं का गंभीर चिन्तन करने के साथ भारत में मुस्लिम राजनीति का भी विस्तृत अध्ययन किया था। 

उन्होंने इस्लाम अथवा मुस्लिम राजनीति के सन्दर्भ में अपने विचार "पाकिस्तान एंड द पार्टीशन आफ इंडिया" (1940, 1945 एवं 1946 का संस्करण) में विस्तार से प्रकट किए। डा. अम्बेडकर ने भारत पर मुसलमानों के क्रूर तथा रक्तरंजित आक्रमणों का गहराई से अध्ययन किया था। उन्होंने मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, मोहम्मद गोरी, चंगेज खां, बाबर, नादिरशाह तथा अहमद शाह अब्दाली के अत्याचारों का भी वर्णन किया। 

डा. अम्बेडकर ने उन चाटुकारों तथा दिशाभ्रमित वामपंथी इतिहासकारों को फटकारते हुए लिखा कि “यह कहना गलत है कि ये सभी आक्रमणकारी केवल लूट या विजय के उद्देश्य से आए थे”। 

डा.अम्बेडकर ने अनेक उदाहरण देते हुए बताया कि इनका उद्देश्य हिन्दुओं में मूर्ति पूजा तथा बहुदेववाद की भावना को नष्ट कर भारत में इस्लाम की स्थापना करना था। इस सन्दर्भ में उन्होंने कुतुबुद्दीन ऐबक, अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक, शाहजहां तथा औरंगजेब की विस्तार से चर्चा की है।

डा.अम्बेडकर ने साफ साफ बताया कि "इस्लाम विश्व को दो भागों में बांटता है, जिन्हें वे दारुल-इस्लाम तथा दारुल हरब मानते हैं। जिस देश में मुस्लिम शासक है वह दारुल इस्लाम की श्रेणी में आता है। लेकिन जिस किसी भी देश में जहां मुसलमान रहते हैं परन्तु उनका राज्य नहीं है, वह दारुल-हरब होगा। इस दृष्टि से उनके लिए भारत दारुल हरब है। इसी भांति वे मानवमात्र के भ्रातृत्व में विश्वास नहीं करते"। 

डा. अम्बेडकर के शब्दों में- "इस्लाम का भ्रातृत्व सिद्धांत मानव जाति का भ्रातृत्व नहीं है। यह मुसलमानों तक सीमित भाईचारा है। समुदाय के बाहर वालों के लिए उनके पास शत्रुता व तिरस्कार के सिवाय कुछ भी नहीं है।" 

उनके अनुसार “इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को कभी भी भारत की अपनी मातृभूमि मानने की स्वीकृति नहीं देगा। मुसलमानों की भारत को दारुल इस्लाम बनाने के महत्ती आकांक्षा रही है”। 

अंबेडकर ने इस्लाम और इसाईयत को विदेशी मजहब माना है। वह धर्म के बिना जीवन का अस्तित्व नही मानते थे, लेकिन धर्म भी उनको भारतीय संस्कृति के अनुकूल स्वीकार्य था। इसी वजह से उन्होंने ईसाईयों और इस्लाम के मौलवियों का आग्रह ठुकरा कर बौद्ध धर्म अपनाया क्योंकि बौद्ध भारत की संस्कृति से निकला एक धर्म है।

ब्रिटिश शासनकाल में भी इस उद्देश्य से उन्होंने अनेक प्रयत्न किए। कभी हिजरत, कभी जिहाद तथा कभी पैन-इस्लामबाद के रूप में सैय्यद अहमद बरेलबी ने भारत में मजहबी युद्ध की घोषणा की। बहाबी आन्दोलन इसी प्रकार का असफल प्रयास था। 

सर सैयद अहमद खां ने यह अवश्य बताना चाहा कि भारत में अंग्रेजी राज दारुल हरब नहीं है। परन्तु मुसलमानों ने उनकी अलीगढ़ की पुकार को पूरी तरह सुना नहीं। 

डा. अम्बेडकर के अनुसार-1857 का संघर्ष भी मुख्यत: अंग्रेजों के विरुद्ध जिहादी प्रयत्न था। खिलाफत आन्दोलन के द्वारा जिहाद तथा पैन इस्लामबाद को बढ़ावा दिया गया। अनेक मुसलमान भारत छोड़कर अफगानिस्तान चले गए। अफगानिस्तान का 1919 में भारत पर आक्रमण इन खिलाफत के लोगों की भावनाओं का ही परिणाम था। जिस मोहम्मद अली ने 1923 में महात्मा गांधी की तुलना ईसा मसीह से की थी। वही, 1924 में अलीगढ़, अजमेर तथा लखनऊ के भाषणों में गांधी जी के प्रति भद्दे शब्दों का प्रयोग करने में जरा भी नहीं चूका।

डा. अम्बेडकर ने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि “इस्लाम में राष्ट्रवाद का कोई चिंतन नहीं है। इस्लाम में राष्ट्रवाद की अवधारणा ही नहीं है। वह राष्ट्रवाद को तोड़ने वाला मजहब है”।

डा. अम्बेडकर ने भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगों को "गृह-युद्ध" माना है। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए किए गए प्रयासों की भी आलोचना की तथा इसे महानतम भ्रम बताया। 

उन्होंने निष्कर्ष रूप में यह माना है कि "मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारतीय जीवन प्रवाह में मतान्तरण, अलगाववाद तथा साम्प्रदायिकता का विष घोला, जिसकी परिणीति भारत विभाजन के रूप में हुई"। 

डा. अम्बेडकर चुनौतीपूर्ण भाषा में कहते हैं “क्या भारत के इतिहास में एक भी ऐसी घटना है जहां हिन्दू तथा मुसलमान समान रूप से गौरव या शोक का अनुभव कर सके? क्या भारतीय मुसलमान भारत में रहते हुए इसे एक समान मातृभमि मानता है?

नि:संदेह डा. अम्बेडकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। डा. अम्बेडकर एक परिष्कृत हिन्दू राष्ट्रवाद के व्याख्याता थे। उनका मानना था कि मुस्लिम तुष्टीकरण की बजाय मुस्लिम राजनीति के साम्प्रदायिक चरित्र की विस्तृत चर्चा ही समय की मांग है।

बाबासाहेब डा.अम्बेडकर एक अत्यंत प्रखर देशभक्त और प्रबल राष्ट्रवादी थे। 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन करके पाकिस्तान निर्मित करने का प्रस्ताव पारित किया था। इस प्रस्ताव के पश्चात बाबासाहेब डा.अम्बेडकर की एक पुस्तक “ऑन पार्टिशन” प्रकाशित हुई।

इस प्रभावशाली और विचारोत्तेजक पुस्तक को पढ़कर ज्ञात होता है कि डा.अम्बेडकर कितने जबरदस्त राष्ट्रवादी थे। 

ऑन पार्टिशन” के बाद 1945 में डा.अम्बेडकर की पुस्तक “थाट्स ऑन पाकिस्तान” प्रकाशित हुई जिसने कि एक बार पुनः प्रखर देशभक्त के विचारों से अवगत कराया। भारत की राजनीतिक एकता को मूर्तरुप देने का जैसा शानदार कार्य सरदार पटेल ने अंजाम दिया, उसी कोटि का अप्रतिम कार्य राष्ट्र की सामाजिक एकता को शक्तिशाली बनाने की खातिर डा.अम्बेडकर द्वारा किया गया। अपनी चेतना के उदय से अपनी जिंदगी के आखिरी पल तक इंसान-इंसान के मध्य भाईचारे का सूत्रपात करने और समानता की लहर प्रवाहित करने में डा.अम्बेडकर जुटे रहे। 

राष्ट्रवाद की उनकी अवधारणा में किसी तरह की संकीर्णता के लिए कदाचित कोई स्थान नहीं रहा। 

डा.अम्बेडकर ने कहा था कि “मैं ब्राह्मणवाद का कट्टर विरोधी हूँ। किंतु मैं व्यक्तिगत तौर पर किसी ब्राह्मण का विरोधी कदाचित नहीं हूँ। मानवता के समर्थक अनेक ब्राह्मण मेरे व्यक्तिगत मित्र रहे। मेरी मान्यता है कि इंसान अपने गुणों ,ज्ञान, चिंतन-मनन और कर्मों से बड़ा अथवा छोटा होता है, न कि अपने कुल, जाति और जन्म के कारण से”। 

1919 से 1922 के बीच महात्मा गाँधी और काँग्रेस के द्वारा अकारण ही राष्ट्र को खिलाफत आंदोलन में झोंक दिया गया। 

डा.अम्बेडकर का मानना था कि काँग्रेस के सांप्रदायिक तुष्टीकरण की नीति के कारण देश के बहुत नुकसान हुआ। उनके अनुसार देश का साम्प्रदायिक आधार पर घटित हुआ विभाजन, वस्तुतः काँग्रेस की साम्प्रदायिक तुष्टीकरण की कुनीति का तार्किक परिणाम था। 

400 पन्नों की “थॉटस ऑन पाकिस्तान” शीर्षक से एक पुस्तक डा. अम्बेडकर द्वारा 1945 में लिखी गई।  इस पुस्तक में पुस्तक डा.अम्बेडकर ने मुस्लिम सांप्रदायिकता पर अत्यंत करारी चोट की। 

दरअसल, अंबेडकर का भारत को देखने का बिल्‍कुल ही अलग नजरिया था। वे पूरे देश को अखंड देखना चाहते थे, इसिलए वे भारत के टुकड़े करने वालों की नीतियों के जबर्दस्‍त आलोचक रहे। भारत को दो टुकड़ों में बांटने की ब्रिटिश हुकूमत की साजिश और अंग्रेजों की हां में हां मिला रहे गांधी, नेहरु जिन्ना से नाराज होकर उन्होंने “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” लिखी। 

इस किताब में अंबेडकर ने लिखा है कि “पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी”।

अंबेडकर ने थॉट्स ऑन पाकिस्तान में लिखा कि “देश को दो भागों में बांटना व्‍यवहारिक रूप से संभव नहीं है और ऐसे विभाजन से राष्‍ट्र से ज्‍यादा मनुष्‍यता का नुकसान होगा। क्योंकि इसमें बड़े पैमाने पर हिंसा होगी”। 

दूरदर्शी अंबेडकर की यह आशंका दो साल के अंदर ही सच साबित हुई और बंटवारे के दौरान हुई सांप्रदायिक हिंसा में बीस लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। 1951 की विस्थापित जनगणना के अनुसार विभाजन के बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गए और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए। लेकिन इस बंटवारे ने देश को जो दर्द दिया उसकी टीस अब तक बाकी है। 

अंबेडकर ने भारत पाकिस्तान के बीच सीमा विवाद की जो भविष्यवाणी की थी। वह आज भी नियंत्रण रेखा पर चल रहे संघर्ष के रुप में अक्सर दिखाई देती है। 

अंबेडकर राष्‍ट्र के 'जियो कल्‍चरल कंसेप्‍ट' पर विश्‍वास करते थे। उन्होंने लिखा है कि “भारत को प्रकृति ने ही एक एकल भौगौलिक ईकाई के रूप में बनाया है, लिहाजा उसे दो भागों में नहीं बांटा जाना चाहिए”। 

लेकिन आज अंबेडकर के विचारों को मजहबी कट्टरता से जोड़कर “जय भीम जय मीम” का नारा लगाने वाले लोग शायद अंबेडकर के मूल विचारों को पढ़ने की जरुरत ही नहीं समझते। इसलिए वह लगातार गलतियां कर रहे हैं। 

भारत रत्न भीमराव अंबेडकर के विचार देश काल और परिस्थितियों से परे हैं। उनकी पुस्तकें किसी भी कालखंड में पढ़ी जाएं। वह सदैव रास्ता दिखाएंगी।