साध्वी ने भी यह कहते हुए कि इससे राष्ट्र विरोधियों को लाभ होगा मैं अपना बयान वापस लेती हूँ। किंतु, इससे अध्याय खत्म नहीं, बल्कि दोबारा आरंभ हुआ है। आप देख लीजिए सोशल मीडिया पर कितनी सघन बहस चल रही है। अंतर्धारा में यह इस चुनाव का एक प्रमुख मुद्दा बन गया है।

 हेमंत करकरे की जान 26 नवंबर 2008 को मुंबई आतंकवादी हमले में गई और साध्वी को मालेगांव द्वितीय धमाकों में हिन्दू आतंकवाद का खतरनाक चेहरा साबित करने का आधार उन्हीं के नेतृत्व में बना। साध्वी सहित अन्यों की गिरफ्तारी उनके ही आदेश से हुई। 

इस तरह पूरे विवाद के दो पहलू हमारे सामने विचार के लिए हैं। 
पहला, क्या मुंबई आतंकवादी हमले में आतंकवाद निरोधक दस्ता या एटीएस प्रमुख के रूप में उनकी भूमिका वाकई गौरवशाली थी? 

दूसरा, क्या मालेगांव विस्फोट के मामले में साध्वी प्रज्ञा सहित अन्य हिन्दुओं को संलिप्त साबित करने में उन्होंने निष्पक्ष पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाई?

आइए पहले प्रश्न से आरंभ करें। इतिहास भावनाओं के आधार पर नहीं, उपलब्ध तथ्यों के आधार पर किसी की भूमिका का मूल्यांकन करता है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर आतंकवादी हमले के समय वो वहां दिख रहे थे। इसका मतलब वे साहस के साथ मोर्चा पर आए। किन्तु जितने इत्मीनान से वे बुलेट प्रूफ जैकेट पहन रहे थे उससे लग नहीं रहा था कि वे आतंकवादी हमले के विरूद्ध युद्ध के मोर्चे पर हैं। 

एटीएस सहित मुंबई पुलिस की आतंकवादी हमले के संदर्भ में आत्मघाती दयनीय समझ, संघर्ष के लिए सामान्य व्यूह रचना का अभाव तथा आतंकवादियों के समक्ष बिल्कुल विफल हो जाने का आकलन उस जांच समिति ने किया जिसे तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने अत्यंत सीमित दायरे में जांच का जिम्मा दिया था। सरकार ने मांग के बावजूद भारत पर हुए सबसे बड़े हमले के लिए अधिकार प्राप्त आयोग गठित नहीं किया। आयोग, पुलिस और सरकार दोनों की आपराधिक सोच, लापरवाही और आतंकवादी हमले के बाद शर्मनाक अस्त-व्यस्तता को सामने रख देता।

 हालांकि अपनी सीमाओं में रहते हुए और भाषा मृदु रखते हुए भी आर डी प्रधान और वी बालाचन्द्रण समिति ने इनकी विफलताओं को उजागर किया। पृथ्वीराज चौहान सरकार ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से आरंभ में इन्कार किया। किंतु पूरी रिपोर्ट ही मीडिया में आ गई। उसके बाद सरकार के पास कोई चारा नहीं रहा और उसने रिपोर्ट विधानसभा में पेश किया। 

यहां उसमें विस्तार से जाना संभव नहीं। इसमें अनेक पुलिस अधिकारियों, सिपाहियों का नाम लेकर उनकी बहादुरी की प्रशंसा की गई है। सहायक पुलिस निरीक्षक तुकाराम गोपाल ओम्बले जिस तरह दो आतंकवादियों से बिना हथियार के जूझे वह बहादुरी की मिसाल थी। ऐसे अनेक अधिकारियों के नाम है जिन्होंने बुद्धिमता और बहादुरी दिखाई। किंतु इसने पुलिस आयुक्त तथा एटीएस प्रमुख करकरे की बिल्कुल प्रशंसा नहीं की है। 

मुंबई आतंकवादी खतरों को देखते हुए क्विक रिस्पांस टीम या क्यूआरटी तथा असॉल्ट टीमें एटीएस की मुंबई शाखा के अंदर आती है। क्यूआरटी को जगह-जगह भेजा गया लेकिन वे निष्प्रभावी थे। समिति को उन्होंने कहा कि कोई एक हमारा ऐसा अधिकारी नहीं था जो बताए कि करना क्या है। 

ध्यान रखिए, मुंबई पुलिस में यह एकमात्र ईकाई थी जो महानगर पुलिस के पास तार्किक रुप से ऐसे मामले का सामना करने के लिए एक हद तक सुसज्जित थी। समिति ने लिखा है कि पूरा एटीएस अस्त-व्यस्त था। हालांकि उसने इसका कारण दोहरा कमान बताया है। एक ओर पुलिस महानिदेशक ता दूसरी ओर मुंबई के लिए पुलिस आयुक्त को इसका कमान दिया गया। समिति ने हमले के बाद इसकी भूमिका का वर्णन करने की जगह इसके दोष तथा सुधार की अनुशंसाओं पर ज्यादा ध्यान दिया है। बावजूद दयनीय सच तो सामने आ ही जाता है। 


किसी भी एक अधिकारी को तैयार करने में देश का बहुत संसाधन लगता है। इस नाते उसका जान गंवाना दुखद ही नहीं देश के लिए क्षति है। किंतु हेमंत करकरे प्रदेश एटीएस के प्रमुख थे। उनको योग्य एवं सक्षम तब माना जाता जब वे हमले के बाद क्विक रिस्पांस टीम को कमान के साथ दायित्वों का बंटवारा करते तथा स्वयं उनका मॉनिटर करते। 

रिपोर्ट में अन्य पुलिस अधिकारियों के बारे में तो लिखा है लेकिन करकरे के पास हमले का सामना करने की योजना भी थी इसका जिक्र नहीं किया है। इसमें खुफिया  रिपोर्टों का विस्तृत विवरण है। इसमें 7 अगस्त 2006 से 11 अगस्त 2008 तक के आठ खुफिया सूचनाओं की चर्चा है। ये सारे एकदम सुस्पष्ट और सटीक नहीं है। किंतु इसमें लश्कर-ए-तैयबा द्वारा समुद्र मार्ग से आकर हमला करने की साजिशों की बात है। 

उदाहरण के लिए 9 अगस्त 2008 के खुफिया रिपोर्ट में दक्षिण मुंबई के ताज होटल, ओबेराय होटल, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर आदि पर हमले का अलर्ट है। सूचनाओं के आधार पर कई पुलिस अधिकारियों ने उन जगहों का दौरा किया, होटल के प्रबंधन से बात की, कुछ व्यवस्थायें भी कीं किंतु एटीएस की इसमें कोई भूमिका नहीं थी। जो खुफिया सूचना मिलती वो गृहमंत्रालय से होकर पुलिस महानिदेशक, पुलिस आयुक्त कार्यालय के साथ एटीएस के डीआईजी के पास भी आती थी। करकरे की भी जिम्मेवारी थी कि वे इसके आधार पर पहल कर एक समन्वय बनाते। आखिर यह विशेष ईकाई 2004 में आतंकवाद के खतरे को देखते हुए गठित की गई थी। 


किसी भी इंसान के मरने का तो दुख होता ही है। किंतु करकरे महाराष्ट्र आतंकवादी निरोधक दस्ता के प्रमुख थे। इस नाते उनकी जिम्मेवारी बहुत बड़ी थी। आतंकवादी हमले की शक्ति क्या है इसका मोटा-मोटी आकलन किए बगैर व बिना किसी योजना के ये लोग छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से कामा अस्पताल की ओर एक क्वालिस गाड़ी से चल पड़े जहां आतंकवादियों के भागने की सूचना थी। 

उस हमले में बच गए जवान का बयान है कि पांच मिनट चले होंगे कि अचानक एक पेड़ के पीछे से एके 47 राइफल लिए दो आतंकवादी निकले और अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी। उसमें हेमंत करकरे, पुलिस के अतिरिक्त आयुक्त अशोक काम्टे, मुठभेड़ विशेषज्ञ विजय सालस्कर और तीन पुलिसकर्मी जान गंवा बैठे। यह अत्यंत दुखद था। इन सबके पास हथियार थे, लेकिन ये यह नहीं सोच सके कि जो आतंकवादी आत्मघाती बनकर आया है वह कहीं भी हमला कर सकता था। इसलिए हाथ में यहां तो हाथों में हथियार लिए युद्ध की अवस्था में इन सबको होना चाहिए था। इन्होंने हाथों में हथियार तक नहीं लिया था। क्या ये यह सोच रहे थे आतंकवादी इस बात का इंतजार करेंगे कि ये हथियार निकाल लें तब से लड़ाई करेंगे? यह अगर करकरे की योग्यता और शूरवीरता थी तो फिर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं।


ऐसी घटनाओं में पुलिस नियंत्रण कक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वहां की रिपोर्ट आती है तथा उसकी सूचना के अनुसार कोई टीम मूव करती है या फिर उसे पता चलता है कि कहां क्या हो रहा है। राकेश मारिया इसके प्रभारी थे। नियंत्रण कक्ष में कॉल की भरमार थी। वहां के कर्मियों ने अपने निजी मोबाइल का भी उपयोग किया। समिति ने कुल लॉग बुक में कुल 2312 इंट्री का अध्ययन किया लेकिन उनमे से ज्यादातर अस्पष्ट थे इसलिए मौखिक पूछताछ पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ा। इसमें नियंत्रण कक्ष की आलोचना नहीं है लेकिन लिखा है कि मुंबई का पुलिस नियंत्रण कक्ष न तो आतंकवादियों की गतिविधियों को ट्रैक कर सका न ही उनका पीछा करन वाले पुलिस टीम को। घटनाएं क्षेत्र में घट रहीं थीं एवं वहा उपस्थित वरिष्ठ अधिकारी नियंत्रण कक्ष को अपनी रणनीतिक योजना की जानकारी नहीं दे रहे थे। इससे समन्वय बनाना कठिन था। हेमंत करकरे ने नियंत्रण कक्ष को कामा अस्पताल की ओर जाने की सूचना दी इसका कोई रिकॉर्ड वहां नहीं है। 


ध्यान रखिए, हेमंत करकरे की जांच समिति ने चर्चा करना तक उपयुक्त नहीं समझा। उनकी मृत्यु के बाद के वातावरण में समिति ने स्वयं को कोई टिप्पणी करने से ही अलग रखा था। बेशकर, रिपोर्ट में किसी एक व्यक्ति को जिम्मेवार नहीं ठहराया गया है। पर पूरी रिपोर्ट से सरकार की कलई खुल रही थी। पुलिस महानिदेशक ने साफ किया कि पुलिस आधुनिकीकरण की योजना के लिए सरकार धन ही नहीं दे रही है। खतरे की सारी सूचनाएं सरकार के पास थी लेकिन उसने पुलिस को उसके अनुरुप आधुनिक शस्त्रास्त्रों तथा उपकरणों से लैस करने, उनका विशेष प्रशिक्षण कराकर लगतार अभ्यास कराते रहने तथा समुद्र किनारे उपयुक्त सुरक्षा व्यवस्था के लिए कदम उठाया ही नहीं। 

सरकार के सामने अपने को बचाने की समस्या थी। इसलिए केन्द्र एवं प्रदेश दोनों सरकारों ने इसे दूसरा मोड़ देने की रणनीति अपनाई। पाकिस्तान की इसमें भूमिका थी और कसाब पकड़ा गया था। इसलिए पूरा फोकस वहां हो गया। पुलिस की विफलता के लिए आयुक्त हसन गफूर को हटा दिया गया और यह सही कदम था। 

साफ है कि करकरे जिंदा होते तो रिपोर्ट में उनकी भूमिका की भी नाम लेकर चर्चा होती और उनको भी जाना पड़ता। सरकार किसी तरह यह संदेश देना चाहती थी कि उसकी पुलिस ने वीरतापूर्वक संघर्ष किया इसलिए उसने करकरे को मरणोपरांत अशोक चक्र जैसा वीरता पुरस्कार दे दिया। जगह-जगह करकरे की श्रद्धांजलि सभायें योजनापूर्वक कराईं गईं। उसके बाद से एक वातावरण बना हुआ है कि हेमंत करकरे तो आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए। कोई सच देखने की जहमत उठाता ही नहीं। आखिर उन्होंनें कहां मोर्चाबंदी की, कहां मोर्चाबंदी के लिए व्यूह रचना की और कहां एक भी गोली चलाई?


 सच यह है कि करकरे का पूरा समय करीब दो महीने से मालेगांव एवं नासिक विस्फोट में हिन्दू आतंकवाद प्रमाणित करने में लगा हुआ था। वह केन्द्र और प्रदेश सरकार की सोच के अनुसार काम कर रहे थे। एटीएस की दूसरी और मुख्य भूमिका हाशिए पर चली गई। 


हिन्दू आतंकवाद शब्दावली की आज परिणति क्या है? साध्वी प्रज्ञा का नाम न अजमेर शरीफ विस्फोट में आया, न समझौता विस्फोट में और न हैदराबाद मक्का मस्जिद विस्फोट में। इन सारे मामलों का फैसला आ गया है। अजमेर शरीफ मामले में दो हिन्दुओं को सजा हुई है लेकिन न्यायालयों ने ही हिन्दू आतंकवाद का गढ़ा गया सिद्धांत ध्वस्त कर दिया है। 


सबसे हालिया मामला पंचकुला न्यायालय द्वारा दिया गया समझौता विस्फोट का है जिसमें असीमानंद सहित सारे आरोपियों को बरी करते हुए एनआईए पर कड़ी टिप्पणियां की गईं हैं। 29 सितंबर 2008 को मालेगांव में हुए दो विस्फोटों में 6 लोग मारे गए तथा 101 घायल हुए थे। उस मामले में जिस तरह की यातना साध्वी प्रज्ञा को करकरे ने दिलवाई उससे लगता ही नहीं कि भारत में सभ्य पुलिस भी है। आज वो होते तो मुकदमा झेल रहे होते या जेल में होते। किसी महिला को अपनी बनाई कथा को स्वीकार करवाने के लिए नंगा करना, उल्टा लटकाना, बेरहमी से पीटना, गंदी गालियां देना, उसके शिष्य से पिटवाना.....पुलिस की किस व्यवहार संहिता में लिखा है? 

मानवाधिकार आयोग ने भी इसकी जांच की। प्रज्ञा के आधे अंग को लगवा मार गया था। उसकी किडनी में समस्या हो गई। अब तक की स्थिति यही है कि एनआईए ने अपनी जांच के बाद 13 मई 2016 को दूसरा पूरक आरोप पत्र में कहा कि मामले में न मकोका लगाने का आधार है और न साध्वी प्रज्ञा ठाकुर सहित 6 लोगों के खिलाफ मुकदमा चलने लायक सबूत ही। हालांकि स्थानीय न्यायालय ने मुकदमा बंद करने को नकार दिया। 

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में जमानत अर्जी दी। 25 अप्रैल 2017 को उच्च न्यायालय ने साध्वी को जमानत दे दी और कर्नल पुरोहित की याचिका नामंजूर कर दी। बाद में उच्चतम न्यायालय ने पुरोहित को भी  21 अगस्त 2017 को जमानत दे दिया।  

आज की स्थिति यह है कि अन्य तीन मामलों की तरह ज्यादातर गवाहों ने न्यायालय में कह दिया है कि पहले उन्हें डराकर बयान दिलवाया गया था। उच्चतम न्यायालय ने 15 अप्रैल 2015 को फैसला दिया था कि इन पर मकोका लगाने का कोई आधार नहीं बनता, इसलिए विशेष न्यायालय इसकी नए सिरे से सुनवाई करे। 

आरोप पत्र न्यायालय के सामने है। 108 गवाहों के बयान हो चुके है। उनमें कोई इनकी संलिप्तता की बात कर नहीं रहा है। क्या इससे साबित नहीं होता कि हेमंत करकरे ने एक बड़ी कथा गढ़ी तथा उसके अनुसार पुलिसिया ताकत का उपयोग कर गवाह बनाए? यह अलग बात है कि वो और उनकी टीम प्रज्ञा ठाकुर को न डिगा सके। पूरी योजना संघ और उससे जुड़े संगठनों को संगठित आतंकवाद को संचालित करने वाला संगठन परिवार साबित करने की थी। अगर ऐसा व्यक्ति शहीद है तो फिर शहीद की परिभाषा बदलनी होगी। 

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)