ताजा इतिहास पर गौर करें तो आप पाएंगे कि पिछले कुछ सालों में बीजेपी की चुनाव मशीनरी को कई झटके लगे। उदाहरण के तौर पर दिल्ली और बिहार में लगे झटकों ने बीजेपी के लौटने की संभावनाओं पर तुषारापात किया। लेकिन उत्तर प्रदेश, असम और त्रिपुरा के परिणामों ने बदलाव लाना शुरु कर दिया। 

कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सरकार बना पाने में विफलता और अब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पराजय। शायद अब पार्टी को 2019 के आम चुनावों के लिए आखिरी जंग की तैयारी शुरु करने की जरुरत है। 

जबकि पीएम नरेंद्र मोदी का कांग्रेस-मुक्त भारत के संकल्प का परिणाम कुछ कदमों पीछे लौटता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन मंगलवार को विधानसभा चुनाव के परिणाम की कुछ बातें बीजेपी के लिए अच्छी साबित हो सकती हैं। 

समय रहते चेतावनी मिल जाना

अब जबकि 2019 के आम चुनावों के लिए सौ दिन या उससे थोड़ा ही ज्यादा वक्त बाकी है। ऐसे में बीजेपी इस वक्त का उपयोग पार्टी नेतृत्व में अनावश्यक बोझ को कम करने, वादों और उनके पूरा किए जाने के बीच के अंतराल का आंकलन और बूथ तथा ब्लॉक स्तर पर संचालन में असफलताओं का पता लगाने में कर सकती है। 

बीजेपी को अपने कैडर को सक्रिय करने के लिए कुछ बड़े कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। सेमीफाइनल 2018 ने 2019 के चुनाव से पहले भाजपा सरकारों की असफलता पर लोगों को अपना गुस्सा निकालने का मौका दिया है। यह 2019 में मतदाताओं के आक्रोश को कम कर सकता है, लेकिन केवल तभी जब बीजेपी आक्रोश का कारण बनने वाले उन बिंदुओं के समाधान के लिए ताजा चेहरों और विचारों के साथ सामने आए। 

सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद जीत का अंतर कम होना

हालांकि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार के खिलाफ स्पष्ट रुप से जनादेश था। लेकिन राजस्थान में भाजपा सीएम वसुंधरा राजे के खिलाफ उग्र सत्ताविरोधी रुझान होने के बावजूद बीजेपी को 70 के आस पास सीटें मिली। मध्य प्रदेश में पार्टी में 15 साल से अधिक समय तक सत्ता में है। लेकिन कांग्रेस के बहुप्रचारित गहन अभियान के बावजूद शिवराज सिंह चौहान से बहुत कम अंतराल से पीछे हैं। मंगलवार के चुनावी नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कम से कम राज्य स्तर पर चुनावी धारा की दिशा पूरी तरह से बदल गई है। 

पुराने क्षत्रपों को बदलने की जरुरत

बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व राज्यों में पिछले काफी समय से जमे हुए शिवराज, रमन और वसुंधरा जैसे क्षत्रपों को बदलने पर विचार करना चाहिए। उनकी जगह पर नए चेहरे लाए जाने चाहिए, जो कि सत्ता विरोधी रुझान से अछूते हों और राज्यों के संगठन पर अपनी पकड़ रखते हों।  व्यापमं घोटाले के आरोप और शहरी बेरोजगारी, पत्नी पर कमीशन खाने के बार बार लगने वाले आरोप और मंत्रियों विधायकों के बढ़ते अहंकार ने शिवराज की छवि को नुकसान पहुंचाया। 

उधर छत्तीसगढ़ में रमन सिंह तीन बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद ‘चावल वाले बाबा’ की छवि से आगे बढ़ ही नहीं पाए, जो कि उनकी सशक्त जन वितरण प्रणाली योजना की वजह से बनी थी। उनके बेटे का नाम पनामा पेपर्स में आना और उनके मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी बेदाग छवि को दागदार किया। और वसुंधरा पर तो पहुंच से दूर रहने, राज्य से गायब रहने, आनंदपाल के एनकाउंटर के मुद्दे पर राजपूतों की नाराजगी मोल लेने, सड़कें बनाने के लिए मंदिरों को ढहाकर हिंदुओं को नाराज करना और संघ तथा पार्टी कार्यकर्ताओं को अपने पीछे एकजुट न रख पाने जैसे कई गंभीर आरोप लगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि इन राज्यों में बीजेपी किस तरह का नया नेतृत्व तैयार करता है। चोट का घाव सहलाते इन पुराने क्षत्रपों को शायद केन्द्रीय कैबिनेट में जगह दी जा सकती है। 

कांग्रेस के मजबूत होने से गठबंधन में अस्थिरता

एक मजबूत कांग्रेस के पास मोलभाव की क्षमता ज्यादा होगी, जो कि गठबंधन की संभावनाओं को कमजोर कर सकता है। क्षेत्रीय दलों से जुड़े ममता बनर्जी और नवीन पटनायक जैसे कद्दावर  नेता महागठबंधन में जूनियर पार्टनर बनकर रहना पसंद नहीं करेंगे। यहां तक कि चंद्रबाबू नायडू, जो तेलंगाना में एक असफल चुनाव प्रचार का नेतृत्व कर चुके हैं, उन्हें भी कांग्रेस को वरिष्ठ भूमिका देकर खुद जूनियर बनकर रहना पसंद नहीं करेंगे। और अगर महागठबंधन बिना कांग्रेस के चुनाव में उतरता है, तो 2019 के चुनाव में मुकाबला त्रिकोणीय हो जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो क्षेत्रीय पार्टियां तथाकथित सेक्यूलर और बीजेपी विरोधी वोटों में सेंध लगा सकती हैं। 

2019: पीएम मोदी पर जनादेश 


जहां विधानसभा चुनाव में ज्यादातर स्थानीय मुद्दों पर मतदान हुआ, वहीं 2019 के चुनाव में मुख्य रुप से प्रधानमंत्री मोदी और उनके कार्यों के आधार पर मतदान होगा। यह बीजेपी के लिए अच्छा साबित हो सकता है। क्योंकि कई सर्वेक्षणों में यह साबित हो चुका है कि मोदी का करिश्मा अब तक कायम है। हालांकि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया है। लेकिन वह लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी के राष्ट्रपति चुनाव जैसे मुकाबले में कमजोर पड़ सकता है। बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले कुछ बड़ी और चौंका देने वाली घोषणाएं कर सकती है, जिनके परिणाम जमीनी स्तर पर दिखें। विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद के दिनों में घटनाक्रम विचित्र मोड़ ले सकते हैं। 

पूर्वोत्तर के मिशन की कामयाबी

मिजोरम से कांग्रेस को सत्ता से बाहर करके, मोदी सरकार का पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त बनाने का सपना पूरा हुआ।  इस क्षेत्र में राज्य प्रशासन पर काबू पाकर लगभग 25 लोकसभी सीटें हासिल कर सकती है। हेमंत विस्व शर्मा की सांगठनिक क्षमता, जिसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मजबूत और बढ़ते हुए नेटवर्क का सपोर्ट है, वह पूर्वोत्तर में बीजेपी को सबसे मजबूत ताकत के रुप में स्थापित करता है। 
 
केसीआर बढ़ा सकते हैं एनडीए का वजन 

कल्वाकुंतल चंद्रशेखर राव की टीआरएस की तेलंगाना में वापसी बीजेपी की मदद कर सकती है। यह कांग्रेस को खत्म करने और चंद्रबाबू नायडू को उनके ही आंध्र प्रदेश में कमजोर करने में मदद कर सकता है। अगर केसीआर ऐसी पार्टियों के साथ जाना कतई पसंद नहीं करेंगे, जिन्होंने उनकी सरकार के खिलाफ महाकुटामी गठबंधन तैयार किया था। इसकी बजाए वह केन्द्र में बीजेपी की स्थायी सरकार पर दांव लगाना ज्यादा पसंद करेंगे, जिससे कि केन्द्र से अपने राज्य के लिए ज्यादा से ज्यादा मदद हासिल करके तेलंगाना के हीरो के रुप में खुद को पेश कर सकें। 

कुल मिलाकर बीजेपी के पास सिर उठाने का मौका है तो जरुर लेकिन इसके लिए उसे विधानसभा चुनाव में मिली हार का गम भुलाकर नए सिरे से रणनीति बनानी पड़ेगी।