नई दिल्ली: नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा अपने पांच वर्षों के शासनकाल में रोजगार सृजन इस चुनाव में विपक्ष का एक बड़ा मुद्दा है। उसका आरोप है कि दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष देने का वायदा बिल्कुल पूरा नहीं हुआ। कांग्रेस का घोषणा पत्र जारी करते हुए पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा कि मोदी सरकार के कार्यकाल में 4 करोड़ 72 लाख रोजगार के अवसर घट गए। यह आंकड़ा कांग्रेस के नेता चुनाव प्रचार में बार-बार पेश कर रहे हैं। 


तो क्या यही सच है? उदारीकरण की दिशा में लंबी दौर लगा लेने के बावजूद भारत की सामाजिक रचना अभी भी उस अवस्था में है जहां किसी के लिए भी एकदम सम्पूर्ण आर्थिक आंकड़ा जुटाना संभव नहीं। रोजगार संबंधी पूरे आंकड़े तो कभी आ नहीं सकते। श्रम ब्यूरो की अपनी सीमाएं हैं और केन्द्रीय सांख्यिकी विभाग की अपनी। 


भारत अमेरिका या यूरोप नहीं है कि आपके पास हर पहलू संबंधी आंकड़े आसानी से उपलब्ध हो जाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब तक के प्रधानमंत्रियों में सबसे ज्यादा लगातार लोगों को मोबाइल के माध्यम से डिजिटल दुनिया से जुड़ने के लिए प्रेरित करते रहें और इसका असर हुआ है। लेकिन देश का संस्कार और संरचना ऐसी है जहां सम्पूर्ण रुप से परंपरागत ढांचे को बदल देना कभी संभव नहीं हो सकता। रोजगार संबंधी आंकड़ों को लेकर जारी विवाद का सच आप इस पहलू की ओर ध्यान दिए बगैर समझ ही नहीं सकते हैं।


 जिस देश में आज भी 10-12 प्रतिशत रोजगार ही संगठित क्षेत्र में हों और शेष असंगठित क्षेत्र में वहां कितने लोगों को किस स्तर का रोजगार है और उनकी आय कितनी है इन सबका आकलन कोई कर भी कैसे सकता है? राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण आखिर कितनी भौगोलिक और जनांकीय सीमा पार करेगा? गांवों में किसी ने एक जनरल स्टोर की दुकान खोला और उसमें पांच लोग काम करते हैं तो उसका पता आपको कैसे चलेगा? किसी ने साइकिल मरम्मत की दूकान खोल ली उसमें कितने को रोजगार है कौन पता करेगा? तो यह सब कठिनाई है। इसमें हम कुछ अलग-अलग तथ्यों और आंकड़ों से मोदी सरकार के दौरान हुए रोजगार सृजन की संख्या के निकट पहुंच सकते हैं। 


मोटे तौर पर रोजगार का संबंध विकास दर से है। पी. चिदम्बरम की बात मान ली जाए तो विकास की गति रुक जानी चाहिए। लोग काम ही नहीं कर रहे हैं तो विकास कहां से हो सकता है। यदि भारत नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े सुधारों के धक्के के बावजूद करीब 7.5 प्रतिशत दर से विकास कर रहा है तो यह बिना लोगों के योगदान के संभव नहीं है। इसका सीधा निष्कर्ष है कि आर्थिक गति जारी है और वह बिना लोगों क भागीदारी के संभव नहीं। तो रोजगार लोगों को मिला है। 


इस समय सबसे ताजा रिपोर्ट हमारे सामने कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) के पास उपलब्ध कंपनियों के वेतन भुगतान संबंधी आंकड़ों का है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) और पेंशन कोष नियामक और विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए) द्वारा चलाई जाने वाली विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जुड़ने वाले लोगों की संख्या के आधार पर रोजगार को लेकर रिपोर्ट जारी करता है। ईएसआईसी के वेतन भुगतान से जुड़े आंकड़े भी इनमें से एक हैं जिन्हें सीएसओ अपनी रिपोर्ट में जारी करता है। ईएसआईसी अपने पास पंजीकृत लोगों को स्वास्थ्य बीमा और चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध कराता है। इसमें वे सभी प्रतिष्ठान शामिल होते हैं जिसमें 20 या अधिक कर्मचारी काम करते हैं और जिनका वेतन 21,000 रुपये तक है। ईएसआईसी की योजना से सितंबर 2017 से दिसंबर 2018 तक 1.96 करोड़ नए अंशधारक जुड़े। इसका मतलब 16 महीनों के दौरान करीब दो करोड़ लोगों को काम मिला। 


अगर आप कर्मचारी भविष्य निधि संगठन या ईपीएफओ की रिपोर्ट पर जाएं तो सितंबर 2017 से दिसंबर 2018 तक 72.38 लाख लोग ईपीएफओ से जुड़े। उसमें कोई बेरोजगार तो धन जमा कराता नहीं। दिसंबर 2018 में 7.16 लाख इससे जुड़े जो एक साल पहले इसी महीने में 2.37 लाख के मुकाबले लगभग तीन गुना है। इसके अनुसार केवल जनवरी 2019 में 8 लाख 96 हजार 516 नए लोग ईपीएफओ से जुड़े। 


क्या बिना नौकरी के किसी कोई ईपीएफओ से जुड़ सकता है? ईपीएफओ के दायरे में भी वे सभी कंपनियां आती हैं जहां 20 से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं। जिन कर्मचारियों का वेतन 15,000 रुपये मासिक तक है, वे अनिवार्य रूप से योजना के दायरे में आते हैं। इसी अवधि में राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली या एनपीएस से जुड़ने वाले अंशधारकों की संख्या 9,66,381 रही। एनपीएस के अंतर्गत केंद्रीय और राज्य सरकार के कर्मचारी आते हैं। आम लोग भी इसे स्वेच्छा से अपना सकते हैं। इसमें कहा गया है कि मौजूदा रिपोर्ट संगठित क्षेत्र में रोजगार के बारे में जानकारी देती है और समग्र रूप से रोजगार का आकलन नहीं करती है।

कन्फेडरेशन और इंडियन इंडस्ट्री यानी सीआईआई ने अपने अध्ययन के आधार पर आंकड़ा जारी किया है। इसके अनुसार सूक्ष्म, मध्य और लघु उद्यमों एमएसएमई में प्रतिवर्ष औसत 13.9 प्रतिशत वृद्धि हो रही है। 1 लाख 5 हजार 347 एमएसएमई को इस सर्वेक्षण में शामिल किया गया था। बैंकों ने आंकड़ा दिया है कि मुद्रा योजना के तहत करीब 16 करोड़ लोगों को कर्ज दिया गया। ये कर्ज स्वरोजगार के लिए ही तो दिया गया। इनमें से 64 प्रतिशत लोग 28 साल से कम आयु के हैं। इसमें 55 प्रतिशत से ज्यादा लाभार्थी अनुसूचित जाति-अनुसचित जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्ग के हैं। इनमें में से 28 प्रतिशत ने पहली बार कर्ज लिया है। कम से कम इतने लोगों के बारे में तो नहीं कहा जा सकता है कि इनके पीछे के कर्ज को ही मुद्रा योजना में बदल दिया गया। मुद्रा योजना में कर्ज लेने वालों में 75 प्रतिशत महिलाएं हैं।


इस सरकार के कार्यकाल के दौरान करीब सात लाख नये पेशेवर करदाताओं की सूची में जुड़े हैं। ये पेशे में अपने साथ कुछ लोगों को तो नौकरियां देते ही होंगे। इसके अलावा स्टार्ट अप इंडिया तथा अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं के लिए आरंभ स्टैंड अप इंडिया के तहत भी रोजगार मिले हैं। 

हम यह मान सकते हैं कि मुद्रा योजना के अंतर्गत जितना आंकड़ा बैंक दे रहे हैं वो शत-प्रतिशत सही नहीं होगा। भ्रष्टाचार का अंश तो यहां होगा ही। लेकिन हम आधा भी सच मान लें तो इतने लोग स्वरोजगार से जुड़े। उनमें से ऐसे लोगों का भी अनुपात होगा जिनने दूसरों को अपने यहां रोजगार दिया होगा। यूपीए सरकार ग्रामीण रोजगार सृजन में मनरेगा को अपना युगांतकारी कदम मानती है। उसके लिए 2013 में 24 हजार करोड़ रुपए बजट खर्च हुआ। 2019 में यह बढ़कर 60 हजार करोड़ हो गया। तो क्या इसमें किसी को रोजगार मिला ही नहीं? मोटरवाहन क्षेत्र बहुत ज्यादा रोजगार देता है। 

एक आंकड़ा व्यावसायिक वाहनों का है। 2017-18 में व्यावसायिक वाहनों की बिक्री 206 प्रतिशत बढ़कर 8 लाख 56 हजार हुआ। इसमें कितने लोगों को रोजगार मिला होगा? ये व्यावसायिक वाहन अगर सड़कों पर यात्री को ले जा रहे हैं या माल ढुलाई के काम में हैं तो इनमें एक में औसत कितने लोग काम करते होंगे इसका आंकड़ा निकालना चाहिए।


इसके अलावा सरकार की जो अन्य योजनाएं हैं जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छता के तहत शौचालय योजना, ग्रामीण सड़क योजना, प्रधानमंत्री सड़क योजना, जल यातायात विकास, नमामि गंगे, सौभाग्य योजना, आम जन को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना, आयुष्मान योजना आदि। इन सारी योजनाओं का लाभ करीब 50 करोड़ लोगों तक पहुंचने का आंकड़ा दिया जा रहा है। 


आवास, शौचालय, सड़क और बिजली ...इनमें तो काम सीधा दिखाई देता है। अगर सवा करोड़ से ज्यादा़ आवास तथा नौ करोड़ से अधिक शौचालय बने हैं तो इनमें कितने लोगों को रोजगार मिला होगा इसका अनुमान खुद लगाइए। इन संख्या को थोड़ा कम करके भी निकालिए। 


39 हजार किलोमीटर उच्चपथ बने है और 50 हजार कि. मी. पर काम चल रहा है। उनके फ्लाइओवर, पुल आदि सब मिला दीजिए। कुल उच्चपथ  विकास कार्यों में से 76 प्रतिशत काम मौजूदा राजमार्गों के सुधार और उन्हें 2 लेन में बदलने का हुआ। सबसे ज्यादा रोजगार तो निर्माण क्षेत्र में ही मिलता है। इसी तरह अगर दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के तहत 5 लाख 97 हजार 464 गांवों तक बिजली पहुंचाई गई तो क्या इसमें किसी को रोजगार मिला ही नहीं होगा? इसके अलावा कौशल विकास को भी हम नजरअंदाज नही कर सकते। 


15 जुलाई, 2015 को शुरू की गई मोदी सरकार की योजना में 2017 तक 2.5 करोड़ युवा प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके थे। 2017 तक कुल 13,912 आईटीआई स्थापित की गई। इनकी क्षमता 77,040 बढ़ाकर कुल 22.82 लाख कर दी गई। 2017 में आईटीआई से 12.12 लाख युवाओं को प्रशिक्षण का अवसर मिला। हम भी मानते हैं कि जितने आंकड़े आते हैं उतने ही और वैसे भी सब कुछ धरातल पर नहीं होते। किंतु 50 प्रतिशत, 40 प्रतिशत तो सच होगा। 

बगैर रोजगार के किसी देश की आर्थिक शक्ति बढ़ ही नहीं सकती। सकल घरेलू उत्पाद 2013 के 1.857 खरब डॉलर से बढ़कर 2018 में 2.7 खरब डॉलर हो गया। भारत फ्रांस को पीछे छोड़कर छठी अर्थव्यस्था बन गया। तो क्या यह बिना आर्थिक क्रियकालापों के ही संभव हुआ? और अगर आर्थिक क्रियाकलाप हुए तो बिना लोगों के काम किए तो हुए नहीं होंगे। विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने पिछले वर्ष नवंबर में अर्थव्यवस्था से संबंधित आंकड़े पेश किए थे। उसने हर क्षेत्र का आकलन करते हुए कहा था कि मांग के क्षेत्र में 11.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 


मांग बढ़ने का अर्थ है कि लोगों की जेब में धन आ रहे हैं। मांग बढ़ने के साथ उत्पादन बढ़ता है, बैंकों से कर्ज जाने और आने का क्रम तेज होता है और इससे समूची अर्थव्यवस्था का चक्र संचालित होता है। इस चक्र में रोजगार स्वयमेव जुड़ा है। इसने नोटबंदी एवं जीएसटी का आकलन करते हुए कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था उसके प्रभावों से अब उबर चुकी है। वास्तव में अगर आप गांवों में जाएं तो आज कृषि के लिए मजदूरों का भयावह संकट है। किसानों के लिए मजदूरों के अभाव में कृषि करना कठिन हो गया है। मशीनें को चलाने के लिए भी तो मजदूर चाहिए। यह जमीनी हकीकत है। अगर इतनी ही बेरोजगारी होती तो मजदूर गांवों में मिलते। भवन निर्माण करने वाले पर्याप्त राज मिस्त्री का अभाव है। यह सब सच है। 


हालांकि इसका मतलब यह मत मान लीजिए कि भारत रोजगार के मामले में एकदम स्वर्ग हो गया है। योग्यता और क्षमता के अनुसार काम तथा उचित पारिश्रमिक की समस्या काफी है। इसे दूर करने की आवश्यकता है। पढ़े-लिखे लोगों में बेरोजगारी दिखाई पड़ती है। किंतु इनमें से बड़ा वर्ग उनका है जिन्होंने पिछले वर्षों में खुलने वाले संस्थानों से डिग्रियां तो ले ली, लेकिन उनको सही शिक्षा नहीं मिली। इंजीनियर हैं लेकिन काम आता नहीं। इसके कई अध्ययन आ गए हैं। आज देश की की समस्या सक्षम इंजीनियरों का अभाव है। एमबीए हैं लेकिन प्रबंधन आता नही। पीएचडी की डिग्री है लेकिन विषय का पर्याप्त ज्ञान नहीं। इनको प्रतिस्पर्धा में नहीं टिकाया जा सकता है।

 कोई कहे कि जिसके पास योग्यता और क्षमता नहीं है उसको भी उसकी डिग्री के अनुरुप काम मिलना चाहिए तो यह कभी और कहीं संभव नहीं। अयोग्य और अक्षम लोगों को कोई जगह नहीं मिल सकती। वैसे रोजगार के संदर्भ में यह भी साफ समझ लेना होगा कि सरकारी और संगठित क्षेत्र में नौकरियों की सीमा है। उसमें कड़ी प्रतिस्पर्धा भी है। इसलिए सरकार अपने स्किल के अनुसार स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने की नीति पर चल रही है। उस पर पूरा फोकस है। उसमें हरसंभव सहायता और सहयोग का ढांचा विकसित हो रही है। यही उपाय है। अभी तक स्वरोजगार के लिए छोटे-छोटे कर्ज देने से बैंक हिचकते थे। एनपीए बढ़ने के बाद इसमें और समस्यायें आईं। मुद्रा योजना इसी चरित्र को दूर करने के लिए है। 


हालांकि अभी भी इनकी मानसिकता बदलने में समय लगेगा किंतु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि कुछ बदला ही नहीं है। और सबसे बढ़कर भारत में आज भी रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियां हैं। कृषि पर फोकस पिछली सरकारों की तुलना में कई गुणा बढ़ा है। हां, अभी भी काफी किया जाना शेष है। किंतु कुल मिलाकर समग्र विवेचना यही बताती है इस सरकार के कार्यकाल में रोजगार के अवसरों में भारी वृद्धि हुई और यह क्रम जारी है। जो आधार रोजगार के बनाए गए है उनका लाभ लंबे समय तक मिलता रहेगा। ढांचगत बदलाव हमेशा लंबे भविष्य का ध्यान रखते हुए किया जा सकता है। 

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)