पटना: बात 2007 की है, बिहार के पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाए सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार की सरकार के बुलावे पर स्वनामधन्य उद्योगपति मुकेश अंबानी पटना आ रहे थे. फ्रेजर रोड का एक रेस्तरां जहां शाम को पत्रकारों और नेताओं की बैठकी होती है, वहां सत्ताधारी दल के एक विधायक ने अपनी पार्टी के एक दूसरे विधायक से जुड़ा एक जुमला सुनाया. छोटे सरकार ने अपने चेले से पूछा, ‘ई मुकेशवा आ रहले है, एकरा त बड़ी पइसा हय. एकरा किडनैप करके टाल में नुका देवय त केतना रुप्पा मिलतै, अन्दाजा हौ?’ (ये मुकेश अंबानी आ रहा है, इसके पास तो बहुत पैसा है, इसका अपहरण करके अपने इलाके में छिपा दिया जाए तो कितना पैसा मिल सकता है, कुछ अंदाजा लगा सकते हो क्या?) 

बेशक बात मजाक की ही रही होगी. फिर भी ऐसे ‘साहसिक’ मजाक भी सबके नाम के साथ जोड़कर नहीं किए जा सकते. मोकामा के बाहुबली विधायक अनंत सिंह इतने ‘डेयरिंगबाज’ रहे हैं कि ऐसे मजाक बस उनके साथ ही बनाए जा सकते हैं. आप उनसे उनके पुराने रिकॉर्ड की बात करें तो वह मूंछों पर ताव देते कहेंगे, हम तो सरकार हैं. आगे की बात उनके चेहरे की कुटिल मुस्कान कहे देगी ‘अगर छोटे सरकार का रिकॉर्ड ऐसा न हुआ तो फिर क्या फायदा?’ अनंत सिंह की खौफ कथा ऐसी है कि वह ‘सिंपली बाहुबली’ नहीं हैं. उस रैंक से प्रमोशन पा चुके हैं, अपराध जगत के कुछ नए तमगे उनके सीने पर सज गए हैं. छोटे सरकार से पहले उनके कारनामे पहुंच जाते हैं.

एक और मजेदार किस्सा है. यह किस्सा तब का है जब स्वच्छ भारत अभियान जैसा कुछ नहीं था. कहीं भी दिशा-मैदान बड़े आराम से किया जा सकता था, हालांकि जो स्वयं सरकार ही है उसके लिए अब क्या और तब क्या! तब अनंत सिंह यानी छोटे सरकार पटना में अपने दल-बल के साथ कहीं जा रहे थे. अचानक उन्हें टॉयलेट जाने की इच्छा हुई, गाड़ी रूकवाई और पटना के पॉश एरिया की किसी पुरानी बिल्डिंग की चाहरदीवारी से लगकर पेशाब करने लगे. घर के मालिक ने छत से देखा तो उसे सांप सूंघ गया. उसके मन में भय समा गया कि उसका घर तो अब गया. अपने दूर के किसी रिश्तेदार या परिवार के करीबी पुलिस के बड़े अधिकारी से संपर्क करके मदद मांगी और पुलिस थाने पहुंचा अपनी रिपोर्ट दर्ज कराई- अनंत सिंह की नजर मेरे घर पर है. कल वह अपने कुछ लोगों के साथ जायजा ले रहे थे. मुझे तत्काल सुरक्षा मुहैया कराई जाए. 

उस व्यक्ति का भय काल्पनिक नहीं था. उसने अखबारों में कुछ दिन पहले अनंत सिंह द्वारा पटना के सबसे महंगे इलाकों में से एक फ्रेजर रोड के एक कब्जे की खबर पढ़ी थी. एक बिल्डिंग जिसमें उसका मालिक एक रेस्तरां भी चलाता था, एक सुबह उसकी नींद खुली तो लोहे के बड़े से मेनगेट पर एक नेमप्लेट लगा था- ‘यह अनंत सिंह की संपत्ति है.’ उस व्यक्ति ने प्रशासन से लेकर ‘बड़े सरकार’ नीतीश कुमार के जनता दरबार तक में गुहार लगाई थी, लेकिन छोटे सरकार का कोई बाल तक बांका न हुआ. जब अखबारों में ‘बड़े सरकार’ की छोटे सरकार के आगे हाथ जोड़े तस्वीरें छपती हों उन पर हाथ कौन डाल सकता है. 

नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने पर जहां पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, आनंद मोहन, राजबल्लभ यादव, रामा सिंह और ऐसे दर्जनों बाहुबलियों पर लगाम कसी जा रही थी, वहीं अनंत सिंह बाहुबली से छोटे सरकार की रौबदार उपाधि की ओर बढ़ते गए. नीतीश कुमार से जब एक बार अनंत सिंह के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा था, “राजनीति की अपनी मजबूरियां होती हैं.” 

तगड़ी कदकाठी और रोबदार मूंछों वाला व्यक्ति जिसे कई बार रात में भी आंखों पर काला चश्मा सिर पर काउबॉय हैट लगाए सिगरेट फूंकते देखा जा सकता है, सोनपुर पशुमेले में जिसकी गायों के गले में है दो सौ से ढाई सौ ग्राम सोने की चेन की तस्वीरों वाली खबरों के बिना एशिया के सबसे बड़े पशुमेले की रिपोर्टिंग पूरी नहीं होती, जिसके घर में हाथी-घोड़े मिलेंगे तो पालतू अजगर भी. जो कभी घर-बार छोड़कर साधु बनने चला गया था और आज जिस पर अपराध के बेहिसाब मुकदमे चल रहे हैं. जो अपने ड्राइंगरूम में हाथी लेकर आ सकता है और जो एक नेशनल न्यूज के पत्रकार को इंटरव्यू के बीच में इस बात के लिए टोक सकता है कि उसके खिलाफ अपराध के मामले कम करके क्यों गिनाए जा रहे हैं. छोटे सरकार अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय हैं. 

इनके चलने के लिए कोई मित्र डेढ़ करोड़ की गाड़ी घर पर छोड़कर चले जाते हैं (ऐसा उनका दावा है), पटना साहिब गुरुद्वारे में लंगर छकने जाते हैं तो अपने साथ जूता खोलने वाले सहायक लेकर जाते हैं, सरेआम एके-47 लहरा सकते हैं, अपनी बग्घी पर लगे म्युजिक सिस्टम में ‘हम हैं मगहिया डॉन, लोग कहें छोटे सरकार’ का गाना बजाते हैं, जो असहज सवाल पूछने पर पत्रकारों की पिटाई कर सकते हैं, अपने भाई के हत्यारे की हत्या के लिए तैरकर नदी पार करने के बाद उसे पत्थर से कुचलकर मार सकते हैं, जिसपर हत्या, अपहरण, अवैध हथियार, बलात्कार से लेकर आईपीसी की सभी धाराओं में छोटे-बड़े करीब 150 केस दर्ज हैं और जो व्यक्ति इतना दिलेर है कि अपराध के अपने किस्से पत्रकारों को खुद सुनाता है। 

जिसके बारे में शिकायत सुनकर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव यह कहते हुए उठकर खड़े हो सकते हैं कि ‘वह उल्टी खोपड़ी का है. दिलीप सिंह से बात करिए वही उसे समझा सकते हैं’. अनंत सिंह के आगे लालू से लेकर नीतीश तक आखिर क्यों मजबूर हो जाते हैं? इसे ठीक से समझने के लिए छोटे सरकार से पहले उनके उसी बड़े भाई और पूर्व मंत्री दिलीप सिंह की चर्चा कर लेते हैं, जिनकी विरासत अनंत सिंह संभाल रहे हैं और जिनसे मिलने की सलाह लालू ने कभी कुछ शिकायती पत्रकारों को दी थी.  

कहानी की शुरुआत होती है 80 के दशक से। जब मध्य बिहार का बड़ा एक तस्कर हुआ करता था- कामदेव सिंह. उनका कार्यक्षेत्र था भारत नेपाल सीमा. दरअसल नेपाल के पास कोई बंदरगाह नहीं है इसलिए नेपाल पहुंचने वाला कोई सामान कलकत्ता पहुंचता था. वहां से बरौनी और फिर बरौनी की छोटी लाइन से नेपाल. बरौनी में तेल रिफाइनरी भी है तो नेपाल को सारा तेल यहीं से जाता था. कामदेव सिंह का गैंग नेपाल जाने वाले इसी माल को बीच रास्ते में उतारकर अपने तरीके से नेपाल में भेजा करता था. रेलवे के साथ एकतरह का आपसी समझौता जैसा था- मालगाड़ियों के कर्ताधर्ता कामदेव सिंह का हिस्सा खुद ही छोड़ दिया करते थे. 

कामदेव सिंह हथियार को छोड़कर सभी तरह की स्मग्लिंग किया करते थे. गंगा किनारे टाल क्षेत्र (नदी के रास्ता बदलने से निकलने वाली जमीन) में पड़ता है नदमा गांव जिसे लदमा नाम से भी जाना जाता है. 90 के दशक के अंत तक भी बाढ़ स्टेशन से सकसौरा तक टमटम इक्के ही आवागमन का मुख्य जरिया हुआ करते थे क्योंकि सड़क यहां कभी बनी ही नहीं थी. 

नदमा के दिलीप सिंह के पास कई घोड़े थे. इस इलाके में घोड़ों की बड़ी अहमियत है क्योंकि नदी जब रास्ता बदलती है तो रेत या कीचड़ वाली मिट्टी छोड़ जाती है जिसमें सिर्फ घोड़े ही कारगर हैं. दिलीप सिंह ने घोड़े पाले और टमटम चलवाने लगे. उनके पिता के पास ठीक-ठाक खेती थी और वह कम्युनिस्टों के बड़े समर्थक थे. धीरे-धीरे दिलीप सिंह को लगा कि रंगदारी में ज्यादा मजा, ज्यादा फायदा है. 

वह कामदेव सिंह के साथ जुड़े और धीरे-धीरे उनके खासमखास आदमी हो गए. दिलीप सिंह ने अपने उस्ताद के कारोबार में हाथ डालना उचित नहीं समझा. सो उन्होंने हथियार और जमीन कब्जे के धंधे पर फोकस किया और बड़ी तल्लीनता से लगे रहे. मेहनत रंग लाई और उनकी ‘शोहरत’ जमीन पर कब्जा दिलाने वाले रंगदार के रूप में होने लगी. नाम न छापने की शर्त पर उनको बहुत करीब से जानने वाले एक व्यक्ति बताते हैं कि दिलीप सिंह जमीन कब्जे का काम बहुत प्रोफेशनल तरीके से करते थे. कब्जे का कोई सौदा दिलवाने के लिए कमीशन का भी प्रावधान रखा जाता था. 

काम करने में उनकी सफाई ऐसी थी कि एक मारवाड़ी व्यापारी ने इलाहाबाद के अपने एक घर पर वापस कब्जा पाने में दिलीप सिंह की मदद ली थी. यानी टाल क्षेत्र के रंगदार का रसूख उत्तर प्रदेश तक पहुंच चुका था. 

बाद में कामदेव सिंह की हत्या हो गई. उसके चेले-चपाटों में से दिलीप सिंह सबसे प्रतिभावान निकले और तेजी से उभरे. सबसे पहले कम्युनिस्ट पार्टियों ने दिलीप सिंह की उपयोगिता समझी और इस्तेमाल किया पर उतना पैसा नहीं बन पाता था जितनी उनकी हसरत थी. 

लेकिन कांग्रेस के नेता श्याम सुंदर सिंह ‘धीरज’ असली जौहरी निकले. दिलीप सिंह को साथ लिया तो फिर मोकामा से चुनावी राह आसान हो गई. यह वह दौर था जब बिहार के इस हिस्से में बूथ लूट के किस्से महीनों चटखारे लेकर सुने-सुनाए जाते थे. कुछ सच्चे, कुछ झूठे. स्वाद तो ऐसे ही चढ़ता है. नाम न छापने की शर्त पर उस दौर में टाल क्षेत्र का चुनाव करा चुके और सेवानिवृति की कगार पर खड़े एक अधिकारी बताते हैं, 
“चुनाव कराने के लिए टाल क्षेत्र में अमूमन पुलिस नहीं जाती थी. रस्मी तौर पर होमगार्ड के जवानों को भेज दिया जाता था. सबको जान प्यारी है. होमगार्ड के जवानों को कोई खास मुआवजा भी नहीं मिलना था.” 

कहते हैं, दिलीप सिंह के लोग पौ फटने से पहले असलहों के साथ सवा किलो सूखा भूजा लेकर बूथ लूटने निकल जाते थे. इसे साधारण भूजा समझने की गलती न करें. इसमें चावल और चने के साथ सात तरह के मेवे डाले जाते थे, जायका के साथ-साथ एक्सट्रा ताकत के लिए थ्रेप्टिन बिस्कुट (प्रोटीन बिस्कुट का मशहूर ब्रांड) चूरकर मिलाया जाता था. दिलीप सिंह के लोग तय शाम तक पक्का हिसाब बता देते थे कि उनका उम्मीदवार कितने वोटों के अंतर से जीतेगा. तो क्या दिलीप सिंह हमेशा दूसरों के लेफ्ट-राइट हैंड ही बने रहे? नहीं.

कहते हैं कि श्याम सुंदर सिंह ‘धीरज’ बिहार सरकार में मंत्री बने. एक सुबह दिलीप सिंह पटना के उनके सरकारी आवास में मिलने चले आए. मंत्रीजी को दिलीप सिंह की ताकत तो चाहिए थी, मगर चुपके-चुपके. उन्होंने कह दिया, दिन दहाड़े मिलने मत आया करो. कोई अधिकारी या शरीफ आदमी नहीं हो. शाम ढलने के बाद आया करो और वह भी चुपके-चुपके. यह बात दिलीप सिंह को लग गई. उन्हें समझ में आ गया कि बेशक मोकामा के लोग यह कहें कि चुनाव दिलीप सिंह ने जीता है पर वहां से बाहर निकलते ही वह एक चोर हैं, वोटों का चोर जिससे सफेदपोश दिन के उजाले में मिलने से भी कतराते हैं. उन्हें समझ में आ गया कि कल को नया दिलीप सिंह मिल गया तो उनकी छुट्टी के फैसले पर मुहर लगाने में मंत्रीजी को एक मिनट भी नहीं लगेगा. 

फिर क्या था दिलीप सिंह ने ऐलान किया कि अब वह चुनाव लड़वाएंगे नहीं, खुद लड़ेंगे और मंत्री बनेंगे. अगले ही चुनाव में वो श्याम सुंदर सिंह को हराकर लालू सरकार में मंत्री भी बन गए. अब दिलीप सिंह सफेदपोश हो चुके थे. वह जो काम श्याम सुंदर सिंह के लिए किया करते थे, खुद खुलेआम नहीं कर सकते थे. उन्हें जरूरत थी, एक भरोसेमंद हाथ की. 

ऐसे में छोटे भाई अनंत सिंह से बेहतर कौन होता जो दो हत्याएं करके रंगदारी बनने की राह पर निकल चुके थे. कहते हैं, अनंत सिंह को कम उम्र में अचानक वैराग्य समा गया. वह साधु बनने के लिए हरिद्वार और अयोध्या प्रवास को चले गए. पर जैसे संत न छोड़े संतई, वैसे लंठ न छोड़े लंठई. साधुओं के जिस दल में थे वहां झगड़ा हो गया. मन संतई के शौक से उचट ही रहा था कि खबर मिली, बड़े भाई बिरंची सिंह की हत्या हो गई है. चार भाइयों में बिरंची सबसे बड़े थे और अनंत सबसे छोटे. 

बड़े भाई की हत्या से अनंत पर बदले की सनक सवार हो गई थी. बाढ़ क्षेत्र के पुराने लोग बताते हैं कि अनंत दिन-रात भाई के हत्यारे की खोज किया करता था. एक दिन खबर मिली की हत्यारा नदी पार किसी ताड़ी वाले के पास बैठा है तो उसे मारने को तैरकर नदी पारकर गए और ईंट-पत्थरों से पीट-पीटकर मार डाला. 

अनंत सिंह ने 1990 के बाद 1995 का भी चुनाव जीता. अनंत के बड़े भाई दिलीप सिंह का भी एक खासमखास शूटर हुआ करता था, जिसे लोग सूरजा सिंह कहते थे. सूरजा यानी सूरजभान सिंह आगे चलकर क्षेत्र के एक और बाहुबली हुए जिनकी तूती बिहार और यूपी तक बोलती थी. सूरजभान पहले विधायक और फिर सांसद बने. चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित होने पर इन्होंने अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाया और 2019 में लोकसभा में उनकी विरासत संभालने की जिम्मेदारी छोटे भाई कन्हैया सिंह को दी है. 

इतिहास खुद को दोहराता है. दिलीप की काट के लिए धीरज ने उनके चेले सूरजभान को राजनीति के फायदे समझाए तो सूरजभान ने  टिक्कर सिंह और खिक्खर सिंह सरीखे दबंगों के साथ मिलकर अपने उस्ताद को चुनौती दी और 2000 के विधानसभा चुनावों में हरा भी दिया. 

हालांकि अनंत सिंह ने 2005 में अपने भाई की सीट मोकामा सूरजभान से वापस छीन ली. सूरजभान की कहानी भी कम फिल्मी नहीं है. उसकी चर्चा अगले अंक में होगी.  

2004 में, नीतीश कुमार अपने पुराने क्षेत्र बाढ़ से लोकसभा चुनाव हार गए थे. उन्हें लगता था कि भूमिहारों ने साथ नहीं दिया. नीतीश को भूमिहारों के समर्थन की जरूरत थी. अनंत सिंह अपराध और फिर राजनीति के रास्ते इलाके में ‘रॉबिनहुड’ की छवि बनाते जा रहे थे. लोगों के इलाज में मदद और लड़कियों की शादी में सहायता करके धीरे-धीरे वह लोकप्रिय होते जा रहे थे. और यही तथ्य नीतीश को अनंत के करीब लेकर आया. 

2005 में नीतीश मुख्यमंत्री बने. अनंत और नीतीश के बीच ‘छोटे’ और ‘बड़े’ का रिश्ता अच्छा निभ भी रहा था लेकिन सरेआम एके-47 लहराकर, सरकारी आवास में एक नाबालिग से बलात्कार की खबर और फिर एनडीटीवी के पत्रकारों की पिटाई, छोटे सरकार एक के बाद एक परेशानियां खड़ी कर रहे थे. वह नीतीश के लिए बोझ बनते जा रहे थे. यह सब चल ही रहा था कि साल 2015 में अनंत सिंह के परिवार की किसी महिला को बाढ़ बाजार में चार लड़कों ने छेड़ दिया. कहा जाता है कि इलाके में एक नया डॉन उभरने की कोशिश कर रहा था और उसने छोटे सरकार को सीधी चुनौती दी थी. 

17 जून 2015 की शाम अनंत सिंह के पटना के आवास से कुछ लोग सबक सिखाने निकले. चार लड़कों को बीच बाजार से उठाकर अधमरा कर दिया. उनमें से पुटुस यादव के तो गुप्तांग काटकर तड़पा-तड़पाकर मारा गया था. इस घटना ने जोर पकड़ लिया। इधर पटना में राजनीतिक समीकरण बदल चुके थे. 

2014 के लोकसभा चुनावों के बाद नीतीश और लालू करीब आ चुके थे. नीतीश मुख्यमंत्री तो अब भी थे लेकिन अब लालू उनके साथ थे. बाहुबली से नेता बने पप्पू यादव ने लालू से बगावत करके अपनी नई पार्टी बनाई थी और राजनीतिक जमीन तलाश रहे थे. पुटुस यादव की हत्या ने उन्हें मौका दे दिया. पप्पू यादव पुटुस की हत्या के लिए इंसाफ दिलाने बाढ़ पहुंच गए. पप्पू की सक्रियता से लालू की पेशानी पर बल पड़े. लालू ने दवाब बनाया तो अनंत सिंह को अब और बचाना नीतीश कुमार के लिए मुश्किल हो गया. 

चार जिलों की पुलिस के करीब 500 जवानों के साथ कार्रवाई हुई और पांच घंटे चले ड्रामे के बाद आखिरकार छोटे सरकार गिरफ्तार हुए. हालांकि उनके घर पर एसटीएफ ने दस साल पहले 2004 में भी धावा बोला था. घंटों गोलीबारी हुई थी. गोली अनंत सिंह को भी लगी थी. मगर वह बच गए थे. इस एनकाउंटर में एसटीएफ का एक जवान और अनंत सिंह के आठ लोग मारे भी गए थे लेकिन गिरफ्तारी नहीं हुई थी. उसके बाद अनंत सिंह ने किले जैसे अपने घर में खुद को कैद कर लिया और इस घर में करीब 50 परिवारों को किराए पर रख लिया ताकि पुलिस या एसटीएफ द्वारा दोबारा धावा बोले जाने की स्थिति में ये लोग ढाल का काम कर सकें. 

2015 का चुनाव अनंत सिंह ने बतौर निर्दलीय प्रत्याशी, जेल से लड़ा. नारा दिया गया- ‘बहू बेटी से अत्याचार, नहीं सहेंगे छोटे सरकार’. यह बात दीगर है कि खुद अनंत सिंह पर बलात्कार के आरोप हैं. उन्होंने बिहार के दो दिग्गजों लालू-नीतीश की जोड़ी के साझा उम्मीदवार को 18,000 वोटों से मात दी. यह अंतर पिछले चुनावों से दोगुना था. 

लेकिन आगे चलकर नीतीश और अनंत की राहें जुदा होने लगीं हैं. आगे चलकर नीतीश और लालू का संबंध भी टूट गया और वह भाजपा के साथ आ मिले लेकिन छोटे सरकार की कड़वाहट नहीं खत्म हुई. वह अब भी नीतीश पर हमलावर रहते हैं. उन्होंने अपनी पत्नी नीलम देवी के लिए मुंगेर लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट का जुगाड़ कर लिया है. 

मजे की बात यह कि बिहार में कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने वाले राजद के कर्ता-धर्ता तेजस्वी यादव ने अनंत सिंह को कई दफा सार्वजनिक रूप से खरी-खोटी सुनाई हैं.


    
अनंत सिंह फिलहाल जमानत पर बाहर हैं. निचली अदालत से उन्हें एक ही दिन लगभग हर मामले में जमानत मिल गई थी. जमानत देने वाले जज के रिटायरमेंट में थोड़े ही दिन बाकी थे. तो यह अफवाह उड़ी कि छोटे सरकार ने मोटी रकम चुकाकर जमानत खरीदी है. 
थोड़े दिनों बाद एक दिलचस्प अफवाह और उड़ी. छोटे सरकार ने रिटायरमेंट के बाद जज साहेब को दिया अपना पूरा पैसा वसूल भी लिया. छोटे सरकार यूं ही नहीं छोटे सरकार हैं. अनंत सिंह की कथा अनंता, पर आज इतना ही. अगली कहानी में बात होगी बाहुबली सूरजभान सिंह की जिनके भाई लोकसभा चुनाव में किस्मत आजमा रहे हैं.   

राजन प्रकाश
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं, बिहार और पूर्वांचल के विषयों पर उनकी गहरी पकड़ है)