नई दिल्ली: 27 मार्च इतिहास के महत्वपूण अध्याय में दर्ज हो गया हे। भारत ने जैसे ही 300 किमी पृथ्वी की कक्षा में लाइव लियो उपग्रह को निशाना बनाकर ध्वस्त किया अंतरिक्ष सामरिक क्षेत्र की चौथी महाशक्ति बन गया। अभी तक यह क्षमता दुनिया के तीन देशों अमेरिका, रुस और चीन को हासिल थी। जब 11 जनवरी 2007 को चीन ने धरती से छोड़े गए मध्यम दूरी के बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र द्वारा अंतरिक्ष में 537 मिल यानी 865 किलोमीटर पर स्थित अपने मौसम संबंधी पुराने उपग्रह को नष्ट किया तो दुनिया में हाहाकार मचा था। उस समय चीन ऐसी क्षमता वाला तीसरा देश बना था। चीन द्वारा ऐसा किए जाने के बाद से ही भारत में चिंता पैदा हो गई। 12 वर्षों बाद भारत ने वही क्षमता हासिल की है। 

हालांकि राजनीति ने भारत की इस महान वैज्ञानिक उपलब्धि को थोड़ा फीका किया हे लेकिन इससे जो कुछ हो गया उसका महत्व खत्म नहीं हो जाता। हमारे यहां इस पर चाहे जितना राजनीतिक तू तू मैं मैं हो, दुनिया के प्रमुख देश भौचक्के हैं कि आखिर भारत ने ऐसा कैसे कर लिया। 

जिस तरह 1998 में नाभिकीय परीक्षण हो जाने के पहले दुनिया को भनक तक नहीं लगी ठीक वैसे ही इस मामले में हुआ है। पाकिस्तान को छोड़कर किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी है। चीन ने जब स्वयं ऐसा किया हुआ है तो वह भारत के खिलाफ कैसे बोल सकता है। किंतु उसे अच्छा नहीं लगा होगा यह साफ है।

वास्तव में यह कोई सामान्य उपलबिध नहीं हे। लाइव उपग्रह तीव्र गति से अपने कक्ष में चक्कर लगाते रहते हैं। पृथ्वी की अपनी गति है। उसमें निशाना लगाना आसान नहीं होता। यह वैसे ही है जैसे रायफल से निकली हुई गोली को दूसरी गोली से निशाना बनाना। 
भारत इस मायने में भी पहला देश हो गया है जिसने पृथ्वी की कक्षा के इतने पास अपने उपग्रह को निशाना बनाया है। सिर्फ तीन मिनट में सफलतापूर्वक यह ऑपरेशन पूरा किया गया। यह अत्यतं कठिन ऑपरेशन था, जिसने बहुत ही उच्च कोटि की तकनीकी क्षमता की आवश्यकता थी। भारत ने ऐसा करके दुनिया में अंतरिक्ष सामरिक क्षमता की अपनी धाक जमा लिया है। 

चीन और भारत के उपग्रह नष्ट करने के कदम में अंतर यह है कि लीयो उपग्रह का कचरा अंतरिक्ष में नहीं रह पाएगा। हमने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण वाले क्षेत्र में स्थित उपग्रह को नष्ट किया है। इसलिए इसके अवशेष दो सप्ताह में अपने-आप पृथ्वी पर गिर जाएंगे जबकि चीन के कचरे की सफाई आज तक नहीं हुई। 

उपग्रह ध्वस्त करने को लेकर सबसे बड़ी चिंता दुनिया को अंतरिक्ष कचरे की होती है जो भविष्य में बड़े विनाश के कारण बन सकते हैं। उपग्रह रोधी मिसाइल या ए सैट यानी एंटी सेटेलाइट मिसाइल विकसित करना सामान्य होता तो फ्रांस रुस जर्मनी जापान जैसे देश ऐसा कर चुके होते थे। इसी से पता चलता है कि हमारी क्षमता क्या है। 

दरअसल भारत का संस्कार जुगाड़ तकनीक का है और वैज्ञानिक भी कई बार उसी संस्कार से चमत्कार कर देते हैं। इसके लिए भारत को कहीं से भी तकनीकी सहयोग नहीं मिलना था ना मिला। लेकिन हमारे वैज्ञानिकों ने सम्पूर्ण स्वदेशी तकनीक और अुसंधान पर आधारित अग्नि मिसाइल और अडवांस्ड एयर डिफेंस सिस्टम को मिलाकर ए सैट मिसाइल प्रणाली तैयार कर दिया। हमारे वैज्ञानिक एवं तकनीशियन सैल्यूट के पात्र हैं।

आम मिसाइल में  वारहेड लगाए जाते जाते हैं जो अपने लक्ष्य से टकराते हैं और विस्फोट में नष्ट कर देते हैं। पहले ऐसा ही किया जाता था। अब यह बदल गया है। भारत ने भी अपने एंटी सेटेलाइट मिसाइल यानी उपग्रह रोधी मिसाइल में आम मिसाइल की तरह वारहेड नहीं लगाया। भारत ने  बिना विस्फोटक यानी बारुद के उपग्रह को नष्ट करने का काम किया है।

 इसमें काइनेटिक उर्जा का उपयोग हुआ जिसमें केवल भौतिक प्रतिक्रिया से उपग्रह नष्ट होते हैं। वारहेड की जगह एक मेटलल स्ट्रि लगा दिया गया जो उपग्रह पर गोले की तरह गिरता है एवं प्रतिक्रिया में वह नष्ट हो जाता है। इस तरह हमारे पास उपग्रह रोधी मिसाइल आ गई है। 

इस परीक्षण के आधार पर आवश्यकता के अनुसार हम उसे तैयार कर रख सकते हैं ताकि आवश्यकता पड़ने पर किसी भी देश के उपग्रहों को निष्क्रिय या नष्ट किया जा सके। वैसे आजतक किसी भी युद्ध में इस तरह के हथियारों का उपयोग नहीं किया गया है। लेकिन अब यह जरुरी हो गया है। 

वैसे भी इस श्रेणी के मिसाइल का उपयोग केवल उपग्रह नष्ट करने तक ही सीमित नहीं है। आकाश से लेकर धरती पर किसी भी गतिमान अस्त्र का पीछा कर उसे नष्ट करने की क्षमता हमारे पास आ गई है। जैसा हम जानते हैं उपग्रह काफी छोटे होते हैं। जब उनको नष्ट किया जा सकता है तो उस तरह की छोटा कोई भी लक्ष्य वेधा जा सकता है। 

वस्तुतः 2012 में जब हमने अग्नि 5 मिसाइल का परीक्षण किया उसके बाद ही हमारे पास ऐसा करने की क्षमता आ गई थी। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन के पूर्व अध्यक्ष वी. के. सारस्वत तथा भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व अध्यक्ष माधवन नायर ने कहा है कि तत्कालीन सरकार के साहस न दिखाने के कारण भारत को इतना समय लगा। बकौल सारस्वत उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सहालकार एवं राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सामने पूरा प्रेंजेंटेशन दिया था। बहुत ध्यान से सुना देखा गया लेकिन बाद में हरी झंडी नहीं मिली। 

सरकार बदलने के बाद यही प्रेजेंटेशन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने आगे बढ़ने की अनुमति दे दी और परिणाम सामने है। भारत ने मिशन शक्ति कोड नाम से इस पर काम आरंभ किया। करीब 300 वैज्ञानिक एवं तकनीशियन 6 महीने तक चुपचाप इस मिशन पर काम करते रहे। अंतत: मिसाइल का बालासोर में सफल परीक्षण कर दिया गया। 

लेकिन हम चार-पांच वर्ष देर से यह उपलब्धि हासिल कर पाए। ऐंटी सैटलाइट सिस्टम को अच्छे बूस्ट की जरूरत होती है। यह करीब 800 किमी है। अगर आप 800 किमी तक पहुंच सकते हैं और आपके पास निर्देशन प्रणाली है तो अंतरिक्ष में सैटलाइट को मार गिराया जा सकता है। अग्नि-5 में यह क्षमता मौजूद है।  निश्चय ही यूपीए सरकार के अंदर दुनिया की प्रतिक्रिया को लेकर भय रहा रहा होगा। इसी भय के कारण जो नाभिकीय परीक्षण 1986-87 में होना था वह 1998 में हो पाया। 

देश की सुरक्षा और सामरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए बहुत साहस की आवश्यकता है। कई बार कोई एकपक्षीय वैश्विक कानून इसके रास्ते आता है तो उसकी परवाह किए बिना आगे बढ़ना होता है तथा इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना होता है। 
भारत हमेशा से शांतिप्रिय देश रहा है और अंतरिक्ष में हथियार होड़ का इसका पक्ष कभी नहीं रहा। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी देश और दुनिया के अपने संबोधन में यह साफ किया है कि हमारी नीति बदली नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं विश्व समुदाय को भी आश्वस्त करना चाहता हूं कि हमने जो यह नई क्षमता हासिल की है, वह किसी के विरुद्ध नहीं है। यह तेज गति से आगे बढ़ रहे देश की सुरक्षात्मक पहल है। भारत अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ के विरुद्ध रहा है। 

प्रधानमंत्री ने कहा कि इस क्षेत्र में शांति-सुरक्षा के लिए मजबूत भारत आवश्यक है। भारत ने अंतरिक्ष क्षेत्र में जो काम किया है, उसका मूल उद्देश्य भारत की सुरक्षा, भारत का आंतरिक विकास और प्रगति है। आज का यह मिशन शक्ति इन सपनों को सुरक्षित करने की ओर एक अहम कदम है, जो इन तीनों स्तंभों की सुरक्षा के लिए आवश्यक था। हम अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण विकास के लिए उपयोग करने की नीति पर कायम हैं। हम कभी भी युद्ध को बढ़ावा नहीं देंगे। हमारा कदम बिल्कुल सुरक्षात्मक है। दुनिया को किसी तरह की शंका नहीं करनी चाहिए। 

वास्तव में यह संक्षिप्त अंतरिक्ष सामरिक डॉक्ट्रिन यानी सिद्धांत हो गया। नाभिकीय विस्फोट के बाद भी भारत ने अपने नाभिकीय सिद्धांत कें पहले उपयोग न करने की घोषणा कर दी थी। भारत के जिम्मेवार रिकॉर्ड को देखते हुए पाकिस्तान के अलावा कोई शंका उठा भी नहीं सकता है। चीन ने जब ऐसा किया तो जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। अमेरिका का बयान तीखा नहीं था लेकिन प्रतिकूल तो था ही। उसने कहा था कि चीन का कदम शांति की उसकी घोषित नीति के अनुमूल नहीं है। तो यह भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि एवं प्रमुख देशों के साथ विश्वसनीय संबंधों की परिणति है कि एकदम तीखी प्रतिक्रिया हमारे खिलाफ नहीं आ रही है। 


यह सुरक्षात्मक, क्षेत्रीय-अंतरराष्ट्रीय सामरिक शक्ति संतुलन तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से भी बहुआयामी उद्देश्यों वाला कदम है। भारत अंतरिक्ष की एक प्रमुख शक्ति है। अलग-अलग उपयोगों के लिए हमारे उपग्रह अंतरिक्ष में सक्रिय हैं। अंतरिक्ष पर हमारी निर्भरता कितनी बढ़ गई है यह बताने की आवश्यकता नहीं। देखा जाए तो जीवन के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में उपग्रहों की भूमिका है और हमारे उपग्रह रक्षा, आपदा प्रबंधन, टेलीविजन, मोबाइल, रेडियो, मनोरंजन, कृषि, मौसम की जानकारी, नेविगेशन, शिक्षा, मेडिकल आदि हर क्षेत्र में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इतने विस्तार के बाद इनकी सुरक्षा व्यवस्था आवश्यक है। जब 12 वर्ष पहले चीन ने यह साबित कर दिया कि वह अंतरिक्ष में किसी भी मिसाइल को मार गिरा सकता है तो फिर हम आंखें मूंदकर नहीं रह सकते। इतना ही नहीं चीन ने किसी उपग्रह की देखने की शक्ति खत्म करने की क्षमता भी हासिल कर लिया है। यानी वह उपग्रहों को अंधा बना सकता है, जिससे वे काम करना बंद कर दें। 

कल्पना करिए किसी दिन हमारे एक दो उपग्रहों को भी नष्ट कर दिया गया तो क्या स्थिति होगी। पूरी जीवन प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी। इसलिए हमें अपने उपग्रहों की सुरक्षा सुनिश्चित करना अनिवार्य था। आजकल जासूसी के लिए भी उपग्रहों का इस्तेमाल होता है। तो अब कोई हमारे क्षेत्र में ऐसा साहस नहीं कर पाएगा। भारत इस समय दनिया के अनेक देशों का उपग्रह प्रक्षेपित करता है। किसी उपग्रह को मार गिराने की क्षमता का प्रदर्शन करने से यह संदेश गया है कि समय आने पर भारत उनके उपग्रहों की रक्षा भी कर सकता है। 

वैसे भी एशिया में चीन को अकेले इस मामले मे एकल महाशक्ति रहने देना शक्ति संतुलन के सिद्धांत के विपरीत है। जब भारत सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए प्रयासरत है तो उसे हर दृष्टि से अपनी क्षमता दर्शाने की आवश्यकता है। वर्तमान विश्व व्यवस्था में आर्थिक विकास के साथ सामरिक क्षमता ही किसी देश के महाशक्ति बनकर वैश्विक भूमिका निभाने की अर्हंता हो चकी है। अब भारत जल, नभ, थल के साथ अंतरिक्ष की सामरिक क्षमता भी हासिल कर चुका है। नाभिकीय ताकत तो हम हैं हीं। 

कहने का तात्पर्य यह कि भारत ने इस महान उपलब्धि से अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य हासिल किया है। इससे राष्ट्र का अपनी क्षमता के प्रति आत्मविश्वास बढ़ता है तथा गौरवबोध होता है। तो यह क्षण भारत के प्रति आत्मगौरव का बोध कराने वाला है जिसे राजनीति मलिन कर रही है। विपक्षी दलों की समस्या है कि प्रधानमंत्री ने इसकी घोषणा क्यों की? 

दुर्भाग्यपूर्ण आपत्ति है। प्रधानमंत्री को छोड़कर ऐसे मामलों पर देश और दुनिया को संबोधित कौन कर सकता था? इसमें अपनी उपलब्धियों को बताने के साथ भारत की अंतरिक्ष सामरिक नीति के बारे में दुनिया के आश्वस्त भी करना था। यह भूमिका राजनीतिक नेतृत्व ही निभा सकता था। हमारे देश में राजनीतिक दलों की अजीब कुंठा है। राजनीति को परे रखकर देश की महान उपलब्धि में सहभागी होने की बजाय हम आपस में आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं। किंतु भारत की राजनीति जिस अवस्था में पहुंच गई है उसमें इससे परे कुछ सकारात्मक उम्मीद कर भी नहीं सकते। 

चीन ने जब यह कारनामा किया तो तो वहां से कभी एक शब्द विरोध में नहीं आया। आ भी नहीं सकता था। अमेरिका ने 1950 के दशक से ही इसका प्रयोग आरंभ कर दिया था। 1950 में अमेरिका ने डब्लूएस-199ए नाम से रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मिसाइल परियोजनाओं की एक श्रृंखला शुरू किया था। अमेरिका ने 26 मई 1958 से 13 अक्टूबर 1959 के बीच 12 परीक्षण किए, लेकिन ये सभी असफल रहे थे। 

किंतु वहां किसी ने प्रश्न नहीं उठाया कि ऐसा क्यों हो रहा है। रुस जब सोवियत संघ था तो उसने अंतरिक्ष की सामरिक महाशक्ति बनने का अभियान चलाया। वह भी आरंभ में सफल नहीं हुआ। 1967 से 1982 तक उसने ऐसे अनेक सफल परीक्षण किए। इस बीच अमेरिका ने भी सफलतायें हासिल कीं। खासकर रोनाल्ड रेगन के के काल में तो लगातार परीक्षण हुए। अमेरिका द्वारा अंतिम बार 13 सितंबर 1985 को उपग्रह विरोधी परीक्षण किया गया था। तत्कालीन दोनों महाशक्तियों की भूमिका से ऐसा लगने लगा मानो अंतरिक्ष युद्ध आरंभ हो जाएगा। रेगन के कार्यकाल की महत्वाकांक्षी स्टार वार योजना काफी चर्चित थी। इसे मिसाइल रक्षा प्रणाली कहा गया था। यह व्यवहार में अंतरिक्ष में अमेरिका के वर्चस्व स्थापना की ही योजना थी। हालांकि बाद में इसे वापस ले लिया गया। 

अब इस तरह की होड़ नहीं है। तब भी 21 फरवरी 2008 को अमेरिकी डिस्ट्रॉयर जहाज ने रिम-161 मिसाइल का प्रयोग कर अंतरिक्ष में यूएसए 153 नाम के अपने ही एक जासूसी उपग्रह को मार गिराया था। रुस में 2015 में ऐसा ही किया। आज अंतरिक्ष में उस तह शस्त्र की होड़ नहीं है तो उसका कारण इन देशों का संतृप्त अवस्था में पहुंच जाता है। अंतरिक्ष का इतना विकास हो चुका है कि दुनिया के अतीत और वर्तमान चरित्र को देखते हुए हम यह मानकर नहीं चल सकते कि कभी वहां जोर आजमाइश नहीं होगी। इसलिए हमें हर स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। 

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं। सामयिक विषयों का गहनता से विवेचन उनकी बहुत सी विशेषताओं में से एक है।)