नई दिल्ली: कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा सत्ता में आने पर देश के 20 प्रतिशत  सबसे गरीब परिवारों को हर साल 72,000 रुपये दिए जाने से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उन्होंने इसी वर्ष 28 जनवरी को रायपुर में किसान रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि हम सत्ता में आने पर न्यूनतम आय की गारंटी देंगे। राहुल कह रहे हैं कि इस तरह की न्यूनतम आय योजना दुनिया में कहीं नहीं है। उनकी योजना क्रियान्वित हुई तो हर जाति और समुदाय के गरीब की मासिक आय 12 हजार रुपये सुनिश्चित की जाएगी। इस योजना के अनुसार अगर किसी की आय 12 हजार से कम है, तो उतने पैसे सरकार उसे देगी। जब वह व्यक्ति 12 हजार की आय से ऊपर आ जाएगा, तो वह इस योजना से बाहर आ जाएगा। 

जाहिर है, जब दो महीना पहले उन्होंने इसका ऐलान किया था तो उसके पहले और बादे में कांग्रेस पार्टी के अंदर इस पर विचार हुआ होगा। राहुल ने कहा भी अनेक अर्थशास्त्रियों से विचार-विमर्श कर इसे सामने लाया गया है। लेकिन क्या देश में इतना पैसा है? 

 2019-20 के अंतरिम बजट में मोदी सरकार ने सीमांत एवं लघु किसानों के लिए सम्मान निधि के तहत वर्ष में तीन किश्तों में छः हजार देने का वायदा किया है जिसकी 2000 रुपए की पहली किश्त किसानों के खाते में स्थानांतरित हो चुकी है। राहुल गांधी इसकी यह कहते हुए आलोचना करते हैं कि प्रधानमंत्री ने 3.5 रुपये किसानों को दिए, वहां तालियां बजीं। 

देश को गुमराह किया जा रहा है। किसी गरीब को कोई मदद सरकार देती है तो सामान्य तौर पर इसका स्वागत किया जाना चाहिए। कांग्रेस समर्थक चुनाव के बीच ऐसी घोषणा से उत्साहित होंगे। कांग्रेस का मानना है कि इस एक घोषणा से चुनाव का पूरा परिदृश्य बदल जाएगा। इस घोषणा के चुनावी उद्देश्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता है। 

राहुल गांधी लोगों को यह विश्वास दिलाने के लिए कि यह केवल चुनावी घोषणा नहीं है, बता रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी ने मनरेगा में 100 दिन का रोजगार गारंटी करके दिया, सूचना के अधिकार में गारंटी से नौकरशाही के दरवाजे खोले, भोजन का अधिकार गारंटी करके दिया, वैसे ही न्यूनतम आमदनी की गारंटी होगी। वे कहते हैं कि कि जब हम विपक्ष में थे, तब भी हम किसानों का कर्ज माफ करने की बात करते थे और सरकार में पूछते थे तो सरकार कहती थी कि हमारे पास पैसा नहीं है और हम ये काम नहीं कर सकते। यह हो गया। 

तो आइए जरा इसका अर्थव्यवस्था के आधार पर विश्लेषण करें। दरअसल, न्यूनतम आय गारंटी योजना यूनिवर्सल बेसिक इन्कम स्कीम ही है। तीन वर्ष पहले केन्द्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रह्मण्यम के सुझाव पर अरुण जेटली ने 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में इसे शामिल किया था। 2017-18 के बजट के पूर्व इस पर काफी विचार विमर्श हुआ लेकिन बाद में दुनिया के अनुभव तथा अन्य पहलुओं पर विचार करने पर इस दिशा में कदम नहीं बढ़़ाया गया। हालांकि कई कई रुपों में इसे लागू भी किया गया है।

 सामान्य मान्यता यह है कि यूनिवर्सल बेसिक इन्कम लागू होने के बाद सरकार को गरीबों को बिना शर्त एक तय रकम निश्चित अंतराल में देना होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही रुझान वाले अर्थशास्त्री कुछ देशों के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम का समर्थन करते रहे हैं। 

कहा जाता है कि भारत जैसे आय की असमानता वाले देश के में योजना कम आय वालों के लिए काफी मददगार साबित हो सकती है। राहुल गांधी की योजना के अनुसार देश के 5 करोड़ परिवारों और 25 करोड़ लोगों को इस योजना का सीधा फायदा मिलेगा। इसका सामान्य गणित यह है कि अगर कांग्रेस की सरकार बनने पर यह योजना अमल में आती है तो इस पर सालाना 3.60 लाख करोड़ रुपए खर्च हो सकते हैं। यह 2019-20 के बजटीय खर्च का 13 प्रतिशत हिस्सा होगा। यह रकम मोदी सरकार द्वारा कल्याण योजनाओं पर सालाना खर्च किए जा रहे 5 लाख 3 हजार करोड़ रुपए के अतिरिक्त होगी। यह सकेल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत हिस्सा होगा। 


राहुल कह रहे हैं कि कांग्रेस को यह मंजूर नहीं है कि 21वीं सदी में भारत में गरीब रहें। अब अमीरों और गरीबों का हिंदुस्तान नहीं रहेगा। यह सबका बराबर हिंदुस्तान होगा। बहुत अच्छा। यहां यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम का सुझाव लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गाय स्टैंडिंग ने यूपीए सरकार को दिया था। तब यूपीए सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया। तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम एवं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसका उत्तर देना चाहिए। इन्हें बताना चाहिए कि उस समय  क्या समस्या थी? 

वैसे मध्य प्रदेश की एक पंचायत में पायलट प्रॉजेक्ट के तौर पर ऐसी एक योजना को लागू किया गया था। इसके सकारात्मक नतीजे आए थे। इंदौर के 8 गांवों की 6,000 की आबादी के बीच 2010 से 2016 के बीच इसका प्रयोग किया। इसमें पुरुषों और महिलाओं को 500 और बच्चों को हर महीने 150 रुपये दिए गए। इन 5 सालों में इनमें अधिकतर की आय बढ़ा गई। हाल ही में सिक्किम ने भी इस योजना को लागू करने का प्रस्ताव पेश किया है। यह उदाहरण भी राहुल की योजना को सही ठहराता हैं किंतु इसका दूसरा पक्ष अत्यंत भयावह है। 

पहले जितनी घोषणा है उसके आधार विचार किया जाए। वर्तमान अंतरिम बजट 27 लाख 84 हजार 200 करोड़ रुपए का है। अगर इसमें 3 लाख 60 हजार रुपया जोड़ दिया जाए तो यह 31 लाख 44 हजार करोड़ हो जाएगा। इस समय राजकोषीय घाटा 7 लाख 3 हजार करोड़ रुपया है। यह सकल घरेलू उत्पाद का 3.4 प्रतिशत है। यूपीए सरकार के वित्तीय कुप्रबंध के कारण यह 5 प्रतिशत से उपर चल गया था। राहुल की योजना के साथ यह बढ़कर 10 लाख 63 हजार करोड़ हो जाएगा। जाहिर है राजकोषीय घाटा 5.6 प्रतिशत हो जाएगा। यह कितनी खतरनाक स्थिति होगी इसके बारे में विशेषज्ञ बता सकते हैं। 

राजकोषीय असंतुलन के साथ कई आर्थिक समस्यायें आतीं हैं। इसमें महंगाई वृद्धि सर्वप्रमुख है। जाहिर है, रिजर्व बैंक का महंगाई दर को 4 प्रतिशत रखने का संकल्प टूट जाएगा। महंगाई कम से कम अतिरिक्त 1.5 प्रतिशत बढ़ेगी। महंगाई को काबू में रखने के लिए जो कदम उठाए जाएंगे उसका नकारात्मक असर विकास पर पड़ेगा। यह एक सामान्य आकलन है। इस योजना का आयाम काफी विस्तृत है, क्योंकि यह यहीं तक सीमित नहीं है। 

वास्तव में पिछले कुछ समय से राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस जिस तरह की गैर जिम्मेवार और अदूरदर्शी राजनीति कर रही है यह घोषणा उसी का विस्तार है। राहुल गांधी ने पिछले विधानसभा चुनावों में किसानों का समूचा कर्ज माफ करने का वायदा किया था। यह वर्तमान चुनाव में भी उनका सबसे बड़ा मुद्दा है। इसके लिए वे यह निहायत ही निराधार बात प्रचारित करते हैं कि जब प्रधानमंत्री अमीरों का साढ़े तीन लाख करोड़ रुपया माफ कर सकते हैं तो किसानों का माफ क्यों नहीं हो सकता।

 सच यह है कि किसी पूंजीपति या उद्योगपति का कर्ज माफ नहीं हुआ है। उल्टे बकाया की वसूली के लिए कड़ाई से कार्रवाई और उसके लिए कानूनी आधार देने के कारण ऐसे लोगों में मोदी सरकार के प्रति असंतोष है। 

पहले किसान कर्ज माफी नारे को देखिए। 2017-18 में किसानों पर बैंकों का 7 लाख 53 हजार बकाया था। 2018-19 का पूरा आंकड़ा हमारे पास नहीं है। किंतु मोटा-मोटी इसे नौ लाख करोड़ मान लीजिए। अब जरा सोचिए, 16 लाख करोड़ से ज्यादा की राशि यदि माफ कर दिया जाता है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था कहां पहुंच जाएगी? यह रसातल में चली जाएगी। 

कड़ी मशक्कत के बाद जो राजकोषीय घाटा नियंत्रण में आया है वह आकाश चढ़ जाएगा। इसमें न्यूनतम आय गारंटी योजना को जोड़ दीजिए। अभी इसे 3 लाख 60 हजार करोड़ बताया जा रहा है। यह कितनी राशि होती है! यहां भी एक प्रश्न है कि 5 करोड़ परिवार ही 12 हजार से कम मासिक आय वाले हैं यह आंकड़ा कहां से आया? मोदी सरकार ने 5 एकड़ से कम जमीन वाले लघु एवं सीमांत किसानों के लिए प्रतिवर्ष 6 हजार रुपये की वार्षिक किसान सम्मान योजना चलाई है उस पर 75 हजार रुपया खर्च होना है। 

यह साफ है कि इन परिवारों की मासिक आय संभवतः 12 हजार से कम है। तो यह केवल पांच करोड़ परिवार नहीं हो सकते। वास्तव मंे किसान सम्मान निधि के आधार पर आकलन करें तो यह 5 करोड़ परिवार से काफी ज्यादा हो जाएगा। साल में एक परिवार को 72 हजार करोड़ देंगे तो यह 12 गुणा हो जाएगी। यानी इसके अनुसार 9 लाख करोड़ चाहिए न कि 3 लाख 60 हजार करोड़। 


पता नहीं राहुल गांधी और उनके सलाहकारों को भारत में कहां कुबेर का खजाना दिख गया है। इसीलिए देश का एक-एक अर्थशास्त्री इसका विरोध कर रहा है। 

भारत के पास आज कितने लोग गरीब हैं इसका कोई आंकड़ा नहीं है। 2012 के बाद इसका आकलन हुआ ही नहीं है।  सरकार के आंकड़ों के अनुसार 2012 में ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी दर 25.7 प्रतिशत और शहरों में 13.7 प्रतिशत था। यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2012 में सी रंगराजन की अगुआई में बने विशेषज्ञ समूह ने गरीबी रेखा के लिए गांवों में एक दिन में 32 रुपए और शहरों में 47 रुपए खर्च की सीमा तय की थी। किंतु विश्व संस्थाओें ने कुछ और ही आंकड़ें दिए हैं। 


वर्ल्ड डाटा लैब विश्व में गरीबी का आंकड़ा एकत्रित करती है। इसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2030 तक भारत में केवल 30 लाख लोग ही ऐसे होंगे जिन्हें अति गरीब कह सकते हैं। इसका अर्थ हुआ कि उस समय तक भारत गरीबी से मुक्त हो जाएगा। इसकी रिपोर्ट में साफ लिखा है कि भारत गरीबी के मामले में सबसे बुरे देशों की सूची से बाहर आ जाएगा। 

वर्ल्ड लैब के साथ ब्रुकिंग्स के फ्यूचर डेवेलपमेंट ब्लॉग में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक हर मिनट 44 भारतीय अत्यंत गरीबी की श्रेणी से बाहर निकल जा रहा हैं। इसके अनुसार भारत में बहुत तेजी से गरीबी घट रही है जो दुनिया के किसी भी देश से काफी अधिक है। 

विश्व मानक के अनुसार अत्यंत गरीबी के दायरे में वे लोग आते हैं जिनके पास अपने जीवनयापन के लिए रोजाना 1.9 डॉलर यानी 134 रुपये भी नहीं होते। वर्ल्ड डाटा लैब ने कहा है कि 2018 में भारत में ग्रामीण क्षे़त्र में 4.3 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्र में 3.8 प्रतिशत आबादी को गरीब माना जाएगा। 

ब्रुकिंग्स अध्ययन कहता है कि सन 2022 तक भारत में अत्यंत गरीब जनसंख्या केवल तीन प्रतिशत रहेगी। इसका भी मानना है कि वर्ष 2030 तक भारत से अत्यंत गरीबी की परिधि में आने वाली आबादी पूरी तरह खत्म हो जाएगी। 

इस अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि मई 2018 में उनकी ट्रैजक्टरीज से पता चला है कि भारत में 7 करोड़ 30 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। वर्ल्ड डेटा लैब की मानें तो हो सकता है कि अब भारत में करीब 5 करोड़ लोग ऐसे हों जो 1.90 डॉलर (करीब 134 रुपये) प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का उद्देश्य 2030 तक दुनिया से गरीबी हटाना है। संयुक्त राष्ट्रसंघ कहता है कि भारत का पिछले कई सालों का रिकॉर्ड इस मायने में अत्यंत ही उत्साहजनक है। इसका मानना है कि भारत को 2030 तक गरीबी पूरी तरह समाप्त करने के लिए 7 से 8 प्रतिशत की दर से विकास करना होगा। इस समय हमारा विकास दर इसके मध्य है। 


कहने का तात्पर्य यह है कि पहले की तरह रोमांसवादी भाव में हम गरीबी को लेकर छाती पीटते हैं, पर धरातल पर जाकर देखिए तो अंतर दिखाई देता है। यहां इसके पहले के कुछ आकलन याद दिलाना ज3री है। इसी संयुक्त राष्ट्र ने सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य रिपोर्ट 2014 में कहा था कि दुनिया के समस्त निर्धनतम लोगों का 32.9 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है। 

आज वही संस्था भारत का बिल्कुल अलग आकलन कर रही है। 2010 में विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत के 32.7 प्रतिशत लोग रोज़ना की 1.25 डॉलर की ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं और 68.7 प्रतिशत लोग रोज़ना की 2 अमेरिकी डॉलर से कम में गुज़ारा करते हैं। वर्ष 2011 में करीब 26 करोड़ 80 लाख लोग 1.90 डॉलर (करीब 134 रुपये) प्रतिदिन पर गुजारा करते थे। 

विश्वबैंक ने आठ वर्ष पहले कहा था कि विश्व की सम्पूर्ण गरीब आबादी का तीसरा हिस्सा भारत में है। 2010 में विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत के 32.7 प्रतिशत लोग रोज़ना की 1.25 डॉलर की अंतर्राष्ट्रीय ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं और 68.7 प्रतिशत लोग रोज़ना की 2 अमेरिकी डॉलर से कम में गुज़ारा करते हैं। वर्ष 2011 में करीब 26 करोड़ 80 लाख लोग 1.90 डॉलर (करीब 134 रुपये) प्रतिदिन पर गुजारा करते थे। 

इससे आज की स्थिति की तुलना करिए और फिर निष्कर्ष निकालिए। साफ है कि विश्व संस्थाओं के आकलन में ही गरीबी को लेकर भारत की स्थिति काफी बदल गई है। राजनीति के साथ अपने देश को लेकर आत्मविश्वास की कमी इसका बड़ा कारण है। वास्तव में जैसा मैंने उपर कहा कुछ नेताओं, एनजीओ, विश्लेषकों, एक्टिविस्टों की आवाज वही है जो दशकों से सुनी जा रहीं हैं। 

यूपीए सरकार के समय साल 2011 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट आई थी कि गरीबी से लड़ने के लिए भारत सरकार के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। रिपोर्ट के अनुसार, भ्रष्टाचार और प्रभावहीन प्रबंधन इसमें बड़ी बाधा है। इन्हीं कारणों से गरीबों के लिए बनी सरकारी योजनाएं सफल नहीं हो पाईं हैं। रिपेार्टों के अनुसार गरीबी के कारण मुख्य कारण राष्ट्रीय उत्पाद का निम्न स्तर, विकास की कम दर, महंगाई, कीमतों में वृद्धि, जनसंख्या का दबाव, बेरोजगारी, पूंजी की कमी, कुशल श्रम और तकनीकी ज्ञान की कमी,  उचित औद्योगीकरण का अभाव, सामाजिक संस्थाएं और भूमि और सम्पत्ति का असमान वितरण। 

जाहिर है, जरुरत इन्हें दूर करने की थी और है न कि सरकारी खजाने को लुटाने की। ऐसा हुआ है तभी तो विश्व की मान्य संस्थाएं कह रहीं हैं कि भारत अब दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबी आबादी वाला देश नहीं रहा है। किंतु आज भी भूख और गरीबी राजनीति, मीडिया एवं एक्टिविस्टों के लिए सबसे मोहक है। 

झन्नाटेदार लहजे में गरीब की बात करने से एक अलग किस्म का माहौल बनता है। हम नहीं कहते कि बिल्कुल स्थिति बदल गई है। लेकिन जमीन पर स्थिति बदली हुई दिखाई देती है। यह सब सरकार की अनेक योजनाओं के कारण ही हुआ है। प्रश्न है कि जब सही तरीके से गरीबी पर चोट हुई है और परिणाम उत्साहवर्धक हैं तो अनावश्यक इस तरह देश की पूरी अर्थव्यवस्था को चरमरा देने वाली लुभावनी घोषणाओं की क्या आवश्यकता है?

राहुल गांधी के सलाहकारों को लगता है जिस तरह इंदिरा गांधी ने 1967 से गरीबी हटाओं की बात करनी शुरु की और 1971 में गरीबी हटाओ नारा पर चुनाव जीत लिया वैसा ही 2019 में हो सकता है। 1971 में कांग्रेस को तब 518 में से 352 सीटों पर जीत मिली थी। पार्टी को 1967 के मुकाबले 3 फीसदी ज्यादा वोट और 59 सीटें ज्यादा मिलीं। 


प्रश्न है कि सलाना 12 हजार रुपया आमदनी की गारंटी देने वाली गरीबी हटाओ का नारा कांग्रेस के लिए चुनावी वैतरणी पार करने का दोबारा कारण बन जाएगा? उस समय नारा दिया गया था वो कहते हैं इंदिरा हटाओ मैं कहती हूं गरीबी हटाओ। इंदिरा गांधी अपने भाषणों में यह पंक्ति दुहरातीं थीं। किंतु उस समय गरीबी दर्दनाक अवस्था में थी। इतने सामाजिक-आर्थिक विकास के कार्यक्रम, सामाजिक सुरक्षा योजनायें, कृषि विकास कार्यक्रम, स्वास्थ्य योजनाएं, रोजगार कार्यकम अदि नहीं थे। तो 48 वर्ष बाद आज का भारत काफी अलग है। 

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो 1971 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में फूट हो चुकी थी। इंदिरा के नेतृत्व वाला हिस्सा पहले कांग्रेस (आर) और बाद में कांग्रेस (आई) कहलाया। वहीं, पुराने नेताओं ने कांग्रेस ओ बनायां। 1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस (ओ) ने नारा दिया- इंदिरा हटाओ। उस समय देश के सामने यही दो मुख्य विकल्प था। जनसंघ और समाजवादी पार्टी आदि सशक्त नहीं थे। कांग्रेस के पुराने बड़े नेता इंदिरा गांधी के इस नारे का मुकाबला नहीं कर सके। आज का पूरा राजनीतिक परिदृश्य अलग है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा एक सशक्त दल के रुप में विद्यमान है। उसके साथ एक बड़ा गठबंधन इै। इसके अलावा राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां हैं जिनका अपना जनाधार है। फिर मीडिया के सहयोग से लोगों को ऐसी घोषणाओं का दोनों पक्ष सामने आता है।


कोई पार्टी जीते या हारे इसके आधार पर ऐसी घोषणाओं का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। वास्तव में ऐसी योजनाओं का मूल्यांकन केवल अर्थशास्त्रीय कसौटियों पर ही किया जाना चाहिए। भारत क्या दुनिया के किसी देश की हैसियत एक साथ कर्ज माफी से लेकर इतनी राशि हर वर्ष मुफ्त में बांटने की नहीं है। 

यूनिवर्सल बेसिक इन्कम का एक सिद्धांत यह है सारे मुख्य समाजिक-आर्थिक कार्यक्रम को सब्सिडी योजनाओं को समाप्त कर सीधे नकद स्थानांतरित किया जाए। केवल खाद्य सब्सिडी पर 1 लाख 84 हजार रुपया खर्च होता है। 75 हजार योजना किसान सम्मान योजना का है। क्या इनको बंद किया जा सकता है? भारत में मनरेगा की इतनी मुखालफत के बावजूद इसे ही बंद करने का साहस कोई नहीं कर पाया तो अन्य योजनाएं बंद कौन करेगा? वैसे भी जो योजनाएं भारत में गरीबी तेजी से घटाने तथा लोगों के जीवन स्तर उठाने का कारण बन रहा है उसे खत्म करना भी नहीं चाहिए। नकदी देने से गरीबी नहीं घटती। नकदी देंगे तो राशि की व्यवस्था कहीं से करनी होगी। 

क्या उसके लिए नया कर लगाया जाएगा? हमारे कर की राशि को इस तरह मुफ्त में बांटने का अधिकार किसी सरकार को किसने दिया है? वस्तुतः लोगों की आय बढ़ाने के लिए स्थायी विकास का आधार बढ़ाना होगा। कृषि, छोटे उद्योग, छोटे व्यापार आदि के लिए आधारभूत संरचना मजबूत करना, उनको उचित वित्त उपलब्ध करना, सड़कों का तीव्र निर्माण, सिंचाई का विकास, तकनीकों की उपलब्धता तथा उनके प्रयोग का प्रशिक्षण, स्वास्थ्य सुविधायें-शिक्षा सुविधाओं का विस्तार आदि पर फोकस करने से ही गरीबी खत्म होगी और जितना इस दिशा में हुआ है उतना असर हो रहा है। 

इसी तरह से उद्योगों या विनिर्माण के साथा कारोबार एवं सेवा क्षेत्र को भी बढ़ावा देना होगा।  राहुल की योजना लागू करने के बाद पूरा वित्तीय ढांचा चरमरा जाएगा। राजकोषीय घाट खतरे के निशान से इतने उपर उठ जाएगा जिसकी कलपना नहीं होगी। इससे भारत की रेटिंग गिर जाएगी, शेयर बाजार में भूचाल  आ जाएगा, विदेशी निवेशक दूर चले जाएंगे, उद्योग और कृषि के लिए धन नहीं बचेगा। इसलिए कर्ज माफी और प्रति महीना नकद की राजनीति देश की अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी साबित होगा। 

वैसे यह हो भी नहीं पाता। 2008 में यूपीय ने किसानों के कर्ज माफी की बात की लेकिन हुआ केवल 52 हजार 260 करोड़। किसानों पर करीब 5 लाख करोड़ का कर्ज था। यही कर्नाटक से लेकर मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में किसानों की कर्ज माफी घोषणा के साथ हुआ। चुनावी विजय के उपरांत हिंसाब-किताब लगा तो अधिकारियों ने हाथ खड़े किए। फिर बीच का रास्ता निकालना प़ड़ा। अभी तक सारे किसानों का सारा कर्ज माफ नहीं हो पाया है। 

ग्रामीण बैंक और सहकारी बैंकों का पूरा कर्ज माफ करने की घोषणा हुई तो वाणिज्यिक बैंकों के लिए कर्ज की सीमा बांधनी पड़ी। कितनी राशि माफ हुई इसका आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया गया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बताया है कि कर्नाटक में केवल 2600 करोड़, मध्यप्रदेश में 3000 करोड़ तथा पंजाब में दो साल में 5500 करोड़ा कार्ज माफी पर सरकार ने खर्च किया है। 

अगर यह आंकड़ा गलत है तो सरकारें इनका खंडन करें।  तो घोषणा और यथार्थ में अंतर होता है। इसे भी ध्यान रखने की जरुरत है। सरकार माफ कर सकती है लेकिन बैंकों को अपना धन चाहिए। तो कहीं न कहीं से राशि की व्यवस्था करनी पड़ती है। आप खर्च में कटौती करिए, कर लगाइए, कुछ कार्यक्रम रोकिए या स्वयं कर्ज लीजिए-यही चार विकल्प होते हैं और चारों आर्थिक दृष्टि से विनाशकारी हैं। 

वैसे भी किसान कर्ज को भी हमारे यहां समझा नहीं जा रहा। छोटे किसानों पर कर्ज भले ज्यादा होता है, पर ये अत्यंत कम संख्या में बैंक जाते हैं। बैंको का कर्ज इन पर ज्यादा होता ही नहीं। बड़े किसान या अन्य लोग खेती के नाम पर कर्ज लेकर इस इंतजार में रहते हैं कि यह माफ हो जाए। इसमें कम लोग होते हैं जिनको वाकई कर्ज माफी या उसमें राहत की जरुरत है। चुनावी लाभ के लिए की जा रही धोषणाओं में पात्र और अपात्र को अलग करने का साहस कोई दिखा ही नहीं सकता। 

कुल मिलाकर यही कहना होगा कि राहुल गांधी की यह घोषणा भ्रम फैलाने वाला तो है ही देश की अर्थव्यस्था के लिए विनाशक भी है।  

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार है।)