महान स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर का आज जन्मदिन है। उनका जन्म 28 मई 1883 को हुआ था। वह जितने बड़े राष्ट्रवादी थे उतने ही महान समाज सुधारक भी। उन्होंने हिंदू समाज के विघटन के कारण जाति व्यवस्था को बहुत पहले ही पहचान लिया था। यदि सावरकर की नीतियों पर देश चलता तो आज छूत-अछूत, जाति पांति की गुलामी से हिंदू समाज मुक्त रहता।
नई दिल्ली: स्वातंत्र्यवीर सावरकर केवल स्वतंत्रता सेनानी , कवि, लेखक और हिन्दुत्व के दार्शनिक ही नहीं एक प्रख्यात समाज सुधारक थे। समाज को लेकर उनकी सोच भी बहुत क्रांतिकारी थी। वे कट्टर हिन्दूराष्ट्रवादी भी थे जिसमें सामाजिक समता का महत्वपूर्ण स्थान था। उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार राजनीतिक परिवर्तनों के बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के पूरक हैं। उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इनमें सबसे प्रमुख थी जाति व्यवस्था जो हिन्दू समाज को घुन की तरह खाए जा रही थे। इस कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए। हिन्दू समाज .में सामाजिक एकता लाने के प्रयासों को जनआंदोलन बने की कोशिश की। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। 1924 से 1937 का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा।
कालापानी छूटने के बाद सावरकर रत्नागिरी में स्थानबद्ध रहे। रत्नागिरी में उन्होंने तथाकथित दलितों को संगठित कर, पतित पावन मन्दिर की स्थापना भी की थी। उन्होंने विशेषतः अस्पृश्यता और जाति-भेद निर्मूलन को, बहुत महत्व दिया । उनके आलेखो में राष्ट्रनिष्ठा को सर्वाधिक महत्त्व था। उसके दूसरे स्थान पर उन्होंने अस्पृश्यता निवारण के काम को रखा था, ऐसा उनके उत्तरार्ध के स्थानबद्ध जीवन से जो उन्होंने रत्नागिरी में बिताया था, जान पड़ता है। अस्पृश्यता का भी वे जाति व्यवस्था की समाप्ति में ही समाधान खोजते हैं। अंबेडकर जी से उनकी बड़ी घनिष्ठता थी। अंबेडकर ने- जाति का विनाश- पुस्तक लिखी थी तो सावरकर ने जातिव्यवस्था और अस्पृश्यता के खिलाफ निबंध लिखे जो पुस्तक रूप में प्रसिद्ध हुई। इस पुस्तक के कुछ प्रमुख निबंध हैंहै- चार वर्ण और चार हजार जातियां, सगोत्र विवाह निषिद्ध क्यों, जन्मजात असपृश्यता का मृत्यूलेख, मुस्लिम धर्म का समता का दावा आदि।
सावरकर मानते थे कि वर्तमान हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। ये सात बेड़ियां प्रकार हैं -
1. स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता
2. रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध
3. बेटीबंदी: खास जातियों के संग विवाह संबंध निषेध
4. व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध
5. सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध
6. वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों की एक वर्ग पर पाबंदी
7. शुद्धिबंदी: किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध
सावरकर ने न केव इन बेडियों के खिलाफ आवाज उठाई वरन उनके खिलाफ अभियान चलाया।
सावरकर के जीवन का अध्ययन करने वाले विद्वान विवेक त्यागी के मुताबिक -8 जनवरी 1924 को सावरकर रत्नागिरी में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने घोषणा कि की वे रत्नागिरी दीर्घकाल तक आवास करने आए है और छुआछूत समाप्त करने का आन्दोलन चलाने वाले है। उन्होंने उपस्थित सज्जनों से कहाँ कि अगर कोई अछूत वहां हो तो उन्हें ले आये और अछूत जाति के बंधुओं को अपने साथ बैल गाड़ी में बैठा लिया। उन दिनों किसी भी शूद्र को सवर्ण के घर में प्रवेश तक निषेध था। नगर पालिका के सफाईकर्मी को नारियल की नरेटी में चाय डाली जाती थी। किसी भी शूद्र को नगर की सीमा में धोती के स्थान पर अंगोछा पहनने की ही अनुमति थी। इसके लिए सावरकर जी ने दलित बस्तियों में जाने का, सामाजिक कार्यों के साथ साथ धार्मिक कार्यों में भी दलितों के भाग लेने का और सवर्ण एवं दलित दोनों के लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना का निश्चय किया गया।
रत्नागिरी प्रवास के 10-15 दिनों के बाद में सावरकर जी को मढ़िया में हनुमान जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण मिला। उस मंदिर के देवल पुजारी से सावरकर जी ने कहा कि प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में दलितों को भी आमंत्रित किया जाये। जिस पर वह पहले तो न करता रहा पर बाद में मान गया।
श्री मोरेश्वर दामले नामक किशोर ने सावरकर जी से पूछा कि आप इतने साधारण मनुष्य से व्यर्थ इतनी चर्चा क्यूँ कर रहे थे? इस पर सावरकर जी ने कहा कि “सैंकड़ों लेख या भाषणों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप में किये गए कार्यों का परिणाम अधिक होता है। अबकी हनुमान जयंती के दिन तुम स्वयं देख लेना।
29 मई 1929 को रत्नागिरी में श्री सत्य नारायण कथा का आयोजन किया गया जिसमे सावरकर जी ने जातिवाद के विरुद्ध भाषण दिया जिससे की लोग प्रभावित होकर अपनी अपनी जातिगत बैठक को छोड़कर सभी दलित जातियों एकत्रित होकर बैठ गए और सामान्य जलपान हुआ।
1934 में मालवान में अछूत बस्ती में चायपान , भजन कीर्तन, अछूतों को यज्ञोपवीत ग्रहण, विद्यालय में समस्त जाति के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के बैठाना, सहभोज आदि हुए। 1937 में रत्नागिरी से जाते समय सावरकर जी के विदाई समारोह में समस्त भोजन अछूतों द्वारा बनाया गया जिसे सभी सवर्णों- अछूतों ने एक साथ ग्रहण किया था।
एक बार शिरगांव में एक दलित जाति के व्यक्ति घर पर श्री सत्य नारायण पूजा थी जिसमे सावरकर जो को आमंत्रित किया गया था। सावरकर जी ने देखा की दलित महोदय ने किसी भी महार को आमंत्रित नहीं किया था। उन्होंने तत्काल उससे कहा की आप हम ब्राह्मणों के अपने घर में आने पर प्रसन्न होते हो पर में आपका आमंत्रण तभी स्वीकार करूँगा जब आप दूसरी जाति के सदस्यों को भी आमंत्रित करेंगे। उनके कहने पर उन महोदय ने अपने घर पर दूसरी दलित जाति वालों को आमंत्रित किया था।
1930 में पतितपावन मंदिर में शिवू सफाईकर्मी के मुख से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ ही सावरकर जी की उपस्थिति में गणेशजी की मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित की गई।
1931 में पतितपावन मंदिर का उद्घाटन स्वयं शंकराचार्य श्री कूर्तकोटि के हाथों से हुआ एवं उनकी पाद्यपूजा दलित नेता श्री राज भोज द्वारा की गयी थी। वीर सावरकर ने घोषणा करी की इस मंदिर में समस्त हिंदुओं को पूजा का अधिकार है और पुजारी पद पर गैर ब्राह्मण की नियुक्ति होगी।
सावरकर ने जातिव्यस्था के खिलाफ सहभोजन को हथियार बनाया। सैकड़ो सवर्ण और अस्पृश्य कही जानेवाली जातियों के लोग सामूहिक भोजन. करते थे बाद में उनलोगों के अखबारों में नाम छपते थे।फिर भी किसी ने अपने कदम वापस नहीं लिए। उन दिनों अछूत कहे जानेवाली जातियों के साथ भोजन करना भी क्रांतिकारी कदम था। हजारो लोगों ने उसमें गर्व के साथ हिस्सा लिया।
सावरकर अपने निबंधों में इस बात पर बल देते थे कि भगवद्गीता में कृष्ण द्वारा वर्णित चातुर्वण्य की पुनर्व्याख्या की जाए।
सावरकर कहते कि गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि उन्होंने चातुर्वण्य बनाए है इसका मतलब यही था कि वे कह रहे हैं कि विभिन्न मनुष्यो के गुण और विशेषताएं उनकी बनाई हुई हैं। .मगर कहीं भी उन्होंने यह नहीं कहा है कि ये गुण औरर विशेषताएं अनुवांशिक हैं। जबकि अनुवांशिकता ही जातिव्यवस्था का मुख्य आधार है।
सावरकर कहते थे कि वर्ण व्यवस्था सनातन धर्म का अंग नहीं है। सनातन में वे आदर्श और आस्थाएं आती है जो अनादि काल से चली आ रही है। दूसरी तरफ वर्ण व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था है जिनका उन्मूलन किया जा सकता है।यह समाज की जरूरतों पर निर्भर है।
सावरकर की सोच में यह परिवर्तन अचानक नहीं आया था। 1916 में अंडमान की सेल्यूलर जेल से अपने भाई नारायण सावरकर को लिखे पत्र में उन्होंने यही लिखा - हमारी सामाजिक संस्थाओं में सबसे निकृष्ट है जाति। जाति पाति हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा शाप है।इससे हिन्दू जाति के वेगवान प्रवाह के दलदल और मरूभूमि में फंस जाने का भय है।यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि हम हम जाति को घटाकर चातुर्वण्य की स्थापना कर लेंगे।यह न होगा न होना चाहिए।
6 जुलाई 1916 को भी को लिखे पत्र में लिखते हैःमैंने हिन्दुस्तान की जाति व्यवस्था और अछूत पद्धति का उतना विरोध किया है जितना बाहर रहकर भारत पर शासन करनेवाले विदेशियों का।
सावरकर जाति प्रथा के घोर विरोधी थे तथा इसे एक बेडी मानते थे जिसमें हिन्दू समाज जकडा हुआ है और इससे हिन्दू धर्म का मार्ग अवरूद्ध हुआ है।उनके अनुसार आदिकाल में वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित नहीं थी।यह कार्य पर आधारित थी तथा शिक्षा और कार्य के अनुसार बदलती रहती थी।वैदिक काल में समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने में इसकी भूमिका रही पर अब धीरे धीरे जन्म आधारित जाति व्यवस्था में परिवर्तित होने पर यह अभिशाप बन गई और समस्त हिन्दू समाज की एकता में बाधक है।
वीर सावरकर हिन्दुओं में अस्पृस्यता को जिम्मेदार जातिप्रथा के उन्मूलन के पक्ष में थे।उनका मानना था कि हिन्दू समाज की वैमनस्यता का अंत इस प्रथा के उन्मूलन से होगा।सावरकर जैसे क्रांतिकारी जीवन के हर क्षेत्र हो या सामाजिक व्यवस्था। उनसे कहीं भी अन्याय बर्दाश्त नहीं होता। इस सामाजिक कार्य के पीछे भी उनका यही भाव था – हम सभी हिन्दू हैं बंधु बंधु।
सतीश पेडणेकर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)
Last Updated May 28, 2019, 7:56 PM IST