ईसाई धर्म आज दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है। लेकिन इसके प्रवर्तक कहे जाने वाले जीसस क्राइस्ट यानी ईसा मसीह का जीवन आज भी रहस्य के अंधेरे में छिपा हुआ है। उनके जीवन पर रहस्य का यह आवरण स्वाभाविक नहीं बल्कि जानबूझकर तैयार किया गया है।

                            क्योंकि अब यह बात ऐतिहासिक रुप से प्रमाणिक हो गई है कि उनके मूल विचार भारतीय सनातन परंपरा से प्रेरित थे। अगर यह राज पूरी तरह खुल जाए तो शायद ईसाई धर्म का चेहरा ज्यादा मानवीय हो। लेकिन फिर वह  रोमन साम्राज्य के साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के अनुरुप नहीं रह जाएगा। जीसस पर भारतीय दार्शनिक परंपरा का गहरा प्रभाव था। इस बात के प्रमुख सबूत कुछ इस प्रकार हैं- 
 
1.    जीसस का प्रारंभिक जीवन- 
ईसा मसीह के प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। ईसाई धर्म के ज्ञात ग्रंथों में मुख्य रुप से ईसा मसीह के जीवन काल के तीस(30) से तैंतीस(33) तैंतीस तक यानी मात्र तीन सालों की घटनाओं का ही मुख्य रुप से जिक्र किया जाता है। इससे पहले की मात्र दो घटनाओं का ही ईसाई धर्म ग्रंथों में उल्लेख है। पहला जब वह पैदा हुए थे, दूसरा वजब वह सात साल की उम्र में एक बड़े मंदिर में जाते हैं। ईसा के तेरह(13) से तीस यानी सत्रह(17) साल का हिस्सा बाइबिल के गायब है।

एक फ्रांसीसी लेखक की किताब ‘’दि सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’ में दावा किया गया है कि जीसस का प्रारंभिक जीवन भारत में बीता था। इसके लेखक ने कश्मीर सहित भारत के कई प्रदेशों की यात्राएं करके यहां जीसस के जीवन से संबंधित तथ्य तलाश किए। बाद में इस फ्रांसीसी यात्री ने ‘’सेंट जीसस’’ नामक एक पुस्‍तक भी प्रकाशित की थी। इसमे उसने अपनी उन यात्राओं का वर्णन किया है जिनके जरिए उसने उन सबूतों को देखा। जिससे उसे मालूम हुआ कि जीसस लद्दाख तथा पूर्व के अन्‍य देशों में भी गए थे। जहां ईसा मसीह ने बौद्ध ग्रंथों में उल्लिखित प्राचीन सनातन दर्शन का अध्ययन किया। 

अपनी किताब में लेखक ने दावा किया है कि ऐसा लिखित रिकार्ड मिलता है कि जीसस लद्दाख से चलकर, ऊंची बर्फीली पर्वतीय चोटियों को पार करके कश्‍मीर के पहलगाम नामक स्‍थान पर पहुंचे। पहलगाम का अर्थ है ‘’गड़रियों का गांव’’ जहां पर जीसस क्राईस्ट लंबे समय तक रहे। यही पर जीसस को इज़राइल के खोये हुए कबीले के लोग मिले। 

इसके अलावा निकोलस नाटोविच नामक एक रूसी यात्री सन 1887 में भारत आया था। वह लद्दाख भी गया था। और जहां जाकर वह बीमार हो गया था। इसलिए उसे वहां प्रसिद्ध ‘’हूमिस-गुम्‍पा‘’ में ठहराया गया था। वहां पर उसने बौद्ध साहित्‍य और बौद्ध शस्‍त्रों के अनेक ग्रंथों को पढ़ा। इनमें उसको जीसस के यहां आने के कई उल्‍लेख मिले। इन बौद्ध शास्‍त्रों में जीसस के उपदेशों की भी चर्चा की गई है।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार बर्नियर ने, जो औरंगज़ेब के समय भारत आया था। उसने लिखा है कि ‘पीर पंजाल पर्वत को पार करने के बाद भारत राज्‍य में प्रवेश करने पर इस सीमा प्रदेश के लोग मुझे यहूदियों जैसे लगे।’ 

इस बात का जिक्र बाइबल में भी है कि कैसे यहूदियों का एक कबीला गायब हो गया और उसको खोजने के लिए बहुत लोग भेजे गए थे। वह कबीला कश्मीर में बस गया था। 

इन सभी उदाहरणों से यह साबित होता है कि ईसा मसीह ने अपने जीवन के प्रारंभिक 17 वर्षों में मिस्र, भारत, तिब्बत और लद्दाख की यात्रा करते रहे और यहां से सनातन दर्शन और विचारों को आत्मसात करते रहे। 

2.    जीसस के विचार-
जीसस क्राइस्ट के विचार सेमेटिक(एक किताब: एक पैगंबर) परंपरा के पुराने पैगंबरों से बिल्कुल अलग थे। ईसा मसीह ने स्पष्ट कहा 'अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना। लेकिन  मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।' 

यह बात अभी तक प्रचलित सेमेटिक विचारों से बिल्कुल अलग थी। इस तरह की बातें सनातन धर्म के प्रवर्तक पूर्वी देशों के बुद्ध और महावीर जैसे दार्शनिक और विचारक कहा करते थे। चूंकि ईसा मसीह ने अपने तिब्बत और कश्मीर प्रवास के दौरान इन महान दार्शनिकों के विचारों को पढ़ा था। उनके जीवंत उत्तराधिकारियों के साथ सत्संग किया था। इसलिए वह सनातन विचारों से न केवल प्रभावित बल्कि पूरी तरह सहमत भी थे। 

ईसा ने अपने पूर्ववर्तियों के हिंसक विचारों को सभी से प्रेम करने के अपने मंत्र से पूरी तरह बदलने की कोशिश पुरजोर की। ओल्ड टेस्टामेन्ट में ईश्वर के हवाले से लिखा गया है ‘मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं हूं, तुम्हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत  क्रोधी और ईर्ष्यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं’। 

लेकिन क्राईस्ट ने इसे पलट दिया। ईसा मसीह कहते हैं, ‘मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्मा प्रेम है’। 

परमात्मा को प्रेम स्वरुप समझने का उपदेश सिर्फ उपनिषद और बौद्ध ग्रंथों जैसी सनातन परंपराओं में दिया जाता है।

लेकिन पूर्वी दार्शनिक परंपराओं के प्रति जीसस का यही झुकाव उनके लिए जानलेवा भी साबित हुआ। क्योंकि पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने यह समझ लिया था कि जीसस अपने विचार पूरब से ले रहे हैं। जो कि सेमेटिक(एक पैगंबर, एक किताब) की अवधारणा के बिल्कुल विरुद्ध था।  यही मतभिन्नता उनको दी जाने वाली बर्बर सजा का कारण बनी। 

3.    जीसस के आखिरी दिन 

जिस तरह ईसाई धर्मग्रंथ जीसस के शुरुआती दिनों के बारे में चुप्पी साधे रखते हैं। ठीक उसी तरह उनके पुनर्जीवित होने की घटना के बाद के दिनों को भी रहस्य के आवरण में ढंक दिया गया है। 

ईसा मसीह के आखिरी दिनों के बारे में ‘ओशो रजनीश’ अपनी किताब ‘द सायलेंट एक्सप्लोजन’ के एक अध्याय  ‘दि अननोन लाइफ ऑफ जीसस’ में लिखते हैं कि "तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि अंतत: उनकी(जीसस की) मृत्यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी  बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका  क्या हुआ? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई उल्लेख है ही नहीं!"

ईसाई धर्मग्रंथों के मुताबिक जीसस का पुनर्जन्‍म होता है। परंतु इस पुनर्जन्‍म के बाद वह दोबारा वे कहां गायब हो गये। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल मौन है।

दरअसल जब जीसस सूली पर चढ़े हुए थे तो उस समय एक सिपाही ने उनके शरीर में भाला चुभाया तो उसमें से पानी और खून निकला। इस घटना को सेंट जॉन की गॉस्‍पल (अध्‍याय 19 पद्य 34) में रिकार्ड किया गया है। भाला लगने के बाद खून निकलना इस बात का सबूत है कि जीसस सूली पर जीवित थे क्‍योंकि मृत शरीर से खून नहीं निकल सकता। इसके बाद जीसस के शरीर को उतारकर एक गुफा में रख दिया गया। 

दरअसल अपने आरंभिक जीवन में ही सनातन परंपरा के मुताबिक योग और ध्यान में निष्णात हो चुके थे। उनके कथित पुनर्जन्‍म की घटना को पश्चिमी लोग ठीक से समझ नहीं सकते। किंतु योग के जानकार यह जानते हैं कि योग द्वारा बिना मरे शरीर को मृत जैसी अवस्‍था में पहुंचाया जा सकता है। सांसें इतनी धीमी हो जाती हैं कि वह दिखाई नहीं देतीं। इसी प्रकार हृदय की धड़कन और नाड़ी की गति भी बंद की जा सकती है।
सलीब पर लटके जीसस ने योग द्वारा खुद को इसी अवस्था में पहुंचा लिया था। 

उनका सूली से जिंदा बचना इस बात से भी साबित होता है कि जीसस को सूली चढ़ाने का आदेश जारी करने वाला रोमन गवर्नर पांटियस था। जो ईसा से प्रभावित था और उन्हें मारना नहीं चाहता था। उसका पत्र पाया गया है जिसमें उसने जीसस की बड़ी प्रशंसा की है। इसलिए उसने जीसस को सूली चढ़ाने में देर की और ईसा को शुक्रवार आधा दिन गुजरने के बाद लटकाया गया। यहूदियों का नियम है कि कोई भी व्यक्ति शनिवार को सूली पर न लटका रहे क्योंकि यह उनका पवित्र दिन है। पांटियस ने जीसस को सूली ऐसे मौके पर दी कि सांझ के पहले, सूरज ढलने के पहले जीसस को सूली से उतार लेना पड़ा। 

उन दिनों जिस ढंग से सूली दी जाती थी, उसमें आदमी को मरने में कम से कम तीन दिन से सात दिन लगते थे। जबकि जीसस सूली पर मात्र कुछ घंटे ही लटके रहे।

लेकिन जीसस को मौत की सजा दिलाने वालों ने जब यह समझा कि वे मर गए है तो उन्‍होंने जीसस को उतार कर उनके अनुयायियों का दे दिया। तब एक परंपरागत कर्मकांड के अनुसार शरीर को एक गुफा में तीन दिन के लिए रखा गया।

   ईसाइयों के ‘एसनीज’ नामक एक संप्रदाय की परंपरागत मान्‍यता है कि जीसस के अनुयायियों ने उनके शरीर के घावों का इलाज किया और उनको होश में ले आए।
सूली से उतारे जाने के बाद उनके घावों पर एक प्रकार की मलहम लगाई गई। जो आज भी ‘जीसस की मलहम’ कही जाती है। उनके शरीर को यह मलहम लपेटकर बारीक मलमल के कपड़े से ढंक दिया गया। उनके अनुयायी जौसेफ़ और निकोडीमस ने जीसस के शरीर को एक गुफा में रख दिया। और उसके मुंह पर एक बड़ा सा पत्‍थर लगा दिया। 

जीसस तीन दिन इस गुफा में रहे और स्‍वस्‍थ होते रहे। तीसरे दिन जबर्दस्‍त भूकंप आया और उसके बाद तूफान; उस गुफा की रक्षा के लिए तैनात सिपाही वहां से भाग गए। गुफा पर रखा गया बड़ा पत्‍थर वहां से हट कर नीचे गिर गया। 

 जब उनके शिष्‍यों ने उनको दोबारा देखा तो वे विश्‍वास ही न कर सके कि ये वही जीसस है जो सूली पर मर गए थे। उनको विश्‍वास दिलाने के लिए जीसस को उन्‍हें अपने शरीर के घावों को दिखाना पडा। 

इसके बाद जीसस गायब हो गए। क्योंकि रविवार को यहूदी जनता उन्हें फिर से सूली पर चढ़ाने वाली थी। लेकिन जीसस के देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहां का चौकीदार रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव हो सका कि जीसस के शिष्यगण उन्हें बाहर आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले गए। 

      उनके इस प्रकार गायब हो जाने के कारण ही लोगों ने उनके पुनर्जन्‍म और स्‍वर्ग जाने की कथा को जन्‍म दिया गया।

सूली से उतारने के बाद कम से कम आठ लोगों न उनको नए शरीर में देखा। फिर वे गायब हो गए। और ईसाइयत के पास ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है कि जिससे मालूम हो कि वे कब मरे।

लेकिन बाद में हुई रिसर्च से पता चलता है कि जीसस क्राइस्ट सूली से उतरने के बाद भारत आ गए। उन्होंने भारत आना इसलिए पसंद किया क्योंकि युवावास्था में भी वे  वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्होंने अध्यात्म और ब्रह्म का परम  स्वाद इतनी निकटता से चखा था कि उन्होंने वहीं दोबारा लौटना चाहा। जैसे ही वह  स्वस्थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र तक जिए। उनकी कब्र आज भी कश्मीर में ही है।

सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’ के लेखक ने भी इस कब्र का देखा। वह कहता है कि ‘जब मैं कब्र के पास पहुंचा तो सूर्यास्‍त हो रहा था और उस समय वहां के लोगों और बच्‍चों के चेहरे बड़े पावन दिखाई दे रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वे प्राचीन समय के लोग हों। जूते उतार कर जब मैं भीतर गया तो मुझे एक बहुत पुरानी कब्र दिखाई दी जिसकी रक्षा के लिए चारों और फिलीग्री की नक्‍काशी किए हुए पत्‍थर की दीवार खड़ी थी। दूसरी ओर पत्‍थर में एक पदचिह्न बना हुआ था, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह यूसा-आसफ़ का पदचिह्न है। उसकी दीवार से शारदा लिपि में लिखा गया एक शिलालेख लटक रहा थ जिसके नीचे अंग्रेजी अनुवाद में लिखा गया है—‘यूसा-आसफ़ (खन्‍नयार। श्रीनगर)'

 यह कब्र यहूदी बनावट की है। भारत में कोई भी कब्र ऐसी नहीं है। इस कब्र के ऊपर यहूदी भाषा, हिब्रू में लिखा गया है कि ‘’यह यूसा-आसफ़ की कब्र है जो दूर देश से यहां आकर रहा’’। 

ओशो रजनीश भी लिखते हैं कि सूली पर चढ़ाये जाने से जीसस का मन बहुत परिवर्तित हो गया। जीवन में इतनी बड़ी घटना घटने के बाद वह बोधि को प्राप्त होकर पूर्णत: मौन हो गए। न उन्‍हें पैगंबर बनने में कोई दिलचस्‍पी रही न उपदेशक बनने में। बस वे तो मौन होकर एकांत में चले गए। इसीलिए इसके बाद उनके बारे में कोई तथ्य नहीं मिलता।  

जीसस ने इन सत्‍तर साल तक भारत में मौन रहकर साधना की। 

अमेरिक लेखक होल्गर कर्स्टन ने अपनी किताब ‘जीसस लिव्ड इन इंडिया’ किताब में ईसा के भारत प्रवास का जिक्र किया है। 

रामकृष्ण परमहंस के शिष्य और स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई स्वामी अभेदानंद ने 1922 में लद्दाख की होमिज मठ का दौरा किया और वहां ईसा की मौजूदगी साक्ष्यों को अपनी आंखों से देखा था। स्वामी अभेदानंद के संस्मरण बांग्ला भाषा में ‘तिब्बत ओ कश्मीर भ्रमण’ में संकलित हैं। 

परमहंस योगानंद ने अपनी किताबें ‘द सेकेंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट’ और ‘रेजरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू’ में जीसस के भारत प्रवास की घटनोँ का जिक्र किया है। उनकी किताबों के अंशों को लांस एजिलिस टाइम्स और द गार्जियन जैसे अखबारों ने प्रमुखता से छापा था। 

भविष्यपुराण में आए एक श्लोक में तिब्बत भूमि पर ईसा की शकराज से हुई मुलाकात का वर्णन है- ‘म्लेच्छदेश मसीहो हं समागत। ईसा इति मम् नाम प्रतिष्ठितम्’। 


4.    ईसा मसीह के वास्तविक वचन और निजी जीवन के बारे में हुई ताजा खोज
जीसस क्राइस्ट के निजी जीवन के बारे में हाल ही में कुछ सनसनीखेज खुलासे हुए हैं। साल 2014 में लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी में मौजूद 1500 साल पुरानी मैन्युस्क्रिप्ट की डिकोडिंग की गई तो पता चला कि ईसा ने अपनी शिष्या मैरी मैग्डलेन से शादी की थी। जिससे उनके दो बच्चे भी थे। 

आर्माइक भाषा में मिली बहुप्रचलित लॉस्ट गॉस्पेल को ट्रांसलेट करने के बाद नए तथ्य उभर कर सामने आए हैं। प्रोफेसर बैरी विल्सन और लेखक सिम्चा जैकोबोविक इस टेक्स्ट को ट्रांसलेट करने में कई महीने जुटे रहे।

द लास्ट गॉस्पेल उत्तर इजिप्ट के एक शहर नाग हम्मदि के पास, सन 1945 में एक बर्तन में सुरक्षित रखी हुई 12 किताबों के साथ मिलीं। ये किताबें एक ऐसा असाधारण दस्तावेज है जो तकरीबन 1500 साल पहले निकटवर्ती मठ के भिक्षुओं ने पुरातनपंथी चर्च के विध्वंसक चंगुल से बचाने की खातिर भूमि के नीचे दफना रखा था।

बाद में विद्वानों को इस खजाने की खबर लगी और उन्होंने इसका अनुवाद कर इसे छपवाया। इनमें संत थॉमस के सूत्र हैं, ल्यूक और मेरी मैग्डलेन के भी सूत्र हैं। ये सूत्र ईसाइयत के लिए सर्वाधिक खतरनाक हैं क्योंकि ये मनुष्य की अन्तःप्रज्ञा को मानते हैं, चर्च या ईश्वर को नहीं। 

इन सूत्रों को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि ईसा भारतीय परंपरा से प्रभावित संत थे। क्योंकि किसी भी पश्चिमी विचार में मनुष्य की अन्तःप्रज्ञा को शरीर से अलग नहीं माना गया है। यह एक तरह से ‘जीव के अंदर शिव’(सोsहं, तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म, तत्सत्) की अवधारणा का उद्घोष करते हैं। जो कि सिर्फ और सिर्फ सनातन परंपरा की ही देन हैं। 

थॉमस के ये सूत्र आध्यात्मिक खोज को आदमी के भीतर मोड़ते हैं, ये बाइबल का हिस्सा नहीं हैं। ये जीसस के अछूते शब्द हैं जो 2000 साल तक मानवीय निगाहों से दूर रहे। इनमें से कुछ वचन तो ऐसे हैं कि पहली बार मनुष्य की निगाह उन पर पड़ी।

इस किताब में जीसस का मूल हिब्रू नाम जोशुआ ही लिखा हुआ है। जीसस का उनके शिष्यों के साथ हुआ वार्तालाप है यह। यह बहुत छोटी सी पॉकेट बुकनुमा किताब है जिसमें आधे पन्नों में खूबसूरत चित्र हैं और आधे पन्नों में जीसस के सूत्र जो थॉमस ने दर्ज किए हैं। ये सारे चित्र प्राचीन मिस्र के हैं, और उनमें से कुछ रहस्यपूर्ण प्रतीक हैं जैसे यिन-यांग की आकृति या और कुछ यंत्र।

सूत्रों के प्रारंभ में थॉमस ने लिखा है “ये गुप्त शब्द हैं जिन्हें जीवित जोशुआ ने कहा और और डिडीमस जुदास थॉमस ने लिखा”

ये सूत्र कई तरह के हैं। इनमें प्रज्ञापूर्ण वचन हैं, भविष्यवाणियां हैं, मुहावरे हैं, कथाएँ हैं और संघ के लिए कुछ नियम हैं। न्यू टेस्टामेंट में जो सूत्र हैं उनके मुकाबले थॉमस के सूत्र अधिक प्रामाणिक और जीसस के वचनों के करीब मालूम होते हैं।

हालांकि द लॉस्ट गॉस्पेल ऐसा पहला रेकॉर्ड नहीं है, जो जीसस की शादी के दावे को सामने लाता है। निकोस कजांतजाकिस की 1953 में लिखित द लास्ट टेम्प्टेशन ऑफ क्राइस्ट और डैन ब्राउन की द डा विंची कोड में भी इसी तरह के दावे किए गए हैं।

जीसस की कथित पत्नी मेरी मैग्डलेन के नाम से यरुशलम की ओल्ड सिटी की दीवारों के बाहर लॉयन गेट के आगे एक प्राचीन चर्च है। मान्यता अनुसार जब यीशु पुन: जी उठे थे तब यही एकमात्र गवाह थी।

लेकिन  ईसाई धर्म को स्थापित करने वाले बाद के धर्माचार्यों ने मेरी मैग्डलेन को वेश्या  करार दिया है। लेकिन ईसा मसीह के जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों में उनकी मौजूदगी के पुख्ता सबूत रहे हैं। 

इससे पहले उपन्यासकार डैन ब्राउन ने अपने उपन्यास 'दा विंची कोड' के माध्यम से इस बात को उजागर किया था। डैन ब्राउन ने बरसों असली दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद यह उपन्यास लिखा है। यह वही दस्तावेज जिन्हें आज तक स्थापित धर्म ने दफना दिया था और गुह्य समूहों ने जीवित रखा था। 

द लास्ट गॉस्पेल’ में जीसस के अछूते विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीसस के विचार पूरी तरह सनातनी थे। इसके अलावा मेरी मैग्डलेन से विवाह से भी यह साबित होता है कि उन्होंने अपने जीवन का आखिरी समय भारत में बिताया था। क्योंकि विवाहित संन्यासी की स्वीकार्यता सिर्फ और सिर्फ भारतीय परंपरा में ही है। 

लेकिन चर्च जीसस क्राइस्ट का भारत से संबंध कतई स्वीकार नहीं कर सकता। चर्च के लिए यह कल्पना भी डराने वाली है कि जिस ईसा मसीह के बड़ी कठिनाई से तैयार किए गए ईश्वरपुत्र के व्यक्तित्व के प्रसार का झूठा नैतिक आवरण ओढ़कर उन्होंने इतना बड़ा आर्थिक और भौगोलिक साम्राज्य खड़ा किया है, उस जीसस को वह भारतीय धरती पर विचरने वाले लाखों संन्यासियों में से एक कैसे मान सकते हैं। क्योंकि ऐसा करने से उनके साम्राज्यवादी हितों पर जबरदस्त चोट पहुंचेगी। 

ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि ईसाईयत का केन्द्र आज भी वेटिकन सिटी है, जो कि प्राचीन रोमन साम्राज्य(आधुनिक काल के इटली के शहर रोम) के अंदर स्थित है। 

क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि सनातन परंपरा के वाहक संत ईसा को चर्च के साम्राज्यवादी चंगुल से मुक्त कराया जाए।