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प्रेमानंद महाराज कहते हैं कि भक्ति केवल बाहरी चिन्हों, जैसे तिलक लगाना या कंठी बांधना, तक सीमित नहीं है। असली भक्ति का मतलब है आंतरिक श्रद्धा और समर्पण।
वह कहते हैं कि परिवार के सदस्य जब राजी हों, तब ही वृंदावन जाएं और दर्शन करें।
उन्होंने कहा कि आप छिपकर वृंदावन आएं। कोई घटना घट जाए। अकेले आने के लिए हम कभी भी सलाह नहीं देंगे।
वह कहते हैं कि बाहरी चिन्ह तब तक न धारण करें। जब तक परिवार बाहरी चिन्हों को स्वीकार न करे। आप पूरा तिलक और रज लगाएं। आपके परिवारजन विरोध करें। ऐसी भक्ति क्या जो रोज कलह कराए।
वह कहते हैं कि हमें चाहिए कि पहले हम अपनी श्रद्धा पुष्ट करें। अंदर ही अंदर भजन का अभ्यास करें। नाम जप करें।
वह कहते हैं कि विरोध करने वाले हमारे परिवार के पूज्य जन हैं। हमें उनका चरण छूना चाहिए। हमें ऐसा दिखावा करना चाहिए कि हम उनका बहुत आदर करते हैं। उनके विरोध से कोई फर्क नहीं।