विपक्ष के सारे नेता जो कर्नाटक में हाथों में हाथ डाले हुए दिख रहे थे वह सब कोलकाता में हुई ममता बनर्जी की यूनाइटेड रैली में तो मौजूद थे पर राहुल गाँधी और मायावती गायब थे| तभी से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि महागठबंधन के खाने के दांत कुछ और हैं और दिखाने के कुछ और। क्योंकि सीटों के बंटवारे को देखकर लगता है कि कांग्रेस मुक्त भारत की बात चाहे सच ना भी हो लेकिन देश की राजनीति जरुर कांग्रेस मुक्त होती जा रही है।
नई दिल्ली: "हाथी के दांत दिखाने के कुछ और, और खाने के कुछ और " महागठबंधन की मौजूदा स्थिति कुछ कुछ ऐसी ही है| कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी की शपथ ग्रहण समारोह का वो दृश्य याद कीजिए। जब विपक्ष के सभी नेताओं ने हाथो में हाथ डाल के ऐसी एकता दिखाई थी मानों जैसे बात राजनीति की नहीं बल्कि कई बरसो के बिछड़े परिवारों का मिलन हो रहा हो।
ऐसा ही कुछ दृश्य ममता बनर्जी की "यूनाइटेड इंडिया रैली" में भी देखा गया परन्तु अटकलें ये लगाई जा रही थी कि प्रधानमंत्री के लिए वो कौन सा एक चेहरा होगा जिसपर पूरा विपक्ष एक साथ मुहर लगाएगा|
जैसे ही यह सवाल खड़ा हुआ तभी से ममता, मायावती और राहुल गाँधी के बीच में तनातनी शुरू हो गई, जिसे ममता की रैली ने जग जाहिर कर दिया। विपक्ष के जो सभी नेता कर्नाटक में हाथों में हाथ डाले थे वो सब ममता की यूनाइटेड रैली में तो मौजूद थे पर राहुल गाँधी और मायावती गायब थे |
तभी से ये बात साफ़ हो गई की विपक्ष के महागठबंधन के खाने के दांत कुछ और हैं और दिखाने के कुछ और। जहाँ एक तरफ ममता खुद को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार मानती हैं वही मायावती जिनकी पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनावों में एक सीट पर जीत नहीं मिली वो भी खुद को प्रधानमंत्री पद का उमीदवार मान चुकी हैं। दरअसल राहुल गांधी ने खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके सबकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को नहीं मिला उत्तर
उत्तर प्रदेश, जो भारतीय राजनीति का गढ़ माना जाता है। 80 सीटों वाले इस प्रदेश में महागंठबंधन में आयी थी पहली दरार तब दिखी, जब सपा और बसपा ने हाथ मिलाकर कांग्रेस को टाटा कह दिया|
लोगों की लिये जितना बड़ा सवाल सपा और बसपा की जोड़ी "साथी" है उतना ही बड़ा सवाल ये है की कांग्रेस के अकेले लड़ने में है कि कैसे जो सपा 2004 से 2014 तक यूपीए का हिस्सा रही, कांग्रेस के साथ मिलकर 2017 का उत्तरप्रदेश का चुनाव लड़ा, उसने अब 2019 की दौड़ में कांग्रेस से बिलकुल किनारा कर लिये है ?
बरसों के साथी को छोड़ दिया और बरसो के दुश्मन को "साथी" बना लिया जिसमें सपा 37 में चुनाव लड़ेगी और बसपा 38 सीटों पर, और कांग्रेस के लिए महज उनकी पुश्तैनी सीट अमेठी और रायबरेली छोड़ दी|
बहुदलीय जनतंत्र वाले भारत में राजनीति आये दिन करवट लेती है और ऐसी ही करवट कांग्रेस ने सपा-बसपा को जवाब देने के लिए प्रियंका को पूर्वी उत्तरप्रदेश से चुनाव प्रचार में उतारा| जिन्होंने मायावती को नजरअंदाज करके भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर से मुलाकात की, जो कि मायावती को बिलकुल रास नहीं आया|
हालांकि मायावती ने एक बार फिर कड़े शब्दों में कांग्रेस से कह दिया की "कांग्रेस हमें किसी भी तरह से खुद से जोड़ने की कोशिश न करे" | अब ये तो 23 मई को पता चलेगा कि "साथी" को जनता का कितना साथ मिलता है और कितने लोगों का हाथ कांग्रेस के "हाथ" में आता है लेकिन एक बात तो साफ़ है की उत्तर प्रदेश में कोंग्रेस के लिए फिलहाल "एकला चलो रे" ही उपचार है |
बंगाल में भी कांग्रेस बेहाल
उत्तर प्रदेश के बाद महागठबंधन से प्रधानमंत्री का दूसरा चेहरा बंगाल से है जहां ममता बनर्जी पहले ही कांग्रेस से दूरी बना चुकी है| अब बंगाल में कांग्रेस, तृणमूल और सीपीआई(एम) तीनों ही अलग चुनाव लड़ रहे हैं | ममता के किनारा करने के बाद कांग्रेस को सीपीआई-एम से उम्मीद थी। लेकिन शायद अब उसमें भी कोई गुंजाइश नहीं बची। सीपीआई ने कांग्रेस के लिए साउथ बंगाल की चार सीटें जिसपर कांग्रेस ने 2014 में जीत दर्ज की थी, उसपर चुनाव न लड़ने का फैलसा लिया वहीँ कांग्रेस ने भी पांच सीटें डायमंड हार्बर, बिष्णुपुर, तमलुक, आरामबाग और आसनसोल पर चुनाव न लड़ने का फैसला किया है।
इसके बाद कांग्रेस ने लेफ्ट फ्रंट के लिया रास्ता खुला छोड़ दिया है कि वो अपने उम्मीदवार कहां कहां खड़ा करती है|
वैसे तो बंगाल की राजनीति में ममता सरकार के खिलाफ एक सत्ता विरोधी माहौल है, जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिल सकता है| लेकिन जिस महागठबंधन के दमख़म को दिखाने के लिया ममता दीदी ने यूनाइटेड इंडिया रैली की थी वो बिखर चुका है और कांग्रेस के लिए यहाँ भी कोई गुंजाईश नहीं बची। पहले ममता और अब सीपीआई(एम) जिसने पार्टी के सम्मान के लिए कांग्रेस की शर्तों पर झुकने के लिए मना कर दिया है |
बिहार में भी कांग्रेस के लिए बहार नहीं
बिहार में कांग्रेस को उम्मीद थी अपनी शर्तो पर गंठबंधन करने की पर तेजस्वी यादव ने राहुल गाँधी के साथ चाहे कितना भी भोजन किया हो लेकिन चुनावी भजन में सुर मिलाने से मना कर दिया हालाँकि बिहार गंठबंधन में कांग्रेस की झोली में केवल 9 सीटें आईं, लेकिन सींटो के बंटवारे से कांग्रेस बेहद नाखुश है।
कांग्रेस दरभंगा की जिस सीट पर बीजेपी के बागी नेता कीर्ति आज़ाद को उतरना चाहती थी उस सीट पर आरजेडी ने अब्दुल बरी सिद्दीकी को उतर कर राहुल गाँधी को नाखुश किया है इस पहले भी कांग्रेस के सांसद निखिल कुमार की औरंगाबाद सीट पर भी आरजेडी ने समझौते करने से मना कर दिया |
दरभंगा की सीट जिसपर ब्राह्मणों का प्रभुत्व है कांग्रेस के लिए कीर्ति आज़ाद एक सटीक उम्मीदवार थे जो पिछले तीन बार से इस सीट से सांसद रहे हैं परन्तु उस सीट पर आरजेडी ने कोई गंठबंधन नहीं किया।
यही नहीं मधुबनी की सीट पर भी आरजेडी ने कांग्रेस से समझौता नहीं किया और वो सीट मल्लाह जाति से आने वाले वीआईपी के नेता मुकेश साहनी को दी गई है जो बात राहुल गाँधी के गले से नहीं उतरी|
हालांकि सुपौल सीट पर आरजेडी पहले कांग्रेस सांसद रंजीता रंजन के नाम पर नाखुशी जता रही थी। क्योंकि उनके पति पप्पू यादव हैं मधेपुरा से चुनाव लड़ रहे हैं। जहां से आरजेडी ने शरद यादव को टिकट दिया है | हालांकि अब रंजीता रंजन की सीट पर आरजेडी ने हामी भर दी है |
लेकिन इन सब के बीच में कांग्रेस जैसी अखिल भारतीय पार्टी के लिए केवल 9 सीटें छोड़ना, वह भी ऐसी जो उसे नापसंद है, महागंठबंधन के लिए शुभ संकेत नहीं हैं |
कांग्रेस का भविष्य
एक ऐसी पार्टी जिसने 55 साल अपनी शर्तों पर सत्ता चलाई और प्रादेशिक पार्टियों को उसकी शर्तो पर चलना पड़ा हो। आज उस पार्टी का हाल ऐसा हो गया है कि छोटी पार्टियां भी उससे गंधबंधन नहीं करना चाहती और जहां गठबंधन हुआ भी है वहां उसके खाते में ना के बराबर सीटें आई हैं|
2014 में कांग्रेस 44 सीटों में सिमट गई थी और 2014 से 2018 के मध्य तक खुद के दम पर कांग्रेस एक भी चुनाव नहीं जीत पाई, 2018 के आखिर में जो तीन राज्य उसने जीते वो भी दो से तीन प्रतिशत तो वोट शेयर से जीते। यहां तक कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सीटें भाजपा से कम हैं और वहां उसे मायावती की शर्तों पर समर्थन मिला है। यही हाल राजस्थान में भी हुआ।
अब 2019 में कांग्रेस न अकेले लड़ने के हालत में है और न ही उसे कोई अपने साथ रखने को तैयार | अब क्या ये मान लिया जाये की कांग्रेस मुक्त भारत की बात चाहे सच ना भी हो लेकिन देश की राजनीति जरुर कांग्रेस मुक्त होती जा रही है।
अब देखना होगा की 2014 से चली मोदी लहर के सामने महागंठबंधन का चिराग कितना जल पाता है | पर कांग्रेस के लिए न इस पर कुछ है न उस पार, कांग्रेस के लिए ये वक्त आत्मचिंतन का और शायद अपने नेतृत्व पर फिर से विचार करने का भी।