मिलिए उनसे जिन्होंने एस-400 डील को सुपरफास्ट रफ्तार से किया सील

By Ajit K Dubey  |  First Published Oct 6, 2018, 6:47 PM IST

भारत और रूस के बीच शुक्रवार को 40,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की एस-400 डील हुई है। खास बात यह है कि इस सौदे की प्रक्रिया शुरू होने के बाद महज छह महीने में पूरी कर ली गई। 

देश की सरहदों की सुरक्षा के लिए एस-400 एयर डिफेंस मिसाइल सिस्टम डील को गेमचेंजर बताया जा रहा है। जिस रफ्तार से इस सौदे की प्रक्रिया पूरी हुई, उसने रक्षा सौदों को अंतिम रूप देने की सुपरफास्ट प्रक्रिया की नई राह खोल दी है। भारत और रूस के बीच शुक्रवार को 40,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की एस-400 डील हुई है। खास बात यह है कि इस सौदे की प्रक्रिया शुरू होने के बाद महज छह महीने में पूरी कर ली गई। 

अक्टूबर 2016 में गोवा में ब्रिक्स सम्मलेन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से हुई मुलाकात के बाद भारत ने पहली बार इस सौदे पर हस्ताक्षर करने की इच्छा जताई थी। सौदे से जुड़े सरकार के एक वरिष्ठ सूत्र के अनुसार, अक्टूबर 2017 तक इस डील पर कुछ खास प्रगति नहीं हुई। इसी दौरान रूस के ऊफा में पीएम मोदी की रूसी राष्ट्रपति पुतिन से फिर मुलाकात हुई। ऊफा में इस सौदे को लेकर हुई प्रगति पर चर्चा की गई।

रूस से लौटने के बाद पीएम मोदी ने इस प्रोजेक्ट की समीक्षा की। इस दौरान यह बात सामने आई कि एस-400 डील को लेकर अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है। 

निर्मला सीतारमण ने सितंबर 2017 में रक्षा मंत्रालय का प्रभार संभाला था। जिम्मेदारी मिलने के एक महीने के बाद ही उन्होंने इस पर बैठक बुलाई। रक्षा मंत्रालय में हुई अंदरूनी चर्चा के दौरान रक्षा सचिव संजय मित्रा ने इस प्रोजेक्ट को तेजी से आगे बढ़ाने का सुझाव दिया। साथ ही अनुबंध वार्ता समिति (कांट्रैक्ट नेगोसिएशन कमेटी) की जिम्मेदारी वायुसेना को सौंपे जाने की बात कही। उन्होंने कहा कि आखिरकार रूस से जिस प्रणाली को खरीदने की योजना बन रही है, उसका इस्तेमाल वायुसेना को करना है, ऐसे में उसे ही इस प्रक्रिया को लीड करना चाहिए। 

इसके तुरंत बाद, वायुसेना के तत्कालीन डेप्यूटी चीफ एयरमार्शल रघुनाथ नांबियर के नेतृत्व में एक अनुबंध वार्ता समिति गठित कर दी गई। इसमें संयुक्त सचिव और खरीद प्रबंधक संजय सिंह और मौजूदा संयुक्त सचिव (नौसेना) ऋचा मिश्रा को भी प्रमुख सदस्यों के रूप में जगह दी गई। 

उस समय मिश्रा समिति में डिफेंस फाइनेंस विंग का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। वार्ता शुरू होने से पहले समिति को कीमत निर्धारण के महत्वपूर्ण मुद्दे से निपटना था। समिति ने समय पर इस मुद्दे निपटा लिया। वार्ता समिति की पहली बैठक इसी साल फरवरी में हुई थी। 

रक्षा मंत्री और रक्षा सचिव का जोर भी इस बात पर था कि टीम समय पर डील को सील कर ले। रूस-अमेरिका में तनातनी के चलते मिसाइल सिस्टम खरीदने में मुश्किल आने का अंदेशा था। अमेरिका की ओर से प्रतिबंध लगाए जाने का खतरा गहराता जा रहा था। 

हालांकि वार्ता समिति ने प्रतिबंध लगने की आशंका का लाभ उठाया और रूस से 900 मिलियन डॉलर यानी करीब 7,000 करोड़ रुपये की छूट हासिल कर ली। इस सौदे के लिए रक्षा खरीद परिषद ने 6.3 बिलियन डॉलर की राशि स्वीकृत की थी। 

अमेरिकी दबाव के चलते इस साल मई में हुई कई दौर की वार्ता के बाद भारतीय दल रूस से कम कीमत में सौदा और आपूर्ति के लिए बेहतर नियम व शर्तों को अंतिम रूप देने में सफल रहा। खास बात यह रही कि अमेरिका के डर से एस-400 में रुचि दिखा रहे कई खरीदार पीछे हट गए थे। 

इसके बाद एयर वाइस मार्शल की अगुवाई में एक टीम ने इस मिसाइल प्रणाली को बनाने वाली कंपनी अलमाज एंटे का दौरा किया। यहां मिसाइल की मारक क्षमता को परखा गया। सौदे की राह से बाधाओं को हटाने और कीमत बढ़ने से रोकने के लिए रक्षा मंत्रालय ने ऑफसेट को शामिल नहीं किया। 

इसके बाद मिश्रा को संयुक्त सचिव (नौसेना) बना दिया गया लेकिन रक्षा मंत्रालय ने उन्हें वार्ता कर रहे दल में इंडियन डिफेंस सर्विस ऑफिसर के तौर पर बनाए रखा। ताकि कांट्रैक्ट की गति बाधित न हो। 

जून-जुलाई में इस टीम ने पूरी वार्ता मुकम्मल कर ली। पूरे सौदे को सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) के समक्ष विचार और स्वीकृति के लिए पेश कर दिया। सीसीएस की अध्यक्षता पीएम नरेंद्र मोदी करते हैं। इस सौदे को लेकर अंतिम मंजूरी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के दौरे से पहले सितंबर में मिली। 

वार्ता समिति ने दो महीने पहले ही डील को लेकर तमाम औपचारिकताएं पूरी करते हुए इसे हस्ताक्षर के लिए तैयार कर दिया था। यह सौदा 5.43 बिलियन डॉलर का है। 

वार्ता दल द्वारा तेजी से किए गए काम पर टिप्पणी करते हुए रक्षा विशेषज्ञ देबा मोहंती ने कहा, 'जितनी तेजी से इस डील को अंतिम रूप दिया गया, दूसरे रक्षा सौदों को भी उतनी ही तेजी से निपटाया जाना चाहिए। अगर सरकार ऐसा कर पाती है तो रक्षा मंत्रालय की जटिल खरीद प्रक्रिया में लगने वाले समय को  बचाया जा सकता है।'

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