जयपुर। पीराराम धायल की एक आवाज पर बेजुबानों का झुंड उनकी तरफ दौड़ा चला आता है। जानवरों को चारा देने के लिए डेली सुबह 4 घंटे कड़ी मशक्कत। घायल जंगली जानवरों का इलाज करना। ठीक होने पर जंगल में छोड़ना। यह उनकी दिनचर्या में शामिल है। माय नेशन हिंदी से बात करते हुए वह कहते हैं कि पहले पंक्चर की दुकान चलाता था। घर से डेली 40 से 45 किलोमीटर मोटरइसाइकिल चलाकर सांचोर जाता था। सड़क पर एक्सीडेंट में घायल बेजुबानों को पड़ा देखा तो बहुत दुख हुआ। दिल नहीं माना तो उनको रेस्क्यू करना शुरु कर दिया। अब तक वह 3500 जानवरों को रेस्क्यू कर चुके हैं। 

सांचोर में चलाते थे पंक्चर की दुकान

पीराराम की पहले सीआरपीएफ में पोस्टिंग थी। साल 1995 में नौकरी छोड़कर अपने गांव देवड़ा में खेती शुरु की। जीवन यापन के लिए सांचोर में गाड़ियों का पंक्चर बनाने की दुकान शुरु की। गांव देवड़ा से डेली 40 से 45 किलोमीटर मोटरसाइकिल चलाकर दुकान तक जाते थे। वह कहते हैं कि हम विश्नोई कम्युनिटी से बिलांग करते हैं। हमारे गुरु महाराज जीव-जंतु पालने, जीवों पर दया करने, पेड़ नहीं काटने का ज्ञान देते हैं। यह हमारा नियम है। उस समय आर्थिक स्थिति खराब थी। अक्सर दुकान जाते समय देखता था कि सड़क पर एक्सीडेंट में जानवर घायल हो जाते थे। उनके बच्चे भी साथ में होते थे।

 

बेजुबानों की मौत के बाद भी बच्चे पीते थे दूध, 1998 से रेस्क्यू

पीराराम धायल कहते हैं कि चिंकारा और बंदर के दो-तीन एक्सीडेंट ऐसे देखें कि जिसमें जानवर के मरने के बाद भी बच्चे उनका दूध पीते थे। हालांकि मौत के बाद जानवर के स्तन से दूध नहीं निकलता है। फिर भी बेजुबान बच्चे अपनी मृत मॉं का स्तन चूसते थे। मानो बच्चा टेस्ट कर रहा हो कि उसकी मॉं जीवित है या नहीं। ऐसी स्थिति देखने के बाद बहुत दुख होता था। सोचा कि कैसे इनको बचाया जाए। साल 1998 से घायल जानवरों को बचाने का काम शुरु किया। पहले ऐसे ही एक-दो एक्सीडेंट में घायल जानवरों को घर लाया। ठीक होने के बाद उन्हें जंगल में छोड़ देता था। धीरे-धीरे यह काम बढ़ता रहा। बाद में परिवार के लोग भी सहयोग करने लगे। फिर एक संस्था से भी सहयोग मिला।

ऐसे बचाई बेजुबानों की लाइफ 

एक बार पीराराम अपने काम पर जा रहे थे। हिरण के एक झुंड की गाड़ी से टक्कर की वजह से एक मादा के प्राण मौके पर ही निकल गए। उसके बच्चे को अपने घर ले गए। पत्नी पारूदेवी ने देखभाल की। उन्हें लगा कि ऐसे ही सब चलता रहा तो बेजुबान मर जाएंगे। फिर उन्होंने घायल जानवरों को बचाने के काम में खुद को समर्पित कर दिया। अभी हाल ही में सांचोर में एक मादा बंदर प्रसव के वक्त मुश्किल में आ गई। बच्चा फंस गया। वह तीन दिन तक इधर-उधर भटकती रही। पीराराम को जानकारी मिली तो वह देवड़ा से रेस्क्यू वाहन लेकर सांचोर गए और डॉक्टर की मदद से मादा बंदर की जान बचाई। 

 

25 बीघा एग्रीकल्चर लैंड में रेस्क्यू सेंटर

दस साल पहले पीराराम धायल ने खुद की 25 बीघा एग्रीकल्चर लैंड में रेस्क्यू सेंटर स्थापित कर दिया और सारे काम छोड़ दिए। अब तक 550 जानवरों को रेस्क्यू के बाद जंगल में छोड़ने के लिए वन विभाग को दे चुके हैं। मौजूदा समय में उनके पास 150 जानवर है। उनमें चिंकारा, ब्लैक बग, डियर, मोर, बंदर और खरगोश शामिल हैं। अपने खेत के कुछ हिस्सों में वह फसल उगाते हैं, जो जानवरों के खाने के काम आता है। खेतों में पेस्टीसाइड्स के बड़े पैमाने पर यूज की वजह से राष्ट्रीय पक्षी मोर बड़ी संख्या में पैरालाइज हो रहे हैं। कुछ तो अंधे भी हो जाते हैं। ऐसे मोर के रहने की व्‍यवस्‍था बना रखी है। ​उन्हें चारा उपलब्ध कराते हैं। उनके खेत में एक हजार पेड़ हैं, जो घायल पक्षियों और जंगली जानवरों को जंगल सा माहौल उपलब्‍ध कराता है।

शिकायतें-आर्थिक दिक्कतें-समय का अभाव, फिर भी जारी रखी मुहिम

यह काम करना इतना आसान भी नहीं था। पहले परिवार के लोग नहीं मानते थे। समय का अभाव, आर्थिक दिक्कतों के अलावा लोगों की शिकायतें भी झेलनी पड़ती थी। लोग कहते थे कि जंगली जानवर क्यों रखते हो? पीराराम धायल कहते हैं कि हम जानवरों को पकड़ते नहीं थे, बल्कि घायल जानवरों की मदद करते थे। वन विभाग, प्रशासन की मदद लेते थे। डॉक्टर्स ने भी इलाज में सहयोग किया। घायल जानवरों को रेस्क्यू करने में काफी खर्च भी आता है। पर्यावरण प्रेमी कुछ मदद करते हैं। पर पर्याप्त मदद अभी नहीं मिल रही है। हालांकि परिवार और कम्युनिटी की तरफ से पूरी मदद मिल रही है। 

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