​लखनऊ। ​यूपी के मिर्जापुर के मुकेश पांडेय ने साल 2019 से गोबर से वर्मीकम्पोस्ट (जैविक खाद) बनाने का काम शुरु किया। शुरु में लोगों ने उन्हें बेवकूफ समझा। यह भी चर्चा हुई कि दिल्ली से लाख रुपये की नौकरी छोड़कर आया है। शायद नौकरी से निकाल दिया गया होगा। उनकी मॉं भी चिंतित थीं। उसकी वजह भी ​थी कि परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। ऐसे में एकाएक नौकरी छोड़कर जैविक खाद बनाने का उनका फैसला सबको अचंभित करने वाला था। मुकेश ने एक झोपड़ी से 50 हजार रुपये जुटाकर काम शुरु किया था। आज उनका खुद का बड़ा सा ट्रेनिंग सेंटर और आफिस है। चार वर्षों में कम्पनी का टर्नओवर 15 करोड़ तक पहुंच गया है। उनके बनाए खाद की देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी डिमांड है। 

गोबर से खाद बनाने की ऐसे मिली प्रेरणा

मिर्जापुर के सीखड़ के रहने वाले  मुकेश पांडेय कहते हैं कि कोविड महामारी से थोड़ा पहले साल 2019 में नाबार्ड के सहयोग से नवचेतना के नाम से एफपीओ बनाया। हमारा मकसद जैविक खाद बनाना और जैविक खेती को प्रमोट करना था। एफपीओ बनाने से पहले वह दिल्ली में नौकरी कर रहे थे। सीखड़ में काफी डेयरी हैं। सड़कों पर बहुत सारा गोबर फेंका जाता था। मुकेश को यह चुभता था। यह भी एक वजह रही कि उन्हें अपशिष्ट पदार्थों से योग्य पदार्थ बनाने का विचार आया। चूंकि गुजरात में पढ़ाई के दौरान उन्होंने गोबर से खाद बनाना सीखा था। कृषि विभाग के स्थानीय अधिकारियों से उन्हें यह काम शुरु करने के लिए प्रोत्साहित किया और फिर उन्होंने एफपीओ के जरिए काम करना शुरु कर दिया। 

30 हजार क्विंटल जैविक खाद बनाने की है कैपिसिटी

मुकेश पांडेय कहते हैं कि शुरु में सिर्फ दो वर्मी बेड से काम शुरु किया गया था। आज हमारे पास 3 हजार वर्मी बेड्स हैं। जैविक खाद बनाने की कैपिसिटी 30 हजार क्विंटल है, जो भारत में सबसे ज्यादा है। 1500 किसानों की एक्टिव मेंबरशिप से उनका एफपीओ चल रहा है। ट्राइबल वुमेन के लिए भी काम कर रहे हैं। पिछले वर्ष उन्होंने साउथ कोरिया, जापान और श्रीलंका में जैविक खाद का निर्यात भी किया है। अब उनका काम विस्तार ले रहा है। मुकेश त्रिपाठी, अखिलेश त्रिपाठी, रामू मिश्रा समेत उनके एफपीओ में पांच निदेशक हैं।

पढ़ाई के बाद 5 साल जॉब की

मुकेश पांडेय ने अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन करने के बाद भारतीय उद्यमिता विकास संस्थान, अहमदाबाद से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन मैनेजमेंट में दाखिला लिया। वहीं उन्हें खुद का उद्यम स्थापित करने का विचार आया। पढ़ाई के बाद नौकरी नहीं करना चाहते थे, पर पिताजी कैंसर से जूझ रहे थे। ऐसे में परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए शुरुआती 5 साल जॉब की। 

किसानों की जेबों में विदेशों से लाकर दिया पैसा

मुकेश कहते हैं कि वह शुरु से ही सोचते थे कि अकेले विकास नहीं करना है। सामूहिक विकास पर ध्यान देना है। इसी वजह से उन्होंने दिल्ली में एक लाख रुपये महीने वाली जॉब छोड़कर गांव का रूख किया। काम की शुरुआत में लोगों को कन्वेंस करने की काफी कोशिशें की। तब लोग कहते थे कि गोबर में इतना दम कहां है। पर अब किसानों की जेब में विदेशी पैसे लाकर दिए, तो हौसला बढ़ा है। उन्हें उत्कृष्ट एफपीओ अवार्ड और पर्यावरण विकास एवं कृषि ​स्थायितत्व के लिए राष्ट्रीय स्तर का अवार्ड भी मिला है।