अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने जीवन काल में कई कविताएं लिखीं। समय-दर-समय उन्हें संसद और दूसरे मंचों से पढ़ा। उनका कविता संग्रह 'मेरी इक्वावन कविताएं' उनके समर्थकों में खासा लोकप्रिय हैं।
भेद में अभेद खो गया
बंट गये शहीद, गीत कट गए
कलेजे में कटार दड़ गई
दूध में दरार पड़ गई
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई
गले लगने लगे हैं ग़ैर
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता
बात बनाएं, बिगड़ गई
दूध में दरार पड़ गई
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात
प्राची में, अरुणिमा की रेख देख पाता हूं
गीत नया गाता हूं, गीत नया गाता हूं
अंतर को चीर व्यथा, पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा
काल के कपाल पर, लिखता-मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं, गीत नया गाता हूं
3. भारत का मस्तक नहीं झुकेगा
पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।
अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतंत्रता।
त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतंत्रता,
दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतंत्रता।
चिनगारी का खेल बुरा होता है ।
औरों के घर आग लगाने का जो सपना,
वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।
अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।
ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।
तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई।
अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं,
माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई?
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो।
दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से
तुम बच लोगे यह मत समझो।
कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो।
हमलो से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,
स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन यौवन अशेष।
काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतंत्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा।
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
मौत से ठन गई!
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
यों लगा ज़िंदगी से बड़ी हो गई।
ज़िंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।
देख तेवर तूफ़ां का, तेवरी तन गई।
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।
होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
होना या न होना?
या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
मुझे लगता है कि
होना-न-होना एक ही सत्य के
दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर,
बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है।
इस प्रश्न की खोज में लगा है।
सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है?
हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा।
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।
Last Updated Sep 9, 2018, 12:12 AM IST