भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में गिरफ्तार पांच लोगों पर सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है, कि इन सभी की नजरबंदी जारी रहेगी। तीन जजों की बेंच ने इस मामले में दोनों पक्षों के तर्क सुनने के बाद 20 सितंबर को फैसला सुरक्षित रखा था। इस बेंच में खुद चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.एम.खानविलकर और जस्टिस डी.वाई.चंद्रचूड़ शामिल थे। इस मामले में भी एक जज की राय बाकी दोनों से जुदा दिखी।  

इस मामले में राज्य सरकार की ओर से असिस्टेंड सोलिसीटर जनरल तुषार मेहता, केन्द्र की ओर से ASG मनिंदर सिंह और वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने तर्क पेश किए।

जबकि याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर वकील अभिषेक मनु सिंघवी, आनंद ग्रोवर और वृंदा ग्रोवर अदालत में आए थे।

आईए बिंदुवार जानते हैं, कि इस बहुचर्चित मामले में अभियोजन और बचाव पक्ष ने क्या क्या तर्क दिए और कोर्ट ने क्या क्या कहा -

-    इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाए थे, कि ‘यह गिरफ्तारियां राजनीतिक असहमति की वजह से की गई हैं’।
लेकिन ASG तुषार मेहता ने इसका विरोध करते हुए कहा, कि पांचो आरोपियों को पुख्ता सबूतों के आधार पर 6 महीने की जांच के बाद गिरफ्तार किया गया है। इनसे जब्त किए गए फोन और लैपटॉप जैसे इलेक्ट्रॉनिक सबूतों की फोरेंसिक जांच चल रही है। अदालत को हर कदम की जानकारी मुहैया कराई गई है।  

अदालत ASG तुषार मेहता के तर्क से संतुष्ट हुई और चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर ने टिप्पणी की, कि यह गिरफ्तारियां राजनीतिक वजहों से नहीं हुई है। पहली नजर में ऐसे सबूत मिले हैं, जिससे इन लोगों के माओवादियों से संबंध के बारे में पता चलता है। लेकिन जस्टिस चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र पुलिस की जांच के तरीकों पर सवाल उठाए।

-    याचिकाकर्ताओं की दूसरी मांग थी, कि इस मामले में जांच के लिए एसआईटी(SIT) का गठन किया जाए। याचिकाकर्ता के वकीलों अभिषेक मनु सिंघवी, आनंद ग्रोवर और वृंदा ग्रोवर ने सुप्रीम कोर्ट से दखल देते हुए SIT जांच कराने का आग्रह किया।

लेकिन इसके विरोध में वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने तर्क दिया, कि इस मामले में SIT जांच की जरूरत नहीं है। ऐसा आदेश 2G जैसे मामलों में दिया जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने हरीश साल्वे के तर्क को स्वीकार किया और जस्टिस खानविलकर ने कहा की, कि ‘आरोपी खुद यह तय नहीं कर सकते, कि कौन सी एजेन्सी जांच करेगी और कैसे। यह केस सिर्फ इसलिए गिरफ्तारी का नहीं है कि असहमति हुई है। आरोपी पहले से ही कोर्ट में कानूनी उपचार ले रहे हैं। लेकिन हम इस मामले में कोई टिप्पणी दर्ज नहीं कर रहे हैं, क्योंकि इसका केस पर गंभीर असर पड़ेगा’। हालांकि इस मामले में भी जस्टिस चंद्रचूड़ की राय अलग थी। वह इसे SIT(एसआईटी) लायक मान रहे थे। लेकिन बहुमत के आधार पर बेंच ने SIT(एसआईटी) की मांग खारिज कर दी।
                                             अदालत के आदेश के बाद महाराष्ट्र पुलिस ही मामले की जांच जारी रखेगी।

-    याचिकाकर्ता के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने टीवी रिपोर्टिंग का मुद्दा उठाते हुए आरोप लगाया, कि कैसे चैनलों को यह चिट्ठियां पहले मिल गईं और ये झूठी हैं। सुधा भारद्वाज हिंदीभाषी हैं लेकिन उनकी कथित चिट्ठी में मराठी शब्दों का इस्तेमाल हुआ है।

इसपर वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने भी चिंता जाहिर की और कहा कि यह गंभीर मसला है कि चैनल के पास ये चिट्ठी कैसे पहुंची।

लेकिन अदालत ने चिट्ठी के मामले को ज्यादा तवज्जो नहीं दी, और कहा कि मूल मुद्दे पर ही बहस होनी चाहिए।

-    उधर केन्द्र की ओर से अदालत ने पेश हुए असिस्टेंड सॉलिसीटर जनरल(ASG) मनिंदर सिंह ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की दखलअंदाजी का ही विरोध किया। उन्होंने कहा, कि देश में नक्सलवाद एक गंभीर समस्या है और यह देशभर में फैला हुआ है। इस तरह के मामलों की सुनवाई निचली अदालत में ही होनी चाहिए। किसी तीसरे पक्ष की याचिका पर सीधा सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होना एक गलत उदाहरण पेश करेगा।

जिसपर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, कि याचिका सुनवाई के योग्य है या नहीं यह मुद्दा नहीं उठाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि कानून व्यवस्था बिगाड़ने व सरकार को उखाड़ फेंकने और असहमति में अंतर होता है।
 
इसका जवाब देते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने कहा, कि आपराधिक कृत्य और असहमति के बीच अंतर होता है। पुलिस जांच आगे बढ़ने की इजाजत दी जानी चाहिए।     

आपको बता दें, कि इन पांच लोगों की गिरफ्तारी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और देवकी जैन, प्रोफेसर सतीश देशपांडे और मानवाधिकार कार्यकर्ता माजा दारुवाला ने याचिका दायर की थी।