इस्लामिक देशों का ऐसा संगठन, जो हर वर्ष कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के रुख का समर्थन करते हुए भारत के खिलाफ प्रस्ताव पारित करता हो वह हमें इतना सम्मान दे तो यह विश्व पटल पर भारत के संदर्भ में बदलते हुए मौसम का परिचायक माना ही जाएगा। 

ध्यान रखिए, पहले पाकिस्तान की संसद में यह आवाज उठी कि ओआईसी में भारत को बुलाने का हमें विरोध करना चाहिए और फिर वहां के विदेश मंत्री शाह महमूद कसूरी ने बयान दे दिया कि अगर भारत को बुलाया जाएगा तो हम नहीं जाएंगे। ऐसा होता है तो इसका मतलब होगा पहली बार भारत की उपस्थिति एवं पाकिस्तान की अनुपस्थिति में सम्मेलन का आयोजन होगा। इस संगठन के इतिहास एवं चरित्र को देखते हुए यह सामान्य घटना नहीं होगी। 

ऐसे में उन लोगों को अपने रुख पर पुनर्विचार करना चाहिए जिन्होंने भारत को निमंत्रण मिलते ही इससे विवाद का विषय बना दिया था। विरोधी पार्टियों ने कह दिया कि भारत को निमंत्रण स्वीकार करना ही नहीं चाहिए था। क्यों? यह किसी ने नहीं सोचा कि आखिर 57 देशों वाले इस्लामी देशों के इस सबसे बड़े संगठन के आमंत्रण को ठुकरा देने से हमें क्या मिलेगा? 

पाकिस्तान के साथ तनाव की जो मौजूदा स्थिति है वह नहीं होता तो भी वहां जाने में कोई समस्या थी ही नहीं।  विरोध करने वाले यह भूल गएं कि इस संगठन के ज्यादातर देशों के साथ हमारे गहरे संबंध हैं। सउदी अरब सहित खाड़ी के पांच देश हमारे रणनीतिक साझेदार हैं। 

मध्यएशिया के तेल, गैस और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण देशों ने आगे बढ़कर भारत का हाथ थामा है। भारत मिस्र, मोरक्को और ट्यनीशिया जैसे देशों में अपनी उपस्थिति बढ़ाने के लिए अनवरत कोशिश कर रहा है। इंडोनेशिया जैसे दुनिया में सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला देश, सीरिया, अल्जीरिया और हाल के वर्षों में बांग्लादेश ने कश्मीर पर भारत विरोधी प्रस्तावों का लगातार विरोध किया है। 

बांग्लादेश ने इसमें भारत को शामिल करने के लिए आवाज उठाई है तथा तुर्की ने इसका समर्थन किया है। बांग्लादेश में मई 2018 में संगठन के विदेश मंत्रियों का सम्मेलन आयोजत हुआ था। इसमें बांग्लादेश के विदेश मंत्री एएच महमूद अली ने भारत का पक्ष रखते हुए कहा कि कई देश, जो संगठन के सदस्य नहीं हैं, उनके यहां भारी संख्या में मुसलमान रहते हैं। इन देशों में मुसलमान अल्पसंख्यक हो सकते हैं, पर उनकी आबादी अनेक मुस्लिम देशों की आबादी से ज्यादा है। ऐसे देशों के साथ संबंधों का पुल बनाने की आवश्यकता है ताकि मुसलमानों की बड़ी आबादी संगठन के अच्छे कार्यों से वंचित न रह जाए। इसलिए संगठन में सुधार और इसकी पुनर्रचना जरुरी है। 

दरअसल, इस संगठन के विधान में केवल मुस्लिम बहुसंख्यक देशों को ही सदस्यता देने की व्यवस्था है। तुर्की हालांकि अब सेक्यूलर से इस्लामिक मुल्क बनने की राह पर है पर हाल के वर्षों में उसने भारत के साथ बेहतर संबध बनाने की पहल की है। पहले वह पाकिस्तान के मोहपाश में भारत को पर्याप्त महत्व नहीं देता था। 

सम्मेलन की मेजबानी कर रहे संयुक्त अरब अमीरात ने भारत को मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित करने के बारे में कहा है कि ऐसा इसके वैश्विक राजनैतिक कद के साथ सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक विरासत तथा इसके महत्वपूर्ण इस्लामी तत्वों के समय-परीक्षित पहलुओं को ध्यान में रखते किया गया है। भारत के बारे में यह स्वीकृति सामान्य नहीं है।

सच कहा जाए तो इस निमंत्रण को भारत की एक बड़ी कूटनीतिक कामयाबी के रुप में देखा जाना चाहिए। जब निमंत्रण आया तो पुलवामा हमला हो चुका था एवं भारत पाकिस्तान के तनाव बढ़े हुए थे। भारत को आमंत्रित करने के पहले इस विषय पर अवश्य विचार-विमर्श हुआ होगा। पहले से ही यह साफ हो रहा था कि भारत को सम्मान देना पाकिस्तान को नहीं सुहा रहा है। 

ध्यान रखिए, यह निमंत्रण संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्लाह बिन जायेद अल नाहयान ने सउदी अरब के युवराज मोहम्मद बिना सलमान की भारत यात्रा के ठीक एक दिन बाद दिया। इसका मतलब है कि उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से इसकी चर्चा की होगी। आज संयुक्त अरब अमीरात एवं सउदी अरब दोनों से हमारे गहरे संबंध हैं। 

अगस्त 2015 में मोदी की संयुक्त अरब अमीरात यात्रा के बाद फरबरी 2016 में वहां के युवराज शेख मोहम्मद बिन जायेद अल नाहयान भारत आए थे। वे 2017 के गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि भी थे। पश्चिम एशिया में इस समय वो बेहद लोकप्रिय हैं। इन दोनों देशों ने प्रधानमंत्री मोदी को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मानों से नवाजा। ऐसे देशों के अनुरोध को ठुकराना किसी दृष्टि से अच्छ कूटनीति नहीं होती। 

वस्तुतः कश्मीर पर अब तक हमारे लिए प्रतिकूल संगठन यदि अपनी बात रखने के लिए बुला रहा है तो इसे एक अवसर ही माना जाना चाहिए। ऐसे में यह नहीं माना जा सकता संगठन की आवाज एकदम भारत के अनुकूल हो जाएगी। किंतु अपनी बात रखने में हर्ज क्या है? अभी यह देखना होगा कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज वहां क्या बोलतीं हैं और उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है। 

भारत के सामने मूल प्रश्न है कि क्या उस मंच का इस्तेमाल पुलवामा हमले के आलोक में जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान की भूमिका को उजागर करने के तथा वायुसेना की कार्रवाई की तार्किकता को वहां रखना चाहिए या नहीं? संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत खुलकर ऐसा कर रहा है, क्योंकि भारत को अब किसी तीसरी शक्ति के हस्तक्षेप का कोई भय नहीं है। 

अगर शाह महमूद कुरैशी वहां होते तो वे निश्चय ही भारत को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते। उन्होंने पुलवामा हमले के बाद अपने वक्तव्य में कहा भी था कि ओआईसी के महासचिव को पूरी स्थिति से अवगत करा रहे हैं। 2 मार्च को संगठन प्रस्ताव पारित करेगा। उसमें कश्मीर और भारत की चर्चा किस रुप में होगी इससे काफी कुछ संकेत मिल जाएगा। 
  
भारत में इंडोनेशिया के बाद सबसे ज्यादा मुसलमान हैं। हमारी मुस्लिम आबादी विश्व की कुल मुस्लिम आबादी का 10 प्रतिशत है। इस संगठन ने भारत को पर्यवेक्षक का दर्जा भी नहीं दिया है, जबकि रुस, थाईलैंड और कई छोटे-मोटे अफ्रीकी देशों को यह दर्जा मिला हुआ है। भारत ने इसकी कभी मांग भी नहीं की। किंतु हमारे मित्र देश संगठन में जब इसकी वकालत कर रहे हैं तो उनको निराश नहीं करने का कोई कारण नहीं था। 

1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के तत्कालीन कृषि मंत्री फखरुद्दीन अली अहमद को इसके अधिवेशन में भाग लेने के लिए मोरक्को भेजा था, लेकिन उस समय पाकिस्तान की कूटनीति और उसके प्रभाव का मूल्यांकन करने में चूक हो गई। पाकिस्तान के सैनिक शासक याह्या खान ने वहां ऐसा किया कि निमंत्रण के बावजूद अहमद अधिवेश में भाग नहीं ले पाए। तबसे इस संगठन से हमारे संबंध बिगड़े रहे। उसके बाद हर वर्ष कश्मीर पर भारत विरोधी प्रस्ताव का भारत खंडन करता रहा। 

1998 में विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने साफ कह दिया कि ऐसे संगठन के प्रस्ताव को भारत महत्व ही नहीं देता। तबसे भारत की नीति बदल गई। पिछले 20 वर्षों से भारत उसके प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया देता ही नहीं। बावजूद इसके पाकिस्तान को छोड़कर उसके सभी प्रमुख देशों से हमारे द्विपक्षीय संबंध बेहतर हैं। 

संगठन को भी पता है कि कश्मीर पर उनके भारत विरोधी प्रस्ताव का अब वैश्विक राजनीति में कोई महत्व नहीं रह गया है। पाकिस्तान को ज्यादातर इस्लामी देश छोड़ नहीं सकते, पर यह साफ है कि भारत को भी वे नजरअंदाज नहीं कर सकते। भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों के गहराने के साथ कुछ देशों का नजरिया एक हद तक ही सही जरुर संतुलित हुआ है। यह निमंत्रण उसी का परिणाम है और इसे स्वीकार करना बिल्कुल सही कदम है। अगर पाकिस्तान की नाराजगी और बहिष्कार को नजरअंदाज करके भी भारत को बोलने का सम्मान दिया जाता है तो इसका मतलब बहुत बड़ा होगा। पाकिस्तान के लिए यह असाधारण धक्का होगा। 

अवधेश कुमार(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)