भारत, राज्यों का एक संघ है न कि देश के 543 लोकसभा क्षेत्रों का संघ। ये लोकसभा क्षेत्र देश के उपयुक्त प्रशासनिक ढांचे भी नहीं हैं और इनका इस्तेमाल महज एक चुनावी इकाई के तौर पर किया जाता है।
देश में सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनाव प्रचार रफ्तार पकड़ रहा है। जहां केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों और पहले कार्यकाल की उपलब्धियों को केन्द्र में रखते हुए उनके दूसरे कार्यकाल के लिए जनता के बीच है। वहीं प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस मौजूदा संसद में अपनी कमजोर स्थिति के चलते प्रधानमंत्री पद की दावेदारी 23 मई को नतीजे देखने के बाद करने की रणनीति पर काम कर रही है।
इस बीच देश की राजनीति में अरविंद केजरीवाल और कन्हैया कुमार मार्का राजनीति दावा कर रही है कि आगामी चुनावों में जनता अपना-अपना सांसद चुने और यह सांसद नतीजों के बाद देश का प्रधानमंत्री चुनने का काम करें। जाहिर है कि संविधान में प्रावधान की यह बेहद सरल और संकीर्ण समझ है। ऐसा मत देश में 1970 के दशक तक नेहरू और इंदिरा के विरोधी और स्वघोषित समाजवादी रखते थे।
हालांकि हकीकत इस संकीर्णता से अलग है। राष्ट्रपति उस व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है जिसे लोकसभा का भरोसा प्राप्त है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि 23 मई को अंतिम नतीजों के बाद चुने गए सभी 543 सांसद किसी एक छत के नीचे एकत्र होकर प्रधानमंत्री चुनने का काम नहीं करते। चुनाव नतीजों के बाद नई लोकसभा का पहला सत्र तब बुलाया जाता है जब देश के नए प्रधानमंत्री का चुनाव हो जाता है और उसके नेतृत्व में सरकार गठित कर दी जाती है। लिहाजा, यह तर्क कि देश की जनता सिर्फ अपना-अपना सांसद चुनती है पूरी तरह से खोखला है।
भारत, राज्यों का एक संघ है न कि देश की 543 लोकसभा क्षेत्रों का संघ। ये लोकसभा क्षेत्र देश के उपयुक्त प्रशासनिक ढांचे भी नहीं हैं और इनका इस्तेमाल महज एक चुनावी इकाई के तौर पर किया जाता है। लिहाजा, कन्हैया कुमार और अरविंद केजरीवाल की दलील पर यह उम्मीद करना कि चुनाव के बाद नए चुने गए 543 सांसद किसी प्रक्रिया के तहत देश का नया प्रधानमंत्री चुनने का काम करेंगे पूरी तरह से हास्यास्पद है। क्योंकि न तो भारत एक पंचायत है और न ही देश की प्रधानमंत्री कोई एक सरपंच है। इन 543 लोकसभा क्षेत्रों को कई आधार पर विभाजित किया जा सकता है। चुने गए नए सांसदों को उनको चुनने वाले राज्य और राजनीतिक दल के आधार पर बांटा जा सकता है। लिहाजा देश के वोटर को महज क्षेत्रीय राजनीति तक सीमित रखने का क्या उद्देश्य है? क्या केरल राज्य का एक वोटर अथवा मणिपुर राज्य का वोटर विकास, राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक नीति जैसे मुद्दों पर अपना चुनाव नहीं करता? क्या इन वोटरों को यह आभास नहीं होता कि इन मुद्दों पर फैसला लेने के लिए उनके द्वारा चुने गए एक सांसद की भूमिका सीमित है?
लिहाजा, 17वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान यदि कन्हैया कुमार और अरविंद केजरीवाल इंग्लैंड की तर्ज पर तैयार देश के वेस्टमिंस्टर मॉडल को सिर्फ सांसद के चुनाव तक सीमित रखने की दलील दे रहे हैं तो यह वोटर नहीं उनकी अपनी समझ के लिए जरूरी है कि वह देश की राजनीति को पूरी तरह समझे और संविधान में अपनी आस्था को दर्शाते हुए संकीर्ण विचारधारा को अपने तक ही सीमित रखें।
यदि, प्रधानमंत्री चुनने का दायित्व महज चुने हुए सांसदों तक सीमित रखना होता तो इंग्लैंड में राजनीतिक दलों का ढांचा नहीं खड़ा किया जाता। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दल रीढ़ की हड्डी का काम करते हैं। जब देश का वोटर अपने क्षेत्र के सांसद का चुनाव करता है तो उसके साथ ही वह एक पार्टी चिन्ह का भी चुनाव करता है और अपनी इच्छा को जाहिर करता है कि वह किस पार्टी की सरकार बनते हुए देखना चाह रहा है।
खास बात है कि देश के मूल संविधान में राजनीतिक दलों का प्रावधान नहीं किया गया था। लेकिन 1985 में लाए गए दल-बदल कानून ने पहली बार संविधान के मुताबिक संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक दलों की भूमिका को मान्यता दी। फिर 1989 में रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल्स एक्ट, 1951 के सेक्शन 29 ए में संशोधन करते हुए राजनीतिक दलों के रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था तैयार की गई। लिहाजा, अब देश की राजनीति में राजनीतिक दलों की अहमियत है। देश का वोटर अपना सांसद चुनने के साथ-साथ राजनीतिक दल का चुनाव करते हुए यह भी तय करता है कि किसे पर देश की नई सरकार का मुखिया बनाने जा रहे हैं।
Last Updated Apr 1, 2019, 1:22 PM IST