सिंह ने सिख नरसंहार पर कहा कि नाजी जर्मनी में यहूदी जैसा महसूस हो रहा था


मशहूर लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह ने 1984 के सिख नरसंहार पर काफी लेख लिखें हैं। उन्होंने अपने नावेल ‘माई ब्लीडिंग पंजाब और दिल्ली’ में सिख दंगों की दास्तान बयां की है। खुशवंत सिंह को 1974 में पदम विभूषण से सम्मानित किया गया था और उन्होंने आपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में अपना पुरस्कार सरकार को वापस कर दिया था।

असल में 5 जून 1984 को भारतीय सेना स्वर्ण मंदिर में घुसी थी और सिंह ने इस सम्मानित अवार्ड को वापस कर दिया था। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ‘एक गहरा अवसाद मेरी आत्मा में प्रवेश कर रहा था और मैं बार बार पूछता हूं कि क्या मैं सिख हूं। मैं निश्चित तौर से भिंडरवाला ब्रांड नहीं हूं और ना ही गुरूद्वारा भाई ब्रांड। मुझे ये याद नहीं कि मैं कब पिछली बार गुरुद्वारा गया। मैंने पिछले पचास साल प्रार्थना नहीं की। 6 जून की सुबह मैं अपने घर के पीछे स्थित गुरुद्वारा गया। वहां पर बहुत भीड़ थी और कई लोगों के आंखों में आंसू थे और उनकी आंखों में आंसू देखकर मेरे आंखों में भी आंसू आ गए। वहां पर हमला करने वाली भीड़ बढ़ती जा रही है। भीड़ ये फैसला कहती है कि एक व्यक्ति को उसकी पवित्र पुस्तक को जला दिया जाए। भीड़ इंदिरा गांधी अमर रहे, के नारे लगाती है। 

भीड़ में करीब पचास से ज्यादा लड़के हथियारों और लौहे की राड के साथ हैं और कुछ के हाथों में पेट्रोल के डिब्बे भी हैं और वह गुरुद्वारा को घेर कर उसमें घुसती है। वह भाई को वहां से खिंचते हैं और उसे मारना पीटना शुरू करते हैं। वह चिल्लाते हैं बचाओ बचाओ। पुलिस। लेकिन वो लोग उल्टा उन पर चिल्लाते हैं और कहते हैं कि भिंडरवाला के बच्चे अब अपने बाप से कहो बचाओ। वह गुरुद्वारे के ग्रंथ, कारपेट और दरी में पेट्रोल डालकर आग के हवाले कर देते हैं। भाई के चेहरे खून से लथपथ है और चेहरे पर खुले बाल फैसले हैं। वह भीड़ से कहते हैं कि तुम्हें जो मेरे साथ करना है कर लो, लेकिन मेरी इस पवित्र पुस्तक का अपमान न करो, तुम्हें रब का वास्ता। अपनी पुस्तक में सिंह लिखते हैं कि हमें एक बात से सबक लेना चाहिए कि स्वर्ण मंदिर में सेना का घुसना एक बड़ा घातक और गलत रास्ता था।

इसके जरिए वहां की विस्फोटक स्थिति को नियंत्रित करना का ये तरीका गलत था। बंदूक के ताकत पर राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता है। इसको हीलिंग टच के जरिए ठीक करना चाहिए। इसे सत्ता में बैठे लोगों द्वारा तपस्या के द्वारा ही किया जा सकता है। 

दो सिख बाड़ीगार्ड के द्वारा इंदिरा गांधी की हत्या करने के बाद सिखों के खिलाफ दंगे हो गये थे और 2001 में नानावटी कमीशन में बयान दर्ज कराते हुए सिंह ने कहा कि पुलिस मूकदर्शक बनी हुई थी, जब दंगे हो रहे थे। सिंह के नावेल के मुताबिक 31 अक्टबूर 1984 को एंबेसडर होटल के पास अपने घर से बाहर निकला तो देखा तो भीड़ सिख से जुड़ी एक कार को जला रही थी, जो मेरे घर से महज कुछ की कदमों की दूर पर था। मैंने वहां पर 30 पुलिस वालों को देखा।

वहां पर एक इंस्पेक्टर और सब इंस्पेक्टर को हथियारों के साथ देखा, जो सड़क के किनारे खड़े थे। लेकिन पुलिस वालों ने टैक्सी को बचाने के लिए कुछ नहीं किया। ऐसा बयान सिंह ने नानावटी कमीशन में दर्ज कराया था। उनका कहना था कि मुझे अपने ही देश में भगोड़े की तरह रहने का अहसास हो रहा था। मैं ऐसा महसूस कर रहा था जैसे नाजी जर्मनी में एक यहूदी हो। मैं अपनी ही जन्मभूमि में शरणार्थी था। क्योंकि मैं एक सिख था। सिंह ने इस बात को खारिज कर दिया कि 1984 के दंगे हिंदू सिख दंगे थे। यह केवल एक तरफा दंगे थे और इसमें सिखों की तरफ से कोई क्रिया नहीं की गयी और सोच समझ कर किया गया।