नई दिल्ली- आज दो अक्टूबर को पूरा देश पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्मदिन मना रहा है। लेकिन यह तथ्य शायद कोई नहीं जानता है, कि शास्त्री जी संघ परिवार और बीजेपी के पितृपुरुष माने जाने वाले दीनदयाल उपाध्याय को कितना पसंद करते थे। इतिहास के पन्नों में छिपा यह वाकया सचमुच दक्षिणपंथी विचारकों से शास्त्री जी के उलझे हुए संबंधों का दिलचस्प अध्याय है। 

 हाल ही में बीजेपी और उसके विचारकों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को उनकी वास्तविक जगह देने की कोशिश की है, जो कि अभी तक नेहरु-गांधी परिवार के लोगों के लिए ही सुरक्षित थी। 

बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरएसएस के मुखपत्र 'ऑर्गेनाइजर' के 70 वें सालगिरह संस्करण में प्रकाशित एक आलेख में लिखा था, कि जवाहरलाल नेहरू के ठीक विपरीत, शास्त्रीजी आरएसएस के साथ वैचारिक शत्रुता का निर्वहन नहीं करते थे। आडवाणी ने जानकारी दी, कि शास्त्री अक्सर तत्कालीन संघ प्रमुख एमएस गोलवलकर को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर चर्चा के लिए आमंत्रित करते थे।

 आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने भी पिछले साल शास्त्री की सराहना की थी और उन्हें 'लोकनायक'  करार दिया था। उन्होंने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नाम लिए बिना उनका उल्लेख करते हुए कहा था, कि  शास्त्री जी के बाद भी कहा कि देश को यह दूसरा ईमानदार नेता मिला है। 

भाजपा के सबसे जाने माने विचारक और भारतीय जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय, जो कि कि वर्तमान में भी बीजेपी के पथ प्रदर्शक हैं, उन्होंने भी शास्त्री जी की इस बात के लिए तारीफ की थी, कि उन्होंने नेहरु की शांतिवादी रक्षा नीति से किनारा कर लिया था। उपाध्याय गुजरात में कच्छ के रन में हुए युद्ध में निर्णायक सैन्य कार्रवाई की वजह से शास्त्री जी को अपना नायक मानते थे। प्रसिद्ध लेखक महेश चंद्र शर्मा ने अपनी पुस्तक 'द पॉलिटिक्स ऑफ अनडिवाइडेड नेशनलिज्म' में इस बात का उल्लेख किया है। 
24 अप्रैल 1965 को जब पाकिस्तान ने हमला किया था, तो भारत ने उसका करारा जवाब दिया। उस समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री हेराल्ड विल्सन की मध्यस्थता पर एक युद्धविरास समझौते पर हस्ताक्षर किया गया। 

 शर्मा के मुताबिक इस जीत की वजह से उपाध्याय, शास्त्री जी से बहुत प्रभावित हुए थे।  ‘स्वाभाविक रूप से, उपाध्याय ने भारतीय क्षेत्र को खाली करने से पहले, किसी तरह के संघर्षविराम की पेशकश स्वीकार नहीं करने के लिए शास्त्री की सराहना की और इसे भारत के सुरक्षा इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना करार दिया’। 
 उपाध्याय ने 1965 में ही कश्मीर में पाकिस्तान दोबारा हुए हमले के दौरान शास्त्री जी की फिर से तारीफ की थी। उपाध्याय आक्रामकों के विरुद्ध कठोर सैन्य कार्रवाई के समर्थक थे। 
 
उपाध्याय ने कहा, कि "भारत के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में पाकिस्तान के साथ हुआ 22 दिवसीय युद्ध एक गौरवपूर्ण क्षण है। जब भारत ने आक्रामकों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने का साहसिक फैसला किया"। नेहरू के साथ मतभिन्नता प्रकट करते हुए उपाध्याय ने कहा, "हम सपनों की भूमि से नीचे उतरे और जमीनी  वास्तविकताओं का सामना करना सीखा।"

उपाध्याय ने शास्त्री के अंदर सैन्य क्षमताएं देखी, जो कि जनसंघ के मूल विचारों से मेल खाता था। उपाध्याय ने कहा था, कि ‘जनसंघ जिस सैन्य रणनीति की मांग करता रहा है, वह दरअसल आज से शुरु हुई’। 

‘शास्त्री ने युद्ध शुरु होने से पांच दिन पहले, 6 सितंबर को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। जिसमें उन्होंने उपाध्याय के साथ आरएसएस प्रमुख एम.एस. गोलवलकर को भी आमंत्रित किया था’। बीजेपी के मुखपत्र कमल संदेश के कार्यकारी संपादक शिवशक्ति नाथ बख्शी ने यह जानकारी दी, जिन्होंने दीनदयाल उपाध्याय पर एक किताब लिखी है। 

हालांकि कच्छ और ताशकंद समझौता दोनों ही 1965 में हुई भारत-पाक जंग से जुड़े हुए थे, उसमें उपाध्याय शास्त्री जी से नाराज हुए थे। 
उपाध्याय ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री विल्सन के आग्रह पर कच्छ के रन का मामला अंतरराष्ट्रीय पैनल को सौंपने के शास्त्री जी के फैसले की कटु आलोचना की थी। उन्होंने इसे ‘आत्मघाती मिशन’ और एक तरह से ‘बाहरी ताकतों की संदेहास्पद साजिश का परिणाम’ करार दिया। 
उपाध्याय ने इस द्विपक्षीय समझौते के विरुद्ध एक बड़ा राजनीतिक प्रदर्शन आयोजित किया। बीबीसी के मुताबिक इस में भाग लेने वालों की संख्या पांच लाख तक पहुंच गई थी। दबाव इतना ज्यादा बढ़ गया था, कि शास्त्री जी को 20 अगस्त 1965 में होने वाले दोनो देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक स्थगित करनी पड़ी। 
जनसंघ ने शास्त्री सरकार के खिलाफ एक पार्टी प्रस्ताव भी पारित किया था। जिसमें कहा गया था, कि ‘यदि कच्छ समझौते के खिलाफ जनता इसी तरह विद्रोही तेवर अपनाए रखती है, तो इस समझौते का महत्व रद्दी कागज के एक टुकड़े से ज्यादा नहीं रहेगा’ । 
 
एक बार फिर से ताशकंद समझौते के समय उपाध्याय और आरएसएस ने शास्त्री जी की तीखी आलोचना की थी। गोलवलकर ने संघर्षविराम प्रस्ताव का हर मोर्चे पर विरोध किया। उन्होंने शास्त्री जी से ताशकंद नहीं जाने का भी आग्रह किया। 
शास्त्री जी पर हो रहा यह हमला बहुत जबरदस्त था और विपक्ष झुकने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। शर्मा लिखते हैं कि ‘अगर शास्त्री जी जीवित होते, तो जनसंघ उनका स्वागत काले झंडों से करता’। 

ताशकंद समझौते पर दीनदयाल उपाध्याय ने एक किताब लिखी, जिसका शीर्षक था ‘विश्वासघात’, जो कि स्वयं ही यह बताने के लिए पर्याप्त है, कि बीजेपी के विचारक शास्त्री जी द्वारा किए गए समझौते के बारे में क्या सोचते थे। 

उपाध्याय जी ने जिन्होंने भारत-पाक युद्ध के समय शास्त्री जी को राष्ट्रनायक की उपाधि दी थी, उन्होंने शास्त्री जी के मशहूर नारे ‘जय जवान-जय किसान’ पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की थी ।  
 
 उन्होंने कहा ‘हम लोग ताशकंद में जय जवान को भूल गए और जल्दी ही हम इस नारे के दूसरे हिस्से जय किसान को भी भूल जाएंगे, जब अमेरिका से गेहूं आयात होने लगेगा। हमें यह स्वीकार नहीं है। क्योंकि विदेशी मदद बिना शर्त नहीं मिलती’