पटना:  गुरुवार को लालू यादव के बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव ने एक ट्वीट किया, ''नादान हैं वो लोग जो मुझे नादान समझते हैं, कौन कितना पानी में है सबकी ख़बर है मुझे.'' इस ट्वीट के साथ आया तेज प्रताप काछात्र राष्ट्रीय जनता दल के संरक्षक के पद से इस्तीफ़ा. 

खुद को कृष्ण और अपने छोटे भाई तेजस्वी यादव को अर्जुन बताने वाले तेज प्रताप ने अपनी नाराजगी को महाभारत के एक प्रसंग से भी जोड़ा. तेज ने मीडिया से बातचीत में कहा, श्रीकृष्ण कौरवों से पांच गांव मांगने गए थे और उन्हें खाली हाथ लौटाया गया तो महाभारत हुआ. मैंने तो सिर्फ दो सीटें ही मांगी थीं फिर भी खाली हाथ आया हूं. यानी राजद में किरदार बदल गए हैं. 

तेज प्रताप तो अब भी स्वयं को कृष्ण ही मान रहे हैं लेकिन अपने ‘अर्जुन’ में उन्हें अब ‘दुर्योधन’ दिखता है. और अगर यह सच है तो ऐसा माना जाए कि राष्ट्रीय जनता दल में आपसी तनातनी अब युद्ध के कगार पर पहुंच चुकी है. तेज प्रताप का राजद के पदों से इस्तीफा देना और लालू-राबड़ी मोर्चे के गठन से आसार तो कुछ ऐसे ही दिखते हैं.


1.    ‘अर्जुन’ क्यों हो गया ‘दुर्योधन’?   
 
बिहार की राजनीति में अपनी छवि जोकर जैसी बना लेने वाले तेज प्रताप अपने अर्जुन को अपने ही अधिकारों पर डाका डालने वाला दुर्योधन क्यों समझने लगे हैं? इसे समझने से पहले तेज प्रताप के एक ताजा बयान पर नजर डालते हैं, ''मैं तेजस्वी यादव और लालू प्रसाद यादव सहित पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से गुज़ारिश करता हूं कि वे युवा उम्मीदवारों को टिकट देकर मौका दें. युवा ही पार्टी को आगे ले जाएंगे. हाँ,मैं चाहता हूं कि मेरे दो लोगों को टिकट दिया जाए और इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. मैं तेज प्रताप, मीसा या तेजस्वी के लिए टिकट नहीं मांग रहा हूं. मैं हमारी पार्टी में के नौजवानों के लिए बेहतर मौक़े मांग रहा हूं.''

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तेज प्रताप ने फिर से बागी तेवर अपना लिया है इस बार वह ज्यादा ही सख्त नजर आते हैं. उन्होंने लालू-राबड़ी मोर्चा के बैनर तले जहानाबाद और शिवहर से अपने उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा भी कर दी है. शिवहर से अंगेश कुमार और जहानाबाद से चंद्र प्रकाश उनके मोर्चे के उम्मीदवार हैं. उन्होंने धमकी दी है कि अगर पार्टी ने उनकी बात नहीं मानी तो वह लोकसभा चुनाव में राजद की सभी 20 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार भी उतार सकते हैं और वह खुद सारण सीट से चुनाव लड़ सकते हैं. 

कहा जा रहा है कि जहानाबाद और शिवहर तो बहाना है, सारण तेज प्रताप का असली निशाना है. उनके पिता का गढ़ रही सारण सीट ही तेज प्रताप को बागी बनने में आग में घी का काम कर रही है, आखिर ऐसा क्यों? और क्या सचमुच सारण ही इस विवाद की धुरी है या वह सिर्फ राजद के इस महाभारत का ‘तात्कालिक कारण’? इसे ठीक से समझने के लिए हमें 2013 से लेकर अब तक के वक्त में एक बार फिर से झांकना होगा. 

 
2.    छोटे बेटे तेजस्वी को लालू ने बनाया उत्तराधिकारी
लालू यादव ने 2013 में पटना में एक बड़ी रैली की जिसका नाम दिया- परिवर्तन रैली. कांग्रेस में भाई-भतीजावाद की सत्ता में परिवर्तन के आह्वान के साथ राजनीति में कूदे लालू ने इस रैली में एक बार फिर से अपने पुरानी राजनीतिक विचारधारा में ‘परिवर्तन’ दिखाया और इसे अपने दोनों बेटों को लॉन्च करने का मंच बना दिया. 

हालांकि लालू ऐसा परिवर्तन पहली बार नहीं कर रहे थे. इससे पहले वह पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती को भी राजनीति में ला चुके थे. इसके बाद 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू ने अपने दोनों बेटों तेज प्रताप और तेजस्वी को चुनावी मैदान में उतारा और दोनों जीते भी.

चूंकि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके ही चुनाव लड़ा गया था इसलिए जाहिर है मुख्यमंत्री पद के लिए कोई वेकेंसी नहीं थी. जब गठबंधन में हिस्सेदारी की बात आई तो लालू ने छोटे बेटे तेजस्वी को ज्यादा काबिल समझा और उन्हें बिहार का उपमुख्यमंत्री बनाया.

 कहा जाता है कि छोटे भाई को तरजीह मिलने से तेज प्रताप बहुत दुखी हो गए थे और उन्होंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया था. बहन मीसा और मां ने  हस्तक्षेप किया और नौंवी तक पढ़ाई करने वाले तेज प्रताप को राज्य में स्वास्थ्य और शिक्षा मंत्रालय की अहम जिम्मेदारी दी गई. 

बेशक तेज प्रताप भी अहम विभागों के मंत्री बने थे लेकिन मन में कहीं न कहीं यह कसक रह गई थी कि बड़ा बेटा होने के बावजूद पिता ने छोटे भाई को तरजीह दी. लालू जिस प्रकार परिवारवाद को बढ़ा रहे थे, उससे राजवंश व्यवस्था की झलक मिलती ही थी, और राजवंशों में अक्सर सिंहासन बड़े बेटे को ही मिलता है. मां राबड़ी देवी हमेशा यह सुनिश्चित करने की कोशिश करती रहीं कि तेज प्रताप कभी खुद को उपेक्षित महसूस न करें लेकिन ऐसा हो न सका. उनके मन में उपेक्षा का भाव घर करने लगा था जो बिहार में गठबंधन की सरकार गिरने के बाद तेजी से पनपा. 

यह वह दौर था जब लालू सेहत और कानूनी दोनों ही मोर्चों पर खुद को अशक्त महसूस कर रहे थे. उन्हें पार्टी को बचाए रखने की चिंता सता रही थी. उनके सामने उत्तराधिकारी के रूप में दो विकल्प थे- बेटी मीसा भारती और बेटे तेजस्वी. 

तेज प्रताप तो कभी उनकी योग्यताओं की लिस्ट में थे ही नहीं और यह बात तेज प्रताप को या तो समझ में आ गई या फिर समझा दी गई. लालू के जेल जाने के बाद तेजस्वी पार्टी के सारे फैसले लेने लगे. विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में अपने जोरदार भाषण के बाद तेजस्वी राज्य के नए यूथ आइकॉन बन गए और तेज प्रताप की कुंठा और बढ़ गई। 

तेजप्रताप की नाराजगी पहली बार जून 2018 में सामने आई थी जब उन्होंने कहा था कि तेजस्वी सरकार चलाएंगे और मैं पार्टी लेकिन स्थिति को परिवार और पार्टी ने संभाल लिया था. हालांकि तेजप्रताप और तेजस्वी की तरफ से हमेशा यही दिखाया जाता रहा है कि सबकुछ शांत और अच्छा है. परिवार के बीच कोई कलह नहीं है. लेकिन आग बुझी नहीं थी. चिंगारी अंदर ही अंदर लगातार धधकती रही. वक्त के साथ-साथ इसमें गर्मी बढ़ी तो वह फूट पड़ी और यह वक्त आया तेज प्रताप की शादी के कुछ महीनों बाद.


3.    जहानाबाद-शिवहर बहाना, सारण असली निशाना है

तेज प्रताप की शादी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और यादवों के बड़े नेता रहे दारोगा प्रसाद राय की पोती और राजद विधायक चंद्रिका राय की बेटी ऐश्वर्या राय से हुई. दिल्ली में लंबे समय तक रहीं और मैनेजमेंट की डिग्री वाली ऐश्वर्या की शादी नौंवी पास तेज प्रताप से हुई. दबी जबान कहा जा रहा था कि यह बेमेल जोड़ी है और जल्द ही यह बात जगजाहिर भी हो गई जब शादी के कुछ ही महीनों बाद तेज प्रताप ने पटना की एक फैमिली कोर्ट में ऐश्वर्या से तलाक की अर्जी डाल दी. लालू परिवार में तो भूचाल ही आ गया. 

मान-मनौव्वलों का दौर चला पर तेजप्रताप टस से मस नहीं हुए. राबड़ी ने जब ऐश्वर्या को अपने साथ रख लिया तो तेजप्रताप पूरी तरह निराश हो गए. उन्हें उम्मीद थी कि कम से कम मां उनका साथ देंगी. पर राबड़ी देवी अब पहले की तरह कोई साधारण घरेलू महिला नहीं हैं जिनके सारे फैसले भावनाओं के आधार पर हों. उन्हें राजनीति के अंकगणित का भी ख्याल करना पड़ता है. इसलिए उन्हें बेटे की जगह बहू के साथ खड़ा होना पड़ा.  

बहरहाल, चीजें अपनी तरह से चल रही थीं कि इसी बीच सारण सीट से राजद ने अपने प्रत्याशी के नाम की घोषणा कर दी. प्रत्याशी थे तेज प्रताप के ससुर चंद्रिका राय.

चंद्रिका राय को टिकट मिलना भी तेजप्रताप के लिए एक बड़ा झटका था. यह साफ हो चुका था कि पार्टी और परिवार दोनों में कहीं भी, तेजप्रताप के पास अब मोल-भाव की अब कोई ताकत नहीं बची. उनके रुठने-मानने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. तेजप्रताप के लिए अब यह अस्तित्व का प्रश्न बन गया था. इसलिए उन्होंने अंतिम दांव खेला है. राजनीति में बाहें मोड़कर अपनी बात मनवाने का सबसे सही मौका तब होता है जब चुनाव सर पर हों. इतनी राजनीति तो तेजप्रताप समझते ही हैं.


4.    बहू के लिए बेटे को क्यों नाराज कर रहा है लालू परिवार

दरअसल, लालू-राबड़ी दोनों ही इस मुद्दे पर ऐसे फंसे हैं कि न उगलते बनता है न निगलते. अगर वे चंद्रिका का टिकट काट देते हैं तो मैसेज जाएगा कि यादव परिवार की एक लड़की के साथ बिहार के सबसे बड़े यादव परिवार में अपमान हो रहा है. दारोगा राय के परिवार ने जितना बर्दाश्त करना था उतना किया पर लालू परिवार अपनी जिद पर अड़ा है. राजनीति में ऐसे मौके नाखून कटाकर शहीद होने वाले माने जाते हैं. 

अगर चंद्रिका राय को टिकट न दिया जाता या देकर काट लिया जाए तो उन्हें दो मौके एक साथ मिल जाएंगे. एक तो उनकी बेटी को तेज प्रताप से अलग होने का ठोस कारण मिल जाएगा और दूसरा चंद्रिका राय को यादवों के साथ-साथ समाज के हर वर्ग की सहानुभूति मिल जाएगी. लालू के जेल जाने के बाद उनके दोनों बेटे जिस प्रकार लड़ रहे हैं उससे यादवों के बीच एक तीसरे नेतृत्व के उभार की गुंजाइश तो पूरी दिखती है. ऐश्वर्या के साथ मिलकर चंद्रिका राय इसे भरपूर भुना सकते हैं. एनडीए भी लालू के पिछले चुनाव में उभार से परेशान है इसलिए अंदरखाने वह चंद्रिका राय की मदद करने से पीछे नहीं हटेगा.

तेजप्रताप को जो बात खटकती है वह है चंद्रिका राय को अचानक लालू यादव के परिवार में बढ़ी हैसियत. तेजप्रताप ने दारोगा राय का जमाना तो देखा नहीं हैं. उन्होंने तो चंद्रिका राय को जब भी देखा है, लालू के आगे-पीछे घूमने वाले ‘चेले’ की तरह ही देखा है. शादी से पहले चंद्रिका राय को उनके घर में कितनी तवज्जो मिलती थी, तेज ने यह भी देखा है. इसलिए वह अब तक चंद्रिका को उसी हैसियत में समझते हैं. 

तेजप्रताप शादी के बाद बदले रिश्ते को स्वीकार नहीं कर सके और शायद यह भी ऐश्वर्या के साथ अनबन की शुरुआत का कारण बनी हो. ऐश्वर्या भी जब परिवार में आईं तो उन्होंने भांप लिया कि तेजप्रताप लालू के बड़े बेटे हैं जरूर पर हैसियत में वह बहुत छोटे हैं, शायद लालू के कई खासमखास लोगों से भी छोटे. यानी ऐश्वर्या को लगा होगा कि जिस राजनीतिक विरासत की आस में उन्होंने अपने से काफी कम पढ़े लिखे व्यक्ति से शादी की, वह तो उन्हें कभी मिलनी ही नहीं है. चंद्रिका राय जब तक बाहरी थे तब तक उन्हें इस स्थिति का उतना अंदाजा न रहा हो लेकिन अब तो बात हाथ से निकल चुकी थी. जाहिर है, ऐश्वर्या ने तेजप्रताप पर परिवार में अपनी हैसियत बढ़ाने का दबाव डालना शुरू किया.

 तलाक की अर्जी देने के बाद तेजप्रताप ने कुछ इसी तरह की बात कही भी थी कि ऐश्वर्या अपने पिता के लिए सारण से टिकट दिलाने का दबाव बना रही थीं और भाई-भाई में फूट डालने की कोशिश कर रही थी. अब जबकि चंद्रिका राय को टिकट मिल गया है तो तेज प्रताप इसे ऐश्वर्या द्वारा मुंह चिढ़ाया जाना समझ रहे होंगे इसलिए बहुत बिफरे हैं.

 
5.    क्या तेजप्रताप पार्टी और परिवार दोनों से निकाले जाएंगे?

बेशक लालू परिवार में तनाव है और पार्टी लोकसभा चुनाव की अग्निपरीक्षा से गुजर रही है. पार्टी में तेजप्रताप को निलंबित करने की मांग खुलकर उठने लगी है. पर तेजप्रताप के निलंबन या निष्कासन का मुद्दा अपने साथ बहुत से किंतु-परंतु लेकर आता है. इसलिए इसका सही-सही उत्तर तो भविष्य के गर्भ में छिपा है लेकिन मौजूदा कलह लालू परिवार में करीब दो दशक पहले भी देखने को मिला था. 

राबड़ी देवी के दो भाई प्रभुनाथ सिंह उर्फ साधु यादव और सुभाष यादव की तूती बोलती थी. दोनों की दबंगई के किस्से बिहार में आम हुआ करते थे. पार्टी के मामलों में भी लालू के दोनों सालों की बहुत दखल रहता था. रघुनाथ झा, जगदानंद सिंह, प्रभुनाथ सिंह, शिवानंद तिवारी, रघुवंश सिंह, शकील अहमद खान जैसे नेता दोनों के कारण बहुत असहज महसूस करते थे. जब तक सत्ता थी तब तक लालू के रिश्तेदारों पर कोई खुलकर विरोध नहीं कर पाया लेकिन 2005 में लालू सत्ता से बाहर हुए तो स्थितियां बदलने लगीं. बात बिगड़ते-बिगड़ते यहां तक पहुंची कि लालू ने एक-एक करके अपने दोनों सालों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. तब भी राबड़ी ने बीच-बचाव की कोशिश की थी और मीसा ने भी थोड़ा हस्तक्षेप करके मामला सुलटाना चाहा था पर लालू अड़ गए. तब साधु भी उसी जोश और आक्रोश में बयान दिया करते थे जैसे आज तेजप्रताप दे रहे हैं. 

साधु ने पार्टी से निकाले जाने के कुछ ही दिनों बाद कांग्रेस का दामन थाम लिया और कांग्रेस के टिकट पर चुनाव बी लड़े पर जीत न सके. उसके बाद वह लोजपा में गए, फिर खुद की पार्टी बनाई और अब राजनीतिक परिदृश्यों से गायब हो गए हैं. दोनों के बीच तब से रिश्ते इतने तल्ख हैं कि अब पारिवारिक शादी-ब्याह में भी आना-जाना बंद हो चुका है. साधु की बेटी की शादी में लालू गए नहीं थे और तेज प्रताप की शादी में साधु को बुलाया भी नहीं था.

 हालांकि, मीसा भारती अपने चहेते मामा के साथ परिवार के संबंधों को सुधारने के लिए भाई की शादी का कार्ड लेकर मामा के घर गई थीं. मामा ने भांजे को शादी की बधाई सुखी वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद भी दिया था पर शादी में यह कहते हुए नहीं गए कि निमंत्रण बहन-बहनोई की ओर से नहीं बल्कि भांजी की ओर से आया था जो ब्याही जा चुकी है.

यहां साधु का जिक्र इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि लंबे समय बाद उन्होंने एक बयान दिया है. जाहिर है परिवार के बीच सिरफुटौव्वल में उन्हें अपना पुराना हिसाब चुकता करने का एक मौका नजर आता है. साधु ने खुलकर तेजप्रताप का पक्ष लेते हुए लालू पर आरोप लगाया कि लालू खुद परिवार के बीच झगड़े लगाते हैं. बेटे-बेटियों के बीच मतभेद करा देने की उनकी पुरानी आदत है. 

साधु परिवार के आदमी हैं इसलिए उनकी बातों पर अविश्वास भी नहीं किया जा सकता लेकिन लालू से अदावत चल रही है सो उनकी हर बात पर भरोसा भी नहीं किया जा सकता. बहरहाल तेजप्रताप के लिए कही उनकी एक बात ऐसी है जिसे नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता. साधु ने कहा है कि यदि तेजप्रताप ने मदद मांगी तो वह अपने भांजे की हर प्रकार से मदद करेंगे.   
 
6.    'पारिवारिक संघर्ष का तीसरा कोण'

लालू परिवार में महीनों से जारी सियासी विरासत के इस संघर्ष का एक तीसरा कोण भी है. और वह तीसरा कोण हैं राज्यसभा सांसद और लालू की सबसे बड़ी बेटी मीसा भारती. 

दरअसल बिहार की राजनीति में राज्यसभा की सदस्यता को सक्रिय राजनीति से रिटायरमेंट का टिकट समझा जाता है. मीसा को लगता है कि पिता की विरासत संभालने की सारी काबिलियत उनमें हैं इसलिए वह राजनीतिक प्रवास पर नहीं जाना चाहतीं और दोनों भाइयों के बीच विवाद को यहां से भी हवा मिलती है.

मीसा भारती से ज्यादा राजनीति का अनुभव, किसी भाई-बहन का नहीं है. वह लालू के पंद्रह साल के कार्यकाल की साक्षी रही हैं. जब तक दोनों भाइयों का उदय राजनीति में नहीं हुआ था तब तक उस घर में सत्ता का एक केंद्र मीसा भारती ही थीं. मीसा को संसद पहुंचाने के लिए लालू ने अपने सबसे भरोसेमंद और लोकप्रिय नेता रामकृपाल यादव को किनारे लगा दिया. रामकृपाल ने 2014 में मीसा को हराया भी.

चुनाव हारने के बाद मीसा को बिहार विधानमंडल में कोई जगह नहीं दी गयी. अंदर ही अंदर असंतोष बढ़ रहा था जिसे दबाने के लिए मीसा को जुलाई, 2016 में राज्यसभा भेजा गया. राज्यसभा सांसद मीसा की नजर फिर से पाटलिपुत्र सीट पर थी लेकिन मनेर के विधायक और तेजस्वी के करीबी भाई वीरेंद्र को उस सीट से तैयारी के संकेत दे दिए गए. 

यह बात मीसा को बहुत नागवार गुजरी. मीसा को यह बात इसलिए भी ज्यादा खली कि वह लगातार ईडी की जांच का सामना कर रही थीं और परिवार में भी उन्हें दरकिनार करने की कोशिश हो रही थी.

तेजप्रताप भावुक हैं और बहन मीसा को लेकर ज्यादा ही भावुक. मीसा के समर्थन में तेजप्रताप ने एक अभियान तक शुरू कर दिया था. भाई वीरेंद्र पर तीखे हमले करते रहे और अंततः मीसा को ही टिकट मिला. तीसरे कोण की भूमिका पूरी हुई. तेजप्रताप ने इसे अपनी एक छोटी जीत के तौर पर देखा और वह पार्टी में अपनी हैसियत बढ़ाने के लिए ये सारे उपक्रम कर रहे हैं. परिवार में तीनों की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं. 

इन महत्वाकांक्षाओं के टकराव को परिवार के नए रिश्तेदारों और करीबियों द्वारा जब-जब हवा दी जाती है, झगड़ा सतह पर आ जाता है. अगर जल्द ही इस लड़ाई में अब तक चुप्पी साधे साधु, सुभाष, चंद्रिका राय, ऐश्वर्या और कई अन्य जोर-शोर से कूद पड़ें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. राजनीति में कौन, किसका और कब इस्तेमाल करके कहां पहुंच जाए कहा नहीं जा सकता. माकूल वक्त की तलाश सबसे बड़ा फैक्टर है और यह फैक्टर तब बहुत कारगर हो जाता है जब चुनाव सिर पर हों.    

राजनीति में भाई-भतीजावाद के खिलाफ समाजवादी आंदोलन का आवरण लेकर उतरे लालू और मुलायम दोनों ही बड़े राजनीतिक परिवारों की भद्द पिट गई. मुलायम परिवार में भी ऐसी ही जंग जारी है. शिवपाल अपने ही खून-पसीने से सींची पार्टी को मटियामेट करने के लिए लंगोट कसकर निकल पड़े हैं. समाजवाद में परिवारवाद का मजा तलाशते दोनों ही दल ये कहां आ गए हैं.

राजन प्रकाश
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं। बिहार की जातीय राजनीति पर उनकी जानकारी अप्रतिम है)