मनोहर पर्रिकर की पहचान क्या थी? सम्पूर्ण सादगी, सुलभता, ईमानदारी, अपने उपर न्यूनतम सरकारी व्यय, अत्यंत कठिनाइयों में भी मुस्कुराहट भरी भाव भंगिमा, अपने कार्य को लेकर साफ दृष्टिकोण तथा उसे पूरा करने के लिए जी-जान से जुटे रहना। एक साथ इतने सारे गुण किसी एक नेता में तलाशना असंभव है। इसलिए पर्रिकर का असमय जाना हर किसी को कचोट रहा है। 

धुर राजनीतिक और वैचारिक विरोधियों के अंदर से भी आह निकल रही है। जिस ढंग से पिछले एक वर्ष से उन्होंने कैंसर से लड़ते हुए भी सार्वजनिक जीवन से अपने को अलग नहीं किया, लगातार एक मुख्यमंत्री तथा पार्टी नेता के रुप में सारी भूमिकाओं को अंजाम देते रहे वह उनके आत्मबल और जिजीविषा का प्रमाण था। 

वास्तव में ऐसा आत्मबल विरलों में ही मिलता है। पिछले कुछ समय में किसी योजना का शिलान्यास करते या सार्वजनिक कार्यक्रम में जहां भी वे आए चिकित्सीय उपकरणों से लैस ही थे। नासोगेस्ट्रिक ट्यूब उनके चेहरे पर लगी रहती थी। यह देखकर दूसरे लोगों को उनके प्रति दया और सहानुभूति का भाव अवश्य उमड़ता था लेकिन उनके चेहर पर मुस्कराहट और आत्मविश्वास ही झलकता था। जब उन्होंने एक कार्यक्रम में हाउ इज द जोश के नारे लगाए तो उनकी आवाज में बिल्कुल ताकत नहीं थी। लेकिन वे नारा लगाते हुए लोगों को उत्साहित करते रहे तथा अंत में कहा कि मैं अपना जोश आपको स्थानांतरित करता हूं। 

एक व्यक्ति, जिसे पता है कि उसका अंत निकट है, वह बिना भय के अंतिम समय तक अपनी जिम्मेवारियों को निर्वहन करने की पूरी कोशिश करता रहे इससे बड़ा प्रमाण उसके संकल्प और जीवटता का क्या हो सकता है। गोवा विधानसभा में बजट पेश करते हुए पर्रिकर ने कहा था कि परिस्थितियां ऐसी हैं कि विस्तृत बजट पेश नहीं कर सकता लेकिन अंतिम सांस तक ईमानदारी, निष्ठा और समर्पण के साथ गोवा की सेवा करूंगा। जोश है और बहुत ऊंचा है और मैं पूरी तरह से होश में हूं। 


उनका जोश और होश अंतिम समय भी कायम रहा। एक साधारण परिवार से निकलकर मुंबई से आईआईटी करते हुए भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक का काम करना तथा वहां से भाजपा की राजनीति में आकर गोवा में पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में उनका योगदान सबसे ज्यादा था। वे अभी तक भाजपा में अकेले नेता दिखते थे, जो हिन्दुत्व में गहरी आस्था रखते और उसका सार्वजनिक पालन करते हुए भी वहां ईसाइयों एवं मुसलमानों के भी प्रिय थे। 

गोवा के कैथोलिक ईसाई उनके पक्ष में मतदान करते थे तथा उनकी कभी कोई शिकायत नहीं की। सर्वधर्म सम्मान का उनका आचरण उन सबके लिए सीख है जो अन्य धर्मों के लिए अनावश्यक घृणा या विरोध पालते या आचरण करते हैं। हिन्दू धर्म का कोई महत्वपूर्ण पर्व नहीं हो जिसको पर्रिकर नहीं मनाते थे। मंदिरों में भी उनको आम आदमी की पंक्ति में लग कर दर्शन पूजा करते देखा जाता था किंतु उनकी अपनी धार्मिक आस्था किसी दूसरे की आस्था में बाधा नहीं बनी, बल्कि सहयोगी बनी। किसी भी राजनीतिक व्यक्तित्व का यही चरित्र होना चाहिए। 


किसी पत्रकार से पूछते तो यही जवाब मिलता कि आधी बांह का शर्ट, पैंट, साधारण चश्मा, साधारण घड़ी और पैरों में अत्यंत ही साधारण चप्पल पर्रिकर का ट्रेडमार्क है। वाकई निजी पहनावे में यही उनका ट्रेडमार्क था। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनको गोवा से बाहर लाकर रक्षा मंत्री बनाया तो भी उनके रहन-सहन पर कोई अंतर नहीं आया। आपको उनके घर पर साधारण कप में चाय और उसी तरह के साधारण प्लेट में नाश्ता मिलता था। कई बार उनके सहयोगी इस पर दुखी होकर टिप्पणी करते थे। 

रक्षा मंत्री रहते हुए भी पर्रिकर से मिलना अत्यंत आसान था। वे सबसे मिलते थे और जब तक आप उनके पास है ऐसा लगता ही नहीं कि रक्षा मंत्री के पास अन्य भी काम होंगे। स्कूटर से गोवा के अपने कार्यालय में आते या शहर के चक्कर लगाते तो लोग उनको देखते ही थे, दिल्ली में बतौर रक्षामंत्री हमने उनको पैदल चलते देखा है। किसी मंत्री के यहां आयोजन है और दूरी ज्यादा नहीं है तो अपने दो तीन स्टाफ के साथ पैदल ही चले जाना। 

अपने सारे स्टाफ को वे कहते थे कि सरकारी पैसा जनता के कर का है हमको यह ध्यान रखना है कि उसमें से कितना कम खर्च करके हम काम चला लेते हैं। इसीलिए वे इकोनोमी क्लास में यात्रा करते थे तथा सरकारी आवास में ही कहीं ठहरने को प्राथमिकता देते थे।
 
उनकी सादगी दिखावटी नहीं थी। यह महापुरुषों और धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन तथा निजी साधना के बाद एक मनुष्य के रुप में रुपांतरित हो चुके पर्रिकर का एकदम स्वाभाविक चरित्र था जो शरीर को नश्वर मानकर अपनी सारी भूमिकाओं को पूरी प्रतिबद्धता के साथ अंजाम देता है।

 इसका अहसास तब होता तो जब आप उनसे इन विषयों पर गहराई से बात करते। उस व्यक्ति का निजी जीवन कितन शापित था इसका पता इसी से चलता है कि 18 वर्ष पहले उनकी पत्नी की मृत्यु भी कैंसर से हो गई। उसके बाद अपने दोनों बेटों के लालन-पालन की जिम्मेवारी भी उन्होंने बखूबी निभाई।  

आईआईटी बॉम्बे से मेटलर्जिकल इंजिनियरिंग में ग्रेजुएशन करने वाले पर्रिकर को भारतीय इतिहास, अध्यात्म एवं दर्शन का भी काफी ज्ञान था। इन सबके होते हुए चाहे मुख्यमंत्री के रुप में हो या रक्षामंत्री के रुप में उन्होंने विकास, सुधार की अपनी पूरी छाप छोड़ी है।

 किसी आईआईटी से ग्रैजुएशन की डिग्री हासिल करने के बाद देश के किसी राज्य के मुख्यमंत्री बनने वाले वे पहले व्यक्ति थे। पणजी  सीट से चार बार जीत हासिल करने का रिकॉर्ड उन्होंने बनाया। गोवा में कोई नेता ऐसा नहीं कर पाया।  

सन् 2000 में पहली बार गोवा के मुख्यमंत्री बनने के बाद से उनका विजन सामने आने लगा था। हालांकि यह सरकार 2002 तक ही चली। किंतु चुनाव में फिर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरी और वे मिलीजुली सरकार के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने गोवा का भी अपने दृष्टिकोण से रुपांतरण किया। उनके जीवन का लक्ष्य ही गोवा के निवासियों के जीवन को उंचा उठाना तथा उनको हर संभव सुख सुविधा उपलब्ध हो ऐसी स्थिति तैयार करना हो गया था। यही वे अंतिम सांस तक करते रहे। 

2012 में भाजपा को बहुमत मिलने के बाद पर्रिकर ने पेट्रोल पर वैट हटाने का अपना वादा पूरा किया। यह बहुत बड़ा कदम था। दूसरे राज्य ऐसा साहस नहीं कर सके। ऐसा करते हुए भी पर्रिकर ने राज्य की वित्तीय स्थिति संभाले रखी। 

गोवा में कोई भी पर्रिकर के विकास विजन का साकार रुप देख सकता है। बुजुर्गों के लिए दयानंद सामाजिक सुरक्षा योजना, साइबरएज योजना और सीएम रोजगार योजना जैसे सामाजिक सुरक्षा के उनके कार्यक्रमों का स्वरुप अन्य राज्यों से थोड़ा अलग था। उनके कार्यकाल में योजना आयोग के सर्वेक्षण में गोवा लगातार तीन साल तक देश का बेस्ट गवर्निंग स्टेट माना गया। 

रक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती समय के अनुरुप आधुनिकीकरण के ठहरे हुए कार्य को तीव्र गति देना तथा उसके लिए नियम प्रक्रिया में बदलाव करने वाले आंतरिक सुधार करने की थी। ये दोनों कार्य उन्होंने बगैर शोर-शराबे ओर आत्मप्रचार के किया। 

रक्षा मंत्रालय पर काम करने वाले कहते हैं कि उन्होंने कुछ किया और कुछ करने से रह गए। किंतु निर्णय प्रक्रिया को उन्होंने आमूल बदल डाला जिसका असर आज भी है। सेना को एक सीमा तक आपातकालीन खरीद की आजादी देने की मांग वर्षों से पड़ी थी जिसे उन्होंने स्वीकृत कर दिया। सेना के तीनों अंगों की आवश्यकता के आलोक में साहस के साथ रक्षा खरीद के लिए आगे बढ़ना, बातचीत करना, सौदे करना उसमें मेक इन इंडिया का पहलू बनाए रखने की कोशिश करने की प्रक्रिया की जो गति उन्होंने दी उसी पर काम आगे भी होता रहा। बहुचर्चित राफेल सौदे पर उन्हीं के हस्ताक्षर हैं। 

कहने का तात्पर्य यह कि उनकी सादगी और सरलता कभी उनके निर्णय के आड़े नहीं आई बल्कि यह उनकी ताकत बनी रही। ऐसा व्यक्तित्व का मात्र 63 वर्ष की उम्र मंे बिछड़ जाना देश के लिए ऐसी क्षति है जिसकी पूर्ति कठिन है। किंतु पर्रिकर राजनीति में काम करने वालो के लिए प्रेरणा और उदाहरण बने रहेंगे। 

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार औऱ स्तंभकार हैं)