भाजपा से इस्तीफा देने वाली सांसद सावित्री बाई फुले महज आठ साल की उम्र में शादी के बंधन में बंध गई थीं, हालांकि बाद में उन्होंने संन्यास लेने के लिए अपने पति से छोटी बहन की शादी कराई। ताकि संन्यास लेकर दलित मामलों को लेकर मुखर हो सकें। जिस भाजपा ने सावित्री बाई फुले को राजनैतिक तौर पर स्थापित किया, अब वही सावित्री भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ेंगी। हालांकि पिछले एक साल से वह भाजपा की नीतियों के खिलाफ बगावती तेवर अपनाए हुए थीं।

बहराइच से भाजपा की सांसद रही सावित्री बाई फुले भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। सावित्री ने अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत स्थानीय स्तर की राजनीति से की। उसके बाद वहीं से जिला पंचायत सदस्य के पद पर नियुक्त हुई। शुरूआती दौर में स्थानीय स्तर पर सावित्री कई छोटे बड़े मुद्दों को उठाकर चर्चा में रही। तभी भाजपा ने उन्हें 2012 में बहराइच से विधायक का टिकट दिया और सावित्री जीतने में कामयाब रही। इसके बाद 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में उन्हें भाजपा ने बहराइच की सुरक्षित सीट से टिकट दिया। जिसे वह मोदी लहर में जीतने में कामयाब रही। महज सैंतीस साल की सावित्री भाजपा की मुखर वक्ता मानी जाती थी। कभी एक गरीब परिवार में जन्म लेने वाली सावित्री गरीबी के कारण पढ़ाई नहीं कर पाई और उनका विवाह उनके घरवालों ने महज आठ साल की उम्र में कर दिया। लोकसभा चुनाव में दिए गए शपथपत्र में सावित्री ने खुद को अविवाहित बताया है। सावित्री ने जब होश संभाला और प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत की तो उनका रूझान धर्म की तरफ हुआ और उन्होंने संन्यास ले लिया और अपने पति की शादी अपनी छोटी बहन से करा दी। लेकिन उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। सावित्री अपने को साध्वी कहती हैं और धार्मिक कार्यक्रमों को आयोजित करती रहती हैं।

सावित्री को अपने राजनैतिक जीवन में सबसे बड़ी कामयाबी तब मिली जो उन्हें विधानसभा का भाजपा की तरफ से टिकट मिला। सावित्री ने 2012 का विधानसभा चुनाव बहराइच की बलहा सुरक्षित विधानसभा सीट से करीब 22 हजार से अधिक मतों से जीता। जबकि उस वक्त राज्य में सपा की लहर चल रही थी। इसके बाद पार्टी ने उन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में टिकट दिया और बहराइच सुरक्षित संसदीय सीट से वह एक लाख से अधिक मतों से जीतने में कामयाब रही। वह बहराइच से 2001 से 07 तक तीन बार निरंतर विभिन्न वार्डों से जिला पंचायत सदस्य चुनी गईं। सावित्री के जीवन में बसपा प्रमुख मायावती की बड़ी भूमिका रही। जब सावित्रि ने कक्षा आठ उत्तीर्ण किया, तो स्कूल के प्रधानाध्यापक ने धन न दिए जाने पर अंक तालिका व प्रमाण पत्र नहीं दिए। जिससे उसकी तीन वर्ष तक आगे शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकीं। उनके पिता बसपा से जुड़े हुए थे एक बसपा नेता के करीबी थे। जब उन्हें पता लगा कि सावित्री को अंकतालिका व प्रमाण पत्र नहीं मिले हैं, तो उसे लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती से मिले। उसके बाद उन्हें स्कूल के प्रमाण पत्र मिले। सावित्री भाजपा की सदस्य रहते हुए अकसर सरकार के खिलाफ बयान देती रहती थी। कुछ महीने पहले उन्होंने दलित आरक्षण को लेकर लखनऊ में बड़ी रैली का आयोजन किया था। हालांकि इस रैली के बाद पार्टी ने उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया था। लेकिन इतना तो तय हो गया था कि पार्टी अब उन्हें बाहर का रास्ता दिखाएगी। इसके बाद सावित्री ने मोदी और योगी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले रखा। हालांकि बीच में यह भी चर्चा रही कि वह बसपा का दामन थाम सकती हैं। क्योंकि सावित्री का अपने शुरूआती राजनैतिक कैरियर से बसपा के प्रति झुकाव था। फिलहाल आगामी लोकसभा चुनाव में वह किस पार्टी से चुनाव लड़ेंगी यह तय नहीं हो पाया है। लेकिन भाजपा ने सावित्री के जाने पर राहत की सांस जरूर ली है।