सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए मौत की सजा पाए उन कैदियों के लिए नई उम्मीदें पैदा कर दी हैं जो दोषसिद्धि के बाद ‘गंभीर मानसिक बीमारियों’ से ग्रसित हो गए। कोर्ट ने कहा है कि अपीलीय अदालतों के लिए कैदियों की मानसिक स्थिति फांसी की सजा नहीं सुनाने के लिए एक अहम पहलू होगी। जस्टिस एनवी रमन्ना, जस्टिस एमएम शांतागौदर और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने यह फैसला दिया है। 

अभियुक्त अब आपराधिक अभियोजन से बचने के लिए भारतीय दंड संहिता के तहत ‘कानूनी तौर पर पागल’ होने की दलील दे सकते हैं। साथ ही बचाव पक्ष अपराध के समय से इसे जोड़ सकते हैं। जस्टिस एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने एक कैदी को फांसी की सजा से बख्श दिया जिसे उसकी मानसिक स्थिति के कारण फैसले में शामिल नहीं किया गया था। कैदी को 1999 में महाराष्ट्र में दो नाबालिग लड़कियों के साथ बर्बर दुष्कर्म और हत्या के मामले में मौत की सजा सुनाई गई थी।    

पीठ ने हालांकि बर्बर तरीके से अपराध को अंजाम देने पर गौर किया और अभियुक्त को उसके शेष जीवन तक जेल की सजा सुनाई। इसके साथ सरकार को यह सुनिश्चित करने का भी निर्देश दिया गया कि उसे उचित इलाज मुहैया कराई जाए।    

पीठ के सामने मानसिक बीमारी और अपराध के बीच संबंध से जुड़े जटिल सवाल भी थे। निर्देशों के दुरूपयोग को रोकने के लिए पीठ ने कहा कि यह भार आरोपी पर होगा कि वह स्पष्ट सबूतों के साथ यह साबित करे कि वह गंभीर मानसिक बीमारी से पीड़ित है। कोर्ट ने कहा कि उपयुक्त मामलों में अदालत दोषियों की मानसिक बीमारी के दावे पर विशेषज्ञ रिपोर्ट के लिए एक पैनल का गठन कर सकती है।