अयोध्या जमीन विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट 5 मार्च को यह तय करेगा कि अयोध्या मामले में समझौता के लिए मध्यस्थता के पास भेजा जाएगा या नहीं। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है। जिसमें चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अब्दुल नजीर शामिल हैं। 

कोर्ट ने मुस्लिम पक्षकार की ओर से पेश वकील राजीव धवन को ट्रांसलेशन के दस्तावेज देखने के लिए 6 हफ्ते का समय दिया है। जबकि धवन ने इस काम के लिए 8 से 12 हफ्ते का समय मांगा था। मामले की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने सभी तरफ के वकीलों से पूछा कि वह पहले तय करें कि क्या सभी कागजों का अंग्रेजी अनिवाद उन्हें मंजूर है। अगर सबकी हाँ है, तभी सुनवाई के लिए कोर्ट आगे बढ़ेगी। 

कोर्ट ने कहा कि अगर हम केस की सुनवाई शुरू करते हैं तो हम नहीं चाहेंगे कि पक्षकार मामले में दस्तावेजो के अनुवाद की सत्यता को लेकर विवाद करें। जिसपर मुस्लिम पक्षकार के वकील राजीव धवन ने कहा कि पहले हमें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनुवाद कराए गए दस्तावेज देखने होंगे। 

जिसपर रामलला की ओर से पेश वरिष्ठ वकील सी एस वैधनाथन ने आपत्ति जाहिर करते हुए कहा कि कोर्ट द्वारा पिछले आदेश के तहत दस्तावेज के अनुवाद की समय सीमा समाप्त हो चुकी है। जिसपर राजीव धवन ने कहा कि दस्तावेज देखने होंगे क्योंकि हर दस्तावेज काफी अहम है। 

तब जस्टिस चंद्रचूड़ ने पूछा कि अगर आप यूपी सरकार द्वारा अनिवादित कराए गए दस्तावेजो का विश्लेषण करते है और आपको पता चलता है कि केवल 30 प्रतिशत ही अनुवाद सही है तो कोर्ट केवल बाकी बचे दस्तावेजों का ही अनुवाद करना होगा। 

दूसरी ओर हिंदू पक्षकारों के वकीलों के तरफ से कहा गया कि मामले से जुड़े हुए सभी अधिवक्ताओं ने ऑन रिकार्ड ने यूपी सरकार द्वारा किये हुए अनुवाद को 2017 में ही देख लिया था, लेकिन अब फिर से सवाल उठा रहे है। 

वहीं जस्टिस बोबडे ने कहा कि ये कोई निजी संपत्ति को लेकर विवाद नही है, मामला पूजा अर्चना के अधिकार से जुड़ा है। अगर समझौता के जरिये एक प्रतिशत भी इस मामले के सुलझने का चांस हो, तो इसकी कोशिश होनी चाहिए। 

बतादें कि हाल ही में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर अयोध्या में राम जन्मस्थान से जुड़े 0.313 एकड़ जमीन को छोड़कर बाकी जमीन को वापस करने की मांग की गई है। 
अयोध्या में विवादित स्थल के आसपास की 67.703 एकड़ जमीन अधिगृहित करने के 26 साल बाद केंद्र सरकार ने इसे असल मालिकों को लौटा देने की मांग की है। 

सरकार की ओर से दायर अर्जी में कहा गया है कि सिर्फ 0.313 एकड़ जमीन ही विवादित है, बाकी नहीं। इसलिए बाकी जमीन उसके असली मालिकों को लौटाने की इजाजत दी जानी चाहिए। 
चूंकि 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने विवाद के निपटारे तक पूरी जमीन पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था। इसलिए न तो उस जमीन पर कोई निर्माण हो सकता और न ही जमीन को उनके मूल मालिको को लौटाया जा सकता है। 

केंद्र सरकार ने जिस जमीन को सौंपने की इजाजत कोर्ट से मांगी है, वह चार मुख्य हिस्सों में बंटी है। इनमें सबसे बड़ा हिस्सा करीब 42 एकड़ जमीन रामजन्म भूमि न्यास के नाम पर था। बाकी जमीन या तो उत्तर प्रदेश सरकार की है या विवादित है या फिर मुकदमा जीतने वाले के लिए सुरक्षित रखी गई है। 

केंद्र सरकार ने अपनी अर्जी में यह भी कहा है कि विवादित जमीन के आसपास की जमीन का अधिग्रहण इसलिए किया गया था, ताकि विवाद के निपटारे के बाद उस विवादित जमीन पर कब्जे और उपयोग में कोई बाधा न हो। रामजन्म भूमि न्यास अपनी जमीन वापस चाहता है और चूंकि विवादित जमीन के निपटारे में विलंब हो रहा है, इसलिए कोर्ट को यथास्थिति वाला अपना आदेश वापस लेना चाहिए ताकि गैर-विवादित जमीन को उसके मूल मालिकों को लौटाया जा सके। 

गौरतलब है कि विवादित ढांचा गिरने के बाद तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने सर्टेन एरियाज ऑफ अयोध्या एक्ट 1993 बनाकर लगभग 67.073 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था जिसमें मंदिर मस्जिद वाली विवादित जमीन के साथ रामजन्म भूमि न्यास की 42 एकड़ जमीन भी शामिल थी। 

न्यास ने छह जून 1996 को अपनी जमीन वापस लेने के लिए केंद्र सरकार को प्रतिवेदन दिया जिसे सरकार ने अगस्त 1996 में निरस्त कर दिया था। सरकार के इस फैसले के खिलाफ न्यास ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन न्यास को यहां भी निराशा हाथ लगी थी। कोर्ट ने 21 जुलाई 1997 को न्यास की याचिका खारिज करते हुए कोई राहत देने से इनकार कर दिया था।