नई दिल्ली।

आम आदमी का मंदिर के दर्शन और प्रतिदिन पूजा में भाग लेना मंदिर के निजी या सार्वजनिक चरित्र के निर्धारण के लिए महत्वपूर्ण है। कोर्ट ने यह टिप्पणी इंदौर के एक मंदिर के पुजारी की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई के बाद किया है। पुजारी ने याचिका में कहा है कि मंदिर निजी है और राज्य को इस मंदिर के प्रबंधन, पूजा अर्चना और कृषि भूमि पर कब्जे का कोई अधिकार नहीं है।

मामले में राज्य सरकार के अधिकारियों के खिलाफ हुक्मनामा भी जारी करने की मांग की गई है। बता दें कि निचली अदालत ने इस मांग को खारिज कर दिया था। जिसके बाद मामला हाईकोर्ट पहुचा और हाइकोर्ट ने भी निकली अदालत के फैसले को सही ठहराया था। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि विवादित भूमि भगवान के नाम पर है और राम दास और बजरंग दास पुजारी हैं और ये पुजारियों के नाम बदलते रहते है। यह भी कहा गया है कि ये पुजारी किसी एक परिवार के नहीं है और इनके बीच कोई खून का रिश्ता नहीं है। मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी की पीठ नव कहा कि उन्होंने इस बाबत कोई सबूत नहीं दिया है कि इस मंदिर को किसने बनवाया और उसने इसके लिए पैसे कहाँ से जमा किये गए।

कोर्ट ने यह भी कहा कि रजिस्टर में श्री राम मंदिर का सार्वजनिक मंदिर के रूप में दर्ज करना इस बात का पुख्ता सबूत है कि श्री राम मंदिर एक सार्वजनिक मंदिर है। कोर्ट ने यह भी कहा कि मंदिर में दर्शन के लिए आम लोगों का आना और इस मंदिर में प्रतिदिन होने वाली पूजा और अन्य समारोहों में भाग लेना इस मंदिर के चरित्र को निर्धारित करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर निजी मंदिर होता, तो पुजारी वंशानुगत होता और यह खून के रिश्ते, शादी और गोद लेने की व्यवस्था से चलता। अभी के मामले में उत्तराधिकारी गुरु शिष्य संबंधों पर चल रहा है।

पहले के पुजारी का बाद में होने वाले पुजारी से खून का कोई रिश्ता नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा कि वादियों को सरकार ने इस मंदिर का पुजारी नियुक्त किया और इसलिए उन पर इस मंदिर को निजी मंदिर कहने से रोक लगाया जा रहा है। पीठ ने यह भी कहा कि वादियों का यह कहना कि मंदिर की परिसंपत्ति को सरकार से लीज पर लिया गया है उनके खिलाफ गया है।