मशहूर पर्यावरणविद् प्रोफेसर जी.डी.अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञानस्वरुप सानंद ने अपना जराजीर्ण शरीर त्याग दिया। 112 दिनों के अनशन की अग्नि में दग्ध होकर उनका वृद्ध शरीर जर्जर हो चुका था। उसपर से अनशन के आखिरी दिनों में उन्होंने पानी पीना भी बंद कर दिया था। 

लेकिन ‘गंगापुत्र’ के जीवन को आखिरी झटका तब लगा, जब उन्हें मां गंगा की गोद से दूर करने की कोशिश की गई। वह हरिद्वार के मातृसदन में अनशन कर रहे थे। उन्होंने मंगलवार को जल भी त्याग दिया था। जिसके बाद बुधवार को उन्हें जबरदस्ती उठाकर ऋषिकेश के एम्स में भर्ती कराया गया। जहां उन्होंने गुरुवार को दम तोड़ दिया।

आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य रह चुके जी.डी.अग्रवाल इस साल 22 जून से अनशन पर थे। दो केन्द्रीय मंत्रियों नितिन गडकरी और उमा भारती ने उनसे अनशन तोड़ने का आग्रह किया था। लेकिन वह माने नहीं। 

वह पहले भी अनशन कर चुके थे। लेकिन साल 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आश्वासन पर उन्होंने अपना अनशन तोड़ दिया था। लेकिन केन्द्र सरकार की महत्वकांक्षी योजना नमामि गंगे की असफलता से वह व्यथित हो गए थे। जिसके बाद 22 जून 2018 को उन्होंने फिर से अनशन शुरु कर दिया, जो कि उनके प्राण जाने के साथ ही खत्म हुआ। 

‘गंगापुत्र’ इस बात से बेहद नाराज थे, कि 2010 में जिस भागीरथी नदी पर बन रहे लोहारी नागपाला, भैरव घाटी और पाला मनेरी बांधों के प्रोजेक्ट रोक दिए गए थे, उन्हें फिर से शुरु कर दिया गया। 

प्रोफेसर जी.डी.अग्रवाल अविरल बाधामुक्त गंगा के हिमायती थे। उनसे मैनें लंबी बातचीत की थी। जिसमें उन्होंने स्पष्ट रुप से कहा था, कि ‘लाखों सालों से नदियां मानव तथा दूसरे जीवित प्राणियों द्वारा पैदा किया गया कचरा साफ करती आई हैं। उनका अपना सफाई का सिस्टम है। नदियों की लगातार बहती हुई धारा, किसी भी तरह का कचरा साफ करने में सक्षम हैं। लेकिन यह तभी होगा जब नदियों की धारा को अविरल रहने दिया जाए’। 

प्रो. अग्रवाल नदियों पर बने बांधों से बेहद खफा थे। उनका कहना था कि बांध नदियों की धारा को बाधित कर देते हैं। जिसके कारण नदियां अपना प्रदूषण साफ नहीं कर पातीं। परिणामस्वरुप गंगा सहित सभी नदियां दिन प्रति दिन गंदे नाले में बदलती जा रही हैं। वह नदियों पर बने सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लांट जैसी आधुनिक सफाई के तरीकों से सहमत नहीं थे। उनका कहना था, कि इनपर करोड़ो रुपए खर्च करने की बजाए हमें सिर्फ नदियों की धारा को खोल देना चाहिए। नदियां अपनी सफाई खुद कर लेंगी।  

प्रोफेसर जी.डी.अग्रवाल के मुताबिक प्रदूषित नदियां हमारे जमीन के अंदर के पानी के स्रोत को भी प्रदूषित कर रही हैं। जिसकी वजह से पूरी मानव सभ्यता तरह तरह के रोगों का शिकार हो रही है। 

प्रो. अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञानस्वरुप सानंद ने संन्यास ले लिया था। वह चाहते थे, कि गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन रहे हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स को बंद कर दया जाए और गंगा संरक्षण प्रबंधन अधिनियम को लागू किया जाए।'


 
उन्हें वर्तमान सरकार से बेहद उम्मीदें थी। उन्हें लगता था, कि यह सरकार अपने बहुमत का इस्तेमाल करके गंगा संरक्षण प्रबंधन अधिनियम को लागू करा सकती है। इसलिए उन्होंने जून 2018 में फिर से अनशन शुरु किया था।

जी.डी.अग्रवाल ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में कहा था, कि मैं अपनी तपस्या को और आगे ले जाउंगा। अपने जीवन को गंगा नदी के लिए बलिदान कर दूंगा। मेरी मौत के साथ ही मेरे अनशन का अंत होगा। 

प्रोफेसर अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञानस्वरुप सानंद के साथ मेरी जो मुलाकात हुई। उसमें उन्होंने एक बहुत अहम मुद्दा उठाया था। वह इस बात से व्यथित थे, कि स्वच्छ नदियों के लिए किए जा रहे उनके आंदोलन मे आम लोगों की जितनी भागीदारी होनी चाहिए, वह नहीं हो रही है। जबकि स्वच्छ जल हर किसी की प्राथमिक आवश्यकता है।
 
स्वामी सानंद के साथ बहुत से लोग जुड़े हुए थे। उनके समर्थक हजारों की संख्या में थे। फिर भी कई जगहों पर उनका विरोध भी किया जाता था। जैसे गढ़वाल के श्रीनगर में उन्हें विकास विरोधी बताकर काले झंडे दिखाए गए थे। जिससे वह बेहद दुखी हुए थे। 

दरअसल आम लोग स्वामी सानंद द्वारा हाइड्रो-इलेक्ट्रिक यानी बिजली परियोजनाओं के विरोध से नाराज होते थे। उन्हें लगता था, कि अगर इनकी मांग को मानकर बांध नष्ट कर दिए गए, तो उन्हें बिजली नहीं मिलेगी। 

इस मुद्दे पर स्वामी सानंद का कहना था, कि मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता साफ पानी है। बिजली का नंबर बाद में आता है। ऐसे भी बिजली उत्पादन के लिए सौर उर्जा का अक्षय स्रोत मौजूद है। 

स्वामी सानंद का मानना था, नदियों पर बांधों के बन जाने से प्रकृति की स्वाभाविक सफाई व्यवस्था खत्म हो जाती है। जिसका दुष्परिणाम लंबे समय तक झेलना पड़ता है। इसलिए बांधों को खत्म करके नदियों की धारा को अविरल बनाना चाहिए। 

आपसी बातचीत में उन्होंने एक और बात की ओर ध्यान आकर्षित किया था, कि नदियों पर बांध बनाकर सूखे इलाकों तक टनल के जरिए पानी पहुंचाया जाता है। लेकिन सूखे इलाकों में पानी के समस्या के समाधान के लिए हम पानी की बचत की ओर ध्यान क्यों नहीं देते। 

वह हंसते हुए कहते थे, अगर एक परिवार का काम प्रतिदिन 300 लीटर पानी में चल जाता है और उसे 3000 पानी लीटर दिया जाए। तो कुछ ही दिनों में उनकी जीवनशैली 3000 लीटर प्रतिदिन के हिसाब से ढल जाएगी। यह मानव का स्वभाव है। 

प्रोफेसर जी.डी.अग्रवाल का जाना भले ही मीडिया की सुर्खियों में नहीं आए। लेकिन उनका निधन मानव सभ्यता के लिए बहुत बड़ा नुकसान है। क्योंकि जल संकट के समाधान के लिए उनका जो समर्पण था, वह अब किसी में भी देखना मुश्किल है। 

अगर हमें स्वामी सानंद के इस महान बलिदान को जरा भी सम्मान देते हैं। तो पानी की हर एक बूंद बचाने को अपने जीवन का लक्ष्य बनाना होगा। 

बांधों को हटवाना और गंगा संरक्षण प्रबंधन अधिनियम लागू करना सरकार प्राथमिक की जिम्मेदारी बनती है। क्योंकि भारत देश के खुशहाल और स्वस्थ भविष्य के लिए यह बेहद आवश्यक है। इसकी शुरुआत गंगा से ही होनी चाहिए क्योंकि गंगा नदी हमारे भारत की 43 फीसदी आबादी की जीवनरेखा है।