जिस प्रकार भारत की सरकार बिना उत्तर प्रदेश के नहीं बनती उसी प्रकार उत्तर प्रदेश की राजनीति बिना पूर्वांचल के नहीं चल सकती। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का दायरा प्रयागराज से शुरू होकर गोरखपुर, बलिया और गाजीपुर तक जाता है। इसमें लगभग 32 लोकसभा की सीटें बनती हैं। बलिया की चुनावी स्थिति अंकगणितीय आधार पर गठबंधन के पक्ष में है लेकिन चुनाव में गणितीय स्थिति नहीं चलती। चुनाव का आधार कुछ और भी होता है। 

बलिया लोकसभा में कुल पाँच विधानसभा क्षेत्र हैं जिनमें बलिया नगर, बैरिया और फेफना तीन बलिया जिले से और जहुराबाद और मुहम्मदाबाद दो गाजीपुर से हैं। परिसीमन से पहले बलिया लोकसभा में गाजीपुर और मुहम्मदाबाद नहीं था। 

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के भरत सिंह को कुल 359758 वोट मिले थे जबकि सपा, बसपा और कौमी एकता दल को कुल मिलाकर 525951 वोट मिले थे। यदि 2017 के विधानसभा चुनाव पर ध्यान दें तो बलिया लोकसभा की 5 विधासभाओं में से चार भाजपा जबकि एक सीट सहयोगी सुभासपा के खाते में आयी। 2014 और 2017 के आंकड़े पर नजर डाली जाय तो यह मिलता है कि भाजपा के पक्ष में और मतदाता जुड़े हैं। 

जहां तक महागठबंधन का सवाल है तो अभी तक यही खबर है कि गठबंधन की ओर से नीरज शेखर की उम्मीदवारी लगभग तय है। नीरज शेखर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी के पुत्र हैं इसलिए बलिया का पारंपरिक वोट उनके साथ है लेकिन चंद्रशेखर जी जब चुनाव लड़ते थे उस समय परिसीमन नहीं हुआ था। जातिगत आधार पर बलिया को सवर्णों में राजपूत वर्चस्व और बाहुल्य की सीट माना जाता था। इसका एक बड़ा कारण था कि 77 से 2004 तक  चंद्रशेखर जी बस एक बार 84 में चुनाव हारे थे। राजपूत वर्चस्व और चंद्रशेखर जी के व्यक्तित्व के कारण बलिया में उनका एक बड़ा जनाधार था। 

    नीरज शेखर के लिए यह सीट सहायक तो है लेकिन आसान नहीं है। हालांकि भाजपा सांसद की ओर से पिछले पाँच वर्षों में ऐसी कोई चुनौती नहीं मिली है जिससे नीरज शेखर के लिए कोई बहुत बड़ी कठिनाई दिखे। 

क्षेत्र में और भाजपा संगठन में भी यह चर्चा ज़ोरों पर है कि इस बार भरत सिंह को भाजपा अपना उम्मीदवार न बनाए। ऐसी स्थिति में जो भी भाजपा का उम्मीदवार होगा वह नरेंद्र मोदी सरकार और योगी आदित्यनाथ की सरकार के कार्य के आधार पर ही चुनाव में उतरेगा। 

बलिया लोकसभा में सवर्णों में दूसरा बड़ा वर्ग भूमिहार मतदाताओं का है जो विशेषकर मुहम्मदाबाद और फेफना में बाहुल्य में हैं और दोनों विधानसभाओं में ये भाजपा के बड़े समर्थक भी हैं और इनके विधायक भी हैं। 

जहाँ तक बलिया लोकसभा में पिछड़ी जाति के मतदाताओं की बात है तो संख्या की दृष्टि से ये बहुत अधिक हैं जिनमें यादव की बहुलता है। उसके बाद राजभर और कुशवाहा हैं। 

बलिया लोकसभा में बहुत अच्छी संख्या दलित मतदाताओं की भी है जो बसपा का आधार वोट है। किसी भी पार्टी की ओर से अभी तक बलिया में किसी पिछड़ी जाति के उम्मीदवार को नहीं उतारा गया है। 

यदि आज के परिप्रेक्ष्य में इस सीट को देखा जाय तो नीरज शेखर के पक्ष में अंकगणितीय आधार तो है लेकिन जनमानस कितना उनके साथ खड़ा होता है यह अभी तय होना बाकी है।

 इसका कारण यह है कि पिछले चुनाव में बसपा के उम्मीदवार वीरेंद्र कुमार पाठक को 141684 वोट मिले थे जिसमें सारे वोट दलित ही नहीं थे। 

कौमी एकता दल के उम्मीदवार अफजाल अंसारी को 163943 वोट मिले थे जिसमें सारा का सारा मुसलमान वोट नहीं था।

 यह देखना अब दिलचस्प होगा कि जब कौमी एकता दल का विलय बसपा में विलय हो चुका है और दोनों को जोड़कर बसपा का 3 लाख से अधिक वोट हो रहा है, जिसका कितना हिस्सा सपा के नीरज शेखर के साथ कितना जुड़ पाता है और कितना भाजपा के पक्ष में जाता है। 

ऐसे में यह सीट लोकसभा चुनाव में किसी भी अनुमान से परे है। 

संतोष कुमार राय

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक हैं और मालवीय मिशन के सदस्य है)