तो क्या वे दिन लद गए जब गांव में नीम-बरगद के पुराने पेड़ के नीचे खाट लगाकर, मूंछों पर ताव देते, पंचायती करते गांव के बड़े बुजुर्ग चुनाव की हवा का रूख तय करते थे. कम से कम चुनाव आयोग के आंकड़ों का ताजा विश्लेषण तो ऐसा ही कहता है. लाठी टेककर चलने वाले गांव के जो बड़े बुजुर्ग नेताओं को चुनाव में पांव छूने को मजबूर करते थे उनकी हनक अब वैसी नहीं रहने वाली. 
बालों में जेल लगाकर स्पाइक्स बनाए, टखने से ऊपर और कमर से नीचे सरकती जींस में सजे स्मार्टफोन पर पबजी खेलने वाले युवाओं के हाथों में 2019 के लोकसभा चुनाव की चाबी होगी. यानी नेताजी को चुनाव जीतना है तो बुजुर्गों के पांव छूने से पहले इन युवाओं को लुभाना होगा. 

चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक करीब नौ फीसदी वोटर 2019 में पहली बार वोट डालेंगे. 2019 के आम चुनावों में हिस्सा लेने वाले 90 करोड़ वोटरों में करीब 8.40 करोड़ वोटर नए हैं. इन नए वोटरों में से करीब डेढ़ करोड़ 18-19 साल के बीच के हैं जो लोकसभा चुनाव में पहली बार वोट कर रहे होंगे. 2014 के चुनावों में सत्रह करोड़ से थोड़े अधिक वोटों के साथ भाजपा ने 282 सीटें जीत लीं थीं. इस लिहाज से साढ़े आठ करोड़ वोट बहुत खास हो जाते हैं और उनमें भी खास हो जाते हैं वे डेढ़ करोड़ वोट जो पहली बार लोकसभा चुनावों के लिए वोट डालने मतदान केंद्रों तक आएंगे.

1.    कम मार्जिन वाली सीटों पर युवाओं की अहम भूमिका
पहली बार वोट डालने वाले युवाओं के आंकड़े का थोड़ा विश्लेषण करें तो स्थिति ज्यादा दिलचस्प नजर आती है. ये डेढ़ करोड वोटर देश के 29 राज्यों की 282 सीटों पर बंटे हैं. चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि इन 282 सीटों पर हार-जीत का अंतर जितने वोटों के से तय हुआ था, उससे ज्यादा नए युवा वोटर उन सीटों पर बने हैं. यानी अगर यह मान लिया जाए कि जनता ने इस बार उसी पार्टी को वोट किया जिसे पिछली बार किया था, तो भी 282 सीटों पर कौन जीतेगा इसका फैसला नए वोटर करेंगे. यह बात और दिलचस्प इस लिहाज से हो जाती है कि सरकार बनाने के लिए मात्र 272 सीटों की जरूरत होती है. आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर ऐसा अनुमान लगाया है कि प्रत्येक लोकसभा सीट पर औसतन 1.49 लाख वोटर ऐसे होंगे जो 2019 में पहली बार मतदान के लिए आएंगे. आपको बताते चलें कि 2014 में 297 सीटों पर हार-जीत का अंतर डेढ़ लाख वोटों से कम रहा था.

2.    जानिए कहां ज्यादा असर डालेंगे युवा वोटर
अब पहले यह समझते हैं कि वे 282 सीटें देश के किन क्षेत्रों में हैं जहां की चाबी नए वोटरों के हाथ रहने वाली है. इनमें से 217 सीटें देश के 12 बड़े राज्यों से आती हैं. पश्चिम बंगाल की 32 सीटें, बिहार की 29, उत्तर प्रदेश की 24, कर्नाटक की 20, तमिलनाडु की 20, राजस्थान की 17, केरल की 17, झारखंड की 13, आंध्र प्रदेश की 12, महाराष्ट्र की 12, मध्य प्रदेश की 11 और असम की 10 सीटें शामिल हैं. यानी देश के 12 बड़े राज्यों में बाजी किस ओर चली जाए कहा नहीं जा सकता. यहां एक बात और गौर करने वाली है कि इन सभी सीटों पर जो नए वोटर बने हैं उनकी संख्या 2014 के चुनावों के हार जीत के अंतर से ज्यादा है.

3.    बंगाल और पूर्वोत्तर में युवाओं की बड़ी भूमिका
इन आंकड़ों का थोड़ा और विश्लेषण करते हैं. शुरुआत पश्चिम बंगाल से जहां सबसे ज्यादा नए युवा वोटर आए हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने दोबारा जीत हासिल की है. 20 मई 2011 को वह पहली बार मुख्यमंत्री बनीं. यानी इस साल मई में जो युवा पहली बार वोटर डाल रहे होंगे उनकी उम्र तब लगभग 10-11 साल रही होगी जब ममता मुख्यमंत्री बनी होंगी. नरेंद्र मोदी 2014 में जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तब इनकी उम्र 13-14 साल रही होगी. कह सकते हैं कि इन वोटरों में जिस दौर में थोड़ी-बहुत राजनीतिक समझ विकसित हुई होगी उस दौरान उन्होंने ममता और मोदी को ही देखा-सुना होगा. यह वह दौर था जब कांग्रेस के नाम पर सिर्फ जोक्स बनते थे और वामदलों का किला एक के बाद एक ढ़हता जा रहा था. कह सकते हैं कि इनके लिए कांग्रेस और वामदलों के प्रति रूझान की संभावना नहीं के बराबर है. यानी इन 32 सीटों पर नए वोटरों में तृणमूल और भाजपा के प्रति रूझान की संभावना ज्यादा होगी. इनमें से जो भी दल इन्हें आकर्षित करने में कामयाब रहेगा, बाजी उसके हाथ होगी.

खबरें राजनीतिक मिजाज तय करने में भूमिका निभाती हैं. तो इन युवाओं ने पिछले दो सालों में बंगाल में चिटफंड के बड़े घोटालों, जिसमें तृणमूल के कुछ सांसदों को जेल जाना पड़ा, की खबरें, धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण, बांग्लादेश से आए बंगालियों को नागरिकता देने या नहीं देने से जुड़े विवाद आदि की खबरें सुनी होंगी. नए वोटरों को किसी हवा में बहा लेना ज्यादा आसान होता है. इसलिए सभी पार्टियों की तरफ से युवाओं को रिझाने के प्रयास ज्यादा हो रहे हैं. बंगाल की लड़ाई कमोबेश तृणमूल और भाजपा के बीच ही रहनी है. अमित शाह ने पश्चिम बंगाल से 23 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है. बंगाल की सीमा से लगे राज्यों असम, झारखंड, बिहार और सिक्किम में एनडीए की सरकारें हैं. बंगाल के बगल के एक अन्य राज्य उड़ीसा में भी भाजपा लगातार मजबूत हो रही है. पूर्वोत्तर में पिछले पांच सालों में संघ ने अपनी दखल बहुत बढ़ाई है. पिछले तीन साल से संघ, छात्रों को विचारधारा से जोड़ने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चला रहा है. संघ ने पूर्वोत्तर के आदिवासी युवाओं के लिए कई शैक्षणिक और खेल-कूद के कार्यक्रम शुरू किए हैं. ये सारी बातें भाजपा के पक्ष में जा सकती हैं. इसके साथ ही सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मुद्दे, युवाओं को भाजपा के प्रति झुकाव बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं. पर पश्चिम बंगाल चिंतन करने वाला प्रदेश रहा है. यहां की राजनीति में मुद्दे हावी रहते हैं. इसलिए बेरोजगारी, खस्ताहाल ग्रामीण अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दे भाजपा के लिए फांस भी बन सकते हैं. अब सबकुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि कौन सा दल अपनी छाप छोड़ने में कितना सफल रहता है. बंगाल से ही सटे असम की कुल 14 में से 10 सीटों पर नए वोटरों की संख्या निर्णायक साबित होगी. असम में फिलहाल भाजपा की सरकार है और 2018 में हुए पंचायत चुनावों में भी पार्टी ने भारी सफलता पाई है. लेकिन नागरिकता संशोधन बिल पर भाजपा को राज्य में विरोध का सामना भी करना पड़ा. असम के स्थानीय अखबारों में छपी रिपोर्टों की मानें तो फिलहाल राज्य की 40 फीसदी से अधिक आबादी उन बंगाली हिंदुओं की है जिनको नागरिकता संशोधन विधेयक का सीधा फायदा पहुंचता. इसके अलावा 15 से 20 फीसदी आबादी बिहार, झारखंड, राजस्थान और दक्षिण भारत से आकर बसे प्रवासियों की है. यानी मूल असमिया लोग बहुमत में नहीं हैं. तो यदि नए वोटरों में भी इसी पैटर्न को आधार बनाकर चलें तो भाजपा के लिए यहां से भी कुछ अच्छी खबर ही आ सकती है.

4.    बिहार में भी युवा ही है निर्णायक
बिहार की कुल 40 में से 29 सीटों पर नए वोटर निर्णायक भूमिका में होंगे. प्रदेश में अभी एनडीए की सरकार है. बिहार इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यहां के रूख का असर उत्तर प्रदेश और झारखंड पर होता है. तेजस्वी यादव के हाथ में कमान आने से राजद युवाओं को आकर्षित करेगी लेकिन बालिकाओं को लेकर नीतीश कुमार सरकार की कोशिशें और नौकरियों में महिलाओं को आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिसके कारण युवाओं में एनडीए की पकड़ भी उतनी ही मजबूत दिखती है. इसके साथ ही भाजपा के स्टूडेंट विंग एबीवीपी ने पटना, भागलपुर और मुजफ्फरपुर के यूनिवर्सिटी में 25 साल बाद पहली बार हुए छात्र संघ चुनावों में जीत दर्ज की है. बिहार से अलग होकर अलग बने झारखंड राज्य की बात करें, तो नए वोटर पूरे राज्य को अपनी उंगलियों पर नचाने में सक्षम दिखते हैं. राज्य में कुल 14 सीटें हैं जिसमें से 13 पर नए वोटरों का दबदबा रहेगा.

5.    यूपी में भी युवाओं के ही हाथ सत्ता की कुंजी
उत्तर प्रदेश जो देश को प्रधानमंत्री देने के लिए जाना जाता है वहां की 24 सीटों का दारोमदार युवाओं के हाथ में होगा. सबसे ज्यादा सीटों वाला राज्य होने के कारण वैसे तो हर बार इसी प्रदेश पर चुनावी पंडितों की ज्यादा नजर रहती है, लेकिन इस बार का चुनाव अब तक के सभी चुनावों से खास होने वाला है. उसके कई कारण हैं. पहला तो 2014 में भाजपा ने अप्रत्याशित रूप से 71 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया था. समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस में जहां सिर्फ दोनों पार्टियों की पारिवारिक सीटें ही बच पाईं वहीं बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की झोली खाली रह गई. 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने फिर से इतिहास रचा और प्रचंड जीत हासिल की. विपक्ष को अपना आधार सरकता नजर आया इसलिए एक दूसरे की धुर विरोधी रही सपा और बसपा ने तालमेल कर लिया है. जाट वोटरों में पकड़ रखने वाला राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) और प्रदेश में अच्छी खासी संख्या में मौजूद निषाद वोटरों की पार्टी निषाद पार्टी भी इसी गठबंधन में शामिल है. गठबंधन के इन दलों का अपना पक्का वोट बैंक है. अगर यह वोट बैंक एकजुट रहा तो प्रदेश की दो तिहाई सीटें से ज्यादा सीटें यह गठबंधन जीत सकता है. पिछले चुनावों में सपा-बसपा को अलग-अलग मिले वोटों को यदि जोड़ दिया तो दोनों मिलकर 50 से ऊपर सीटें जीत सकते हैं. यानी भाजपा को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है.

2014 के चुनाव में यूपी की 80 में से 20 सीटें ऐसी थीं, जहां हार-जीत का अंतर एक लाख वोटों से कम रहा था. इनमें से 18 पर भाजपा को और दो पर सपा को जीत मिली थी. कांग्रेस दो, भाजपा दो, बीएसपी चार और एसपी 12 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी. यानी एसपी-बीएसपी गठबंधन के लिए ये बीस सीटें आसानी से झोली में गिरती नजर आती हैं और भाजपा की 18 सीटें खतरे में हैं. ऐसे में ये नए वोट ही भाजपा के लिए खेवनहार साबित हो सकते हैं. इन नए वोटों को रिझाने के लिए आरएसएस और भाजपा का स्टूडेंट विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, युवा मोर्चा आदि बहुत सक्रिय है. लेकिन यहां पर कांग्रेस ने अचानक एक दमदार दांव खेला है. प्रियंका गांधी के मैदान में उतरने के बाद यूपी का खेल बदला हुआ दिखता है. प्रियंका के अलावा कांग्रेस ने एक अन्य युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को यूपी में लगाया है. जाहिर है युवा वोटरों को साधने के लिए कांग्रेस ने तैयारी की है.

6.    हिंदीपट्टी में युवा बनाएंगे सरकार
हिंदीपट्टी के दो अन्य राज्यों राजस्थान और मध्य प्रदेश में युवा वोटरों के रूख पर भी पैनी नजर रहेगी. इनमें से मध्य प्रदेश से भाजपा ने 15 साल बात सत्ता गंवाई है. यानी इन नए वोटरों ने जब स्कूल जाना शुरू किया होगा तबसे वहां भाजपा की सरकार रही है. प्रदेश में हालिया चुनावों में भाजपा की हार बहुत करारी नहीं रही थी. हार-जीत का अंतर बहुत कम रहा यानी अगर कांग्रेस ने अपनी जड़ें मजबूत की हैं तो भाजपा के पांव भी उखड़े नहीं हैं. ऐसे में 11 सीटों पर युवाओं का रूख बहुत कुछ तय करेगा क्योंकि फिलहाल प्रदेश की 29 में सिर्फ दो सीटें गुना और छिंदवाड़ा ही कांग्रेस के पास हैं. गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया सांसद हैं तो छिंदवाड़ा की सीट कमलनाथ ने जीती थी जो वर्तमान में प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं.

2014 में भाजपा ने राजस्थान की सभी 25 सीटें जीती थीं लेकिन उपचुनावों में दो सीटें अजमेर और अलवर उसके हाथ से निकल गईं. इसके अलावा भाजपा के एक सांसद कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में आ गई है. यानी कुल मिलाकर राजस्थान में जहां भाजपा का ग्राफ गिरा है वहीं कांग्रेस लगातार अपना दबदबा बढ़ा रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में एक नारा बड़ा प्रचलित रहा था- ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं.’ अगर इस नारे को संकेत समझें तो कहा जा सकता है कि विधानसभा में भले ही भाजपा धराशाई हो गई हो, लोकसभा में उसकी ताकत बनी हुई है. ऐसे में 17 सीटों पर नए युवा वोटर तय करेंगे प्रदेश के इस बैर और खैर की कहानी लिखेंगे.

7.    दक्षिण के युवाओं पर टिका राजनीति का भविष्य
दक्षिण के तमिलनाडु और कर्नाटक की 20-20 सीटों पर युवाओं की बढ़ती धमक के नतीजों पर भी नजर होगी. भाजपा जहां कर्नाटक विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी और सत्ताधारी कांग्रेस- जनता दल सेक्युलर आपस में लड़ रहा है वहीं तमिलनाडु में भाजपा ने जिस सत्ताधारी अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन किया है उसने पिछले चुनावों में अकेले अपने दम पर प्रदेश की 39 में से 37 सीटें जीत ली थीं. लेकिन अब अम्मा यानी जयललिता नहीं रहीं. भाजपा ने चार दलों के साथ तमिलनाडु में एक अच्छा गठबंधन तैयार किया है तो मुकाबले के लिए डीएमके, कांग्रेस और अन्य दलों का गठबंधन भी मजबूत चुनौती पेश करेगा. जहां एआईएडीमके की अम्मा यानी जयललिता का निधन हो चुका है तो वहीं डीएमके के संस्थापक कलईनार यानी एम. करुणानिधि भी नहीं रहे. तमिलनाडु की सत्ता दूसरी पीढ़ी के नेताओं के हाथ में है जिसका नतीजा तीसरी पीढ़ी करेगी. उम्मीदें प्रदेश का रूख तय करेंगे. केरल की 17 और आंध्र प्रदेश की 12 सीटों पर जहां युवा वोटर निर्णायक होने वाले हैं वहां भाजपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. इसलिए अगर वह किसी सेंधमारी में सफल रहती है तो उसकी बड़ी उपलब्धि ही होगी.

युवा शब्द के अक्षरों को अगर उलट दें तो वायु बन जाता है. इस बार तो युवा राजनीति में तूफान बनने की हैसियत में खड़े दिखते हैं. अब देखना होगा कि इस तूफान में किसकी कश्ती डूबेगी और किसकी पार लग जाएगी.

राजन प्रकाश

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनका पत्रकारिता का अनुभव 17 वर्षों से अधिक का है। राजनीतिक विषयों पर उनकी पकड़ उनकी लेखनी में झलकती है)