भारतीयों का मस्तिष्क उत्तम श्रेणी का है। इस तथ्य से अब पूरी दुनिया वाकिफ है। मैने अमेरिका के  एक स्कूल में पढ़ रही एक भारतीय लड़की के बारे में पढ़ा।  जिसने शिकायत की थी कि उसके अमेरिकी साथी उससे सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठ होने की उम्मीद रखते हैं। क्योंकि वह एक भारतीय है। 
ऐसे कई आंकड़े हैं जो दिखाते हैं कि अमेरिका में अप्रवासी समुदाय असाधारण रूप से विकास कर रहे हैं,  जिसका सबूत है नासा या माइक्रोसॉफ्ट जैसे संगठनों में उनका प्रतिशत औसत से काफी ऊपर है। 
मुझे हमेशा से लगता था कि भारतीय शिक्षा प्रणाली में कुछ सुधार करने की आवश्यकता है। लेकिन हाल ही में मुझे ये एहसास हुआ कि भारतीय अपनी कमज़ोर शिक्षा-प्रणाली के बावजूद बुद्धिमान और सफल हैं। 
यह बात सामान्य से बहुत ज्यादा है। विशेष रूप से विज्ञान और प्रौद्योगिकी विषयों के कुछ ऐसे संस्थान भी है जिनमें उत्कृष्ट संकाय और पाठ्यक्रम मौजूद है, फिर भी एक बात निश्चित है कि भारत में सामान्य शिक्षा में सुधार किये जाने की तत्काल आवश्यकता है। 
कुछ साल पहले मैंने पहली बार एक 5 साल के बच्चे की पाठ्यपुस्तक को देखा था जिससे वह “London Bridge is falling down, falling down, my fair Lady…” गाना सीख रहा था, मैं यह देखकर चौंक गई थी कि आठ साल के उस बच्चे को कविता की तुकबंदी अच्छी तरह से याद थी। यह उसकी अच्छी याददाश्त का सबूत था। लेकिन क्या यह दिमाग कुछ और बेहतर करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सका था ? हाल ही में उसने रोमन संख्याओं: X, C, L इत्यादि को सीखा। 
मैंने जब उसको कहा कि उसे यह सब सीखने की क्या जरुरत है जबकि भारतीयों ने दुनिया भर में उपयोग की जाने वाली दशमलव प्रणाली की सुविधा उपलब्ध करवाई है। तब उस बच्चे ने अपने उत्तर से मुझे चौंका दिया। उसने कहा कि “मैं तो इसे सिर्फ सामन्य-ज्ञान के लिए पढ़ रहा हूँ।” 
 
मेरा यह आकलन है कि पश्चिम में सामान्य ज्ञान बहुत ज्यादा उपेक्षित है। ‘प्राणायाम’ के बारे में जानने की कोशिश करने पर जानते हैं मुझे क्या पता चला ? मेरे लैपटॉप ने इस शब्द के नीचे एक लाल रेखा खींच दी। क्योंकि उसने इस शब्द के बारे में कभी नहीं सुना। 
एक बार मुझे मेरी बहन ने बताया कि 'कौन बनगा करोड़पति' के जर्मन संस्करण में दस लाख यूरो का प्रश्न था कि 'एडमंड हिलेरी के साथ माउंट एवरेस्ट पर कौन था?' 
आयोजकों को शायद यकीन था कि जर्मन लोगों ने कभी यह नाम नहीं सुना होगा। जबकि यह तेनज़िंग नोर्के शेरपा ही थे जिन्होंने एडमंड हिलेरी को इस दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचाया और  नहीं था जिसने हिलेरी को चोटी तक पहुंचने और उनको मिलने वाले सबी पुरस्कारों तक उनकी पहुंच बनाई। 
कुछ दिन पहले मैंने बैचलर ऑफ साइंस की एक छात्रा के नोट्स को देखा। वह मनोविज्ञान की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। मुझे फिर से झटका लगा कि उसने सिग्मंड फ्रायड के व्यक्तित्व विकास के मनोविश्लेषण सिद्धांत पर 7½ पृष्ठों की प्रतिलिपि बनाई थी।
उसने ओडीपस-कॉम्प्लेक्स के मौखिक, गुदा, फालिक, जननांग चरणों  वगैरह के बारे में सीखा। किसी ने उसे नहीं बताया कि यह सिद्धांत पुराना पड़ चुका है। 
हालांकि कई कारणों से सिगमंड फ्रायड एक प्रसिद्ध नाम है इसलिए छात्र इनके बारे में सब कुछ सीख लेना चाहते है। 
और हां निश्चित रूप से इस छात्रा के पास सीखने के लिए और भी कई सिद्धांत थे जैसे: कार्ल जंग (जिन्होंने फ्रायड का साथ छोड़ दिया था और 1938 में भारत का दौरा किया था), स्किनर, मास्लो इत्यादि। 
लेकिन उसके नोट्स में किसी भी भारतीय का उल्लेख नहीं किया गया था। 
हालांकि जर्मन छात्रों ने भगवत-गीता के बारे में सुना है। संयोग से मुझे  भगवद गीता के  योग सिद्धांत पर एक विश्वविद्यालय के पाठकों के लिए अध्याय लिखने के लिए कहा गया था जो 1989 में प्रकाशित हुआ था। यह जर्मनी के मनोविज्ञान छात्रों के लिए था। 
1970 के दशक में पश्चिम में भारत की लहर अपने चरम पर थीं, पश्चिमी मनोविज्ञान ने मौजूदा उपचारों में एक नई धारा को जोड़ा गया था जिसे 'ट्रांसपर्सल साइकोथेरेपी'  कहा जाता था और जैसा कि नाम से पता चलता है, ऐसा अध्यनन जो एक व्यक्ति की वास्तविकता से भी आगे के व्यक्तित्व को दर्शाता है। 
कभी आत्मा के बारे में सुना है ? विचार करने वाले कुछ प्रमुख प्रतिनिधियों जैसे स्टैनिस्लो और क्रिस्टीना ग्रॉफ के पास भारतीय गुरु थे। हालांकि, मुझे संदेह है कि क्या कभी उनके कामों में भारतीय योगदान को स्वीकारा जायेगा।
मुझे आश्चर्य होता है कि आखिर क्यों भारतीयों को अभी भी अपने ज्ञान पर मजबूती से खड़े होने पर भरोसा नहीं है। क्या वे इस बात से अवगत नहीं हैं कि भारतीय प्राचीन ग्रंथ मानव के बारे में ज्ञान का एक अद्भुत स्रोत हैं? 
स्वामी विवेकानंद या श्री अरबिंदो का लेखन बड़ी ही आसानी से व्यक्तित्व जैसे विषय पर किसी भी पश्चिमी लेखक के विचारों को टक्कर दे सकता है। लेकिन कम से कम क्या इन विषयों पर पूरी जागरूकता से पाठ्यक्रम तैयार किये जा रहे हैं? 
ऐसा लगता है कि यह बहुत स्पष्ट है कि जब पश्चिम के लोग भारतीयों की सराहना करेंगे तभी भारतीयों को अपनी इस अलौकिक संपदा का अहसास होगा। 

उदाहरण के लिए, जब से हॉलीवुड ने रामायण पर एक फिल्म बनाने में रूचि दिखाई है और भारतीय पौराणिक कथाएं पश्चिम में हिट हो रही है जो निश्चित रूप से आर्थिक रूप से लाभकारी है, तभी से भारतीय बच्चे (और वयस्क) भी अपनी पौराणिक कथाओं के बारे में जानने सुनने में रुचि लेने लगे हैं। 

एक बार की बात है कि देहरादून में आपसी मेल मुलाकात के लिए मेरे कुछ साथी इकट्ठा हुए थे। तभी किसी ने शेक्सपियर का हवाला दिया और वह सभी उम्मीद कर रहे थे कि मुझे “पैसेज” का अर्थ पता होगा । इसे अति-शिक्षित होने का संकेत माना जाता है। 
लेकिन सच यह है कि मुझे अंग्रेजी साहित्य का कोई ज्ञान नहीं है। स्कूल में हमारा ध्यान जर्मन साहित्य केन्द्रित रहता पर था। संयोग से कुछ ऐसे प्रसिद्ध जर्मन लेखक हुए है जैसे हेसे, हेइन, हेडर, रिल्के, जीन पॉल, नोवालिस, शॉपनहॉवर और कुछ दूसरे लोगों ने भारतीय ग्रंथों को पढ़ा और उसका प्रभाव उनपर पड़ा। हालांकि उनमें से अधिकांश कभी भारत नहीं गए थे, लेकिन उन्होंने उपनिषदों और भगवत-गीता के आध्यात्मिक मूल्यों की सराहना की।
कुछ लोगों ने तो स्पष्ट रुप से यह कहा कि भारतीयों के व्यापक ज्ञान से पश्चिम के 'विशाल एकतरफा वाद’ का एहसास होगा, जिसमें पश्चिम का संपूर्ण धार्मिक और दार्शनिक विचार फंस गया है' (1920 में प्रोफेसर पॉल डीसैन)।‘ 
अब मैं शिक्षित होने के अपने विचार पर लौटती हूं। यह सामान्य रुप से सबको पता है औपनिवेशिक ब्रिटिश साम्राज्य के लोग अपनी शिक्षा प्रणाली के जरिए भारत को नियंत्रित करने का इरादा रखते थे और यह कारगर भी हुआ। 
लेकिन आजादी के इतने सालों के बाद भी भारत से इस प्रणाली को हटाने से कौन रोक रहा है?  चूंकि भारतीयों के बुद्धिमान होने पर कोई संदेह नहीं है,  वे आसानी से बेहतर उपायों की मदद लेकर अपने 12 या अधिक वर्षों की शिक्षा को कैसे सुधार सकते है, उन्हें दूसरे देशों के जैसे शिक्षा प्रतिलिपि बनाने की आवश्यता नहीं है। आज के भारतीय एक कॉन्वेंट से शिक्षित होने पर इतना गर्व क्यों करते है?  भारतीयों को फ्रायड के बारे में क्यों सीखना चाहिए ? क्योंकि फ्रायड सामान्य-ज्ञान है और भारतीय-ज्ञान नहीं है इसलिए? क्योंकि यह कुछ टीवी प्रश्नोत्तरी में आ सकता है इसलिए?  क्योंकि कुछ रात्रिभोज पार्टी में इस विषय की जानकारी होने पर किसी को अत्यधिक शिक्षित माना जा सकता है इसलिए? यह निश्चित रूप से अजीब है।

भारत में बाल-श्रम के संबंधित बहुत से कानून लागू किये जाते परन्तु स्कूली बच्चों को अत्यधिक परिश्रम से बचाने के लिए क्यों नहीं उपाय बनाए जाते हैं।  उनका दैनिक कार्य अक्सर 6 बजे शुरू होता है, सर्दी में भी ट्यूशन के लिए इसी समय उठाना होता है और उन्हें दिन में कई घंटों तक अक्सर अपने अनावश्यक कार्यों के साथ अपने दिमाग को प्रताड़ित करना पड़ता है और उनके माता पिता को उन पर बढ़ रहे बोझ का एहसास भी नहीं होता पाता है। परीक्षा परिणामों में पास होने के दबाव में वे लगातार परिश्रम करके खुद को मानसिक रुप से नुकसान पहुंचा रहे है।

एक बार जब मैं दिल्ली में एक ऑटो में थी। लाल रोशनी पर ट्रैफिक रुका मेरे ऑटो के बगल में स्कूली बच्चों से भरी मारुति वैन आकर रुकी। मैंने ट्रैफिक लाइट के हरे रंग होने तक उन्हें झुककर देखती रही, उनमें से किसी एक ने भी मेरी ओर नहीं देखा वे सभी चुपचाप सीधे आगे ही देख रहे शायद वे कहीं अपने ही विचारों में खोये हुए थे या शायद वे सब लगातार मेहनत करते हुए थक गये थे।

इस समय मुझे लग रहा था इन स्कूली बच्चों से ज्यादा सड़क पर रहने वाले बच्चे अपना जीवन जीते हैं और हर चीज़ को लेकर जागरूक रहते है। वे अपने आत्मसम्मान में कमी नहीं करते है और किसी भी B.Sc के छात्रों की अपेक्षा मनोविज्ञान और जीवन कौशल को करीब से जानते है। हालांकि “BA” या  “B.Sc.”  या  “PhD”  के छात्र खुद को उनसे श्रेष्ठ समझते है। क्या किसी को पता है ऐसा क्यों होता है?

मारिया विर्थ 
(मारिया विर्थ जर्मन नागरिक हैं, जो कि भारतीय संस्कृति से अभिभूत होकर पिछले 38 सालों से भारत में रह रही हैं। उन्होंने सनातन धर्म के सूक्ष्म तत्वों का गहराई से अध्ययन करने के बाद, अपना पूरा जीवन सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना के कार्य हेतु समर्पित कर दिया है।)