अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने जीवन काल में कई कविताएं लिखीं। समय-दर-समय उन्हें संसद और दूसरे मंचों से पढ़ा। उनका कविता संग्रह 'मेरी इक्वावन कविताएं' उनके समर्थकों में खासा लोकप्रिय हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी रहे हैं। मेरी इक्यावन कविताएं अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। वाजपेयी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण अटल जी की रगों में काव्य रक्त-रस अनवरत घूमता रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। उनकी कुछ चर्चित कविताएं इस प्रकार हैं-
1. दूध में दरार पड़ गई
खून क्यों सफेद हो गया? भेद में अभेद खो गया बंट गये शहीद, गीत कट गए कलेजे में कटार दड़ गई दूध में दरार पड़ गई
खेतों में बारूदी गंध, टूट गये नानक के छंद सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है वसंत से बहार झड़ गई दूध में दरार पड़ गई
अपनी ही छाया से बैर गले लगने लगे हैं ग़ैर ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता बात बनाएं, बिगड़ गई दूध में दरार पड़ गई
2. दो अनुभूतियां
पहली अनुभूति - गीत नहीं गाता हूं
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं गीत नहीं गाता हूं
पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं गीत नहीं गाता हूं
दूसरी अनुभूति - गीत नया गाता हूं
गीत नया गाता हूं, गीत नया गाता हूं टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात प्राची में, अरुणिमा की रेख देख पाता हूं गीत नया गाता हूं, गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपने की सुने कौन, सिसकी? अंतर को चीर व्यथा, पलकों पर ठिठकी हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा काल के कपाल पर, लिखता-मिटाता हूं गीत नया गाता हूं, गीत नया गाता हूं
3. भारत का मस्तक नहीं झुकेगा
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।
अगणित बलिदानो से अर्जित यह स्वतंत्रता, अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतंत्रता। त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतंत्रता, दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतंत्रता।
इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो, चिनगारी का खेल बुरा होता है । औरों के घर आग लगाने का जो सपना, वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।
अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो, अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ। ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो, आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।
पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है? तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई। अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं, माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई?
अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो। दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से तुम बच लोगे यह मत समझो।
धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो। हमलो से, अत्याचारों से, संहारों से भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।
जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार, अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष, स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे अगणित जीवन यौवन अशेष।
अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध, काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, पर स्वतंत्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा।
4. कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएं आती हैं आएं घिरें प्रलय की घोर घटाएं, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं, निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते, पावस बनकर ढलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।
कुछ कांटों से सज्जित जीवन, प्रखर प्यार से वंचित यौवन, नीरवता से मुखरित मधुबन, परहित अर्पित अपना तन-मन, जीवन को शत-शत आहुति में, जलना होगा, गलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा।
5. मौत से ठन गई
ठन गई! मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िंदगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, ज़िंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िंदगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ां का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
6. यक्ष प्रश्न
जो कल थे, वे आज नहीं हैं। जो आज हैं, वे कल नहीं होंगे। होने, न होने का क्रम, इसी तरह चलता रहेगा, हम हैं, हम रहेंगे, यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
सत्य क्या है? होना या न होना? या दोनों ही सत्य हैं? जो है, उसका होना सत्य है, जो नहीं है, उसका न होना सत्य है। मुझे लगता है कि होना-न-होना एक ही सत्य के दो आयाम हैं, शेष सब समझ का फेर, बुद्धि के व्यायाम हैं। किन्तु न होने के बाद क्या होता है, यह प्रश्न अनुत्तरित है।
प्रत्येक नया नचिकेता, इस प्रश्न की खोज में लगा है। सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है। शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा। यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें तो इसमें बुराई क्या है? हाँ, खोज का सिलसिला न रुके, धर्म की अनुभूति, विज्ञान का अनुसंधान, एक दिन, अवश्य ही रुद्ध द्वार खोलेगा। प्रश्न पूछने के बजाय यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।